।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण दशमी, वि.सं. २०७६ सोमवार
एकादशी-व्रत कल है
भगवद्भक्तिका रहस्य
        



श्रीमद्भागवतमें बतलाया है कि कोई भी कामना न हो या सभी तरहकी कामना हो अथवा केवल मुक्तिकी ही कामना हो तो भी श्रेष्ठ बुद्धिवाला मनुष्य तीव्र भक्तियोगसे परम पुरुष भगवान्‌की ही पूजा करे–

अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।
तीव्रेण  भक्तियोगेन   यजेत   पुरुषं  परम् ॥
                                                  (२/३/१०)

यहाँ ‘अकाम’ से ज्ञानी भक्त, ‘मोक्षकाम’ से जिज्ञासु तथा ‘सर्वकाम’ से अर्थार्थी और आर्त भक्त समझना चाहिये । ज्ञानीभक्त वह है जो भगवान्‌को तत्त्वतः जानकर स्वाभाविक ही उनका निष्कामभावसे नित्य-निरन्तर भजन करता रहता है । जिज्ञासु भक्त उसका नाम है, जो भगवत्तत्त्वको जाननेकी इच्छासे उनका भजन करता है । अर्थार्थी भक्त वह होता है, जो भगवान्‌पर भरोसा करके उनसे ही संसारी भोग-पदार्थोंको चाहता है और आर्त भक्त वह है, जो संसारके कष्टोंसे उन्हींके द्वारा त्राण चाहता है ।

गीतामें इन्हीं भक्तोंके सकाम और निष्काम भावोंके तारतम्यसे चार प्रकार बतलाये हैं–

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी  ज्ञानी  च  भरतर्षभ ॥
                                                  (७/१६)

‘हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्म करनेवाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी ऐसे चार प्रकारके भक्तजन मुझको भजते हैं ।’

इनमें सबसे निम्नश्रेणीका भक्त अर्थार्थी है, उससे ऊँचा आर्त, आर्तसे ऊँचा जिज्ञासु और जिज्ञासुसे ऊँचा ज्ञानी भक्त है । भोग और ऐश्वर्य आदि पदार्थोंकी इच्छाको लेकर जो भगवान्‌की भक्तिमें प्रवृत्त होता है, उसका लक्ष्य भगवद्भजनकी ओर गौण तथा पदार्थोंकी ओर मुख्य रहता है; क्योंकि वह पदार्थोंके लिये भगवान्‌का भजन करता है, न कि भगवान्‌के लिये । वह भगवान्‌को तो धनोपार्जनका एक साधन समझता है, फिर भी भगवान्‌पर भरोसा रखकर धनके लिए भजन करता है, इसलिए वह भक्त कहलाता है ।


जिसको भगवान्‌ स्वाभाविक ही अच्छे लगते हैं और जो भगवान्‌के भजनमें स्वाभाविक ही प्रवृत्त होता है, किन्तु सम्पत्ति-वैभव आदि जो उसके पास हैं, उनका जब नाश होने लगता है अथवा शारीरिक कष्ट आ पड़ता है; तब उन कष्टोंको दूर करनेके लिये भगवान्‌को पुकारता है, वह आर्त भक्त अर्थार्थीकी तरह वैभव और भोगोंका संग्रह तो नहीं करना चाहता, परन्तु प्राप्त वस्तुओंके नाश और शारीरिक कष्टको नहीं सह सकता, अतः इसमें उसकी अपेक्षा कामना कम है और जिज्ञासु भक्त तो न वैभव चाहता है न योगक्षेमकी ही परवाह  करता है; वह तो केवल एक भगवत्तत्त्वको ही जाननेके लिये भगवान्‌पर ही निर्भर होकर उनका भजन करता है ।