।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल चतुर्थी, वि.सं. २०७६ गुरुवार
                 शरणागति



मैं तो भगवान्‌के शरण हो गया । जैसे कन्यादान करनेपर लड़की समझ लेती है मेरा तो विवाह हो गया । बस एकसे सम्बन्ध हो गया । अब उम्रभर यह अटल अखण्ड सम्बन्ध है । इस सम्बन्धके बाद चाहे पति रहे, न रहे, वह आदर करे, अनादर करे, छोड़ दे, संन्यासी हो जाय । हमारी भारतकी नारी ऐसी है कि जिस एकको स्वीकार कर लिया, तो कर लिया । इसीका दृष्टान्त सन्तोंने दिया है कि‒

  पतिव्रता रहे पतिके पासा । यूं साहिबके ढिग रहे दासा ॥

दास भगवान्‌के पास ऐसे रहे जैसे पतिव्रता रहती है । उसके एक ही मालिक; एक ही तरफ उसका विचार रहता है । उसकी राजीमें राजी । उसकी सेवा करना ।

एकइ  धर्म   एक   ब्रत   नेमा ।
कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥
                                                         (मानस ३/४/६)

उसका एक ही धर्म है, एक ही व्रत है, एक ही नियम है‒शरीर, मन, वाणीसे केवल पतिके चरणोंमें प्रेम । इसी तरह भगवान्‌की शरण होना । एक ही व्रत कि मैं भगवान्‌का हूँ । भगवान्‌का धर्म, भगवनकी आज्ञा, भगवान्‌की अनुकूलता‒वही धर्म है । केवल भगवान्‌का ही मैं हूँ और किसीका नहीं । ‘और किसीका नहीं हूँ’‒इसका तात्पर्य क्या है ? किसीसे किंचिन्मात्र कभी भी कुछ लेना नहीं । किसीसे किंचिन्मात्र भी कोई अभिलाषा नहीं रखनी है । जैसे पतिव्रता होती है वह घरमें सबकी सेवा करती है । सास, ससुर, देवर, जेठ, जेठानी, देवरानी, ननद आदिकी सेवा करती है । समयपर अतिथि-सत्कार भी करती है । साधुओंको भी भिक्षा देती है; परन्तु अपना सम्बन्ध किसीके साथ नहीं । देवर, जेठ आदिसे सम्बन्ध है तो पतिके नातेसे ही है । स्वतन्त्र सम्बन्ध किसीसे कुछ भी नहीं । इसी तरहका व्रत ले लें कि केवल भगवान्‌से ही मेरा सम्बन्ध है और किसीसे कुछ सम्बन्ध नहीं है । नियम है तो भगवान्‌के भजनका और भगवान्‌के शरण होनेका । एक यही नियम है । ऐसे अनन्यभावसे भगवान्‌के शरण हो जाय, किसी अन्यका आश्रय न रहे ।

दूसरोंकी सेवा करनेमें, काम कर देनेमें, शास्त्रके अनुसार सुख पहुँचानेमें दोष नहीं है । दोष है अपने लिये कुछ चाहनेमें, भगवान्‌के शरण होनेपर किसीसे कभी भी किंचिन्मात्र भी चाहना न हो । ‘मोर दास कहाइ नर आसा । करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा ॥’ (मानस ७/४५/२) भगवान्‌का दास कहलवाकर किसीसे किंचिन्मात्र भी आशा रखता है तो वह भगवान्‌का दास कहाँ हुआ ? जिस चीजकी आशा रखता है, उसीका दास है । भगवान्‌का दास नहीं है । वह धन, सम्पत्तिका दास है, भगवान्‌का दास नहीं है । भगवान्‌को तो एक साधन मानता है । वह भगवद्भक्त नहीं है । ऐसे किसीसे किंचिन्मात्र भी कुछ नहीं चाहता । न आशा है, न भरोसा है, न बल है, न उसका किसीसे सम्बन्ध है । ऐसे केवल अनन्यभावसे मेरे शरण हो जाय और शरण होकर फिर निश्चिन्त हो जाय ।


‘मा शुचः’ का अर्थ है किसी विषयकी चिन्ता मत कर । किसी बातकी कोई चिन्ता आ जाय तो कह दे कि भाई ! मैं चिन्ता नहीं करूँगा । तो चिन्ता मिट जायगी । दृढ़ता रहनेपर चिन्ता आ भी जायगी तो ठहरेगी नहीं । चिन्ता तभीतक आती है, जबतक आप अपनेमें कुछ बलका अभिमान रखते हैं ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल तृतीया, वि.सं. २०७६ बुधवार
                 शरणागति



भगवान्‌ने भगवद्गीतामें सबसे श्रेष्ठ भक्तियोगको कहा है जो कि शरणागति है । उपदेश भी आरम्भ हुआ है अर्जुनके शरण होनेसे और अन्तिम उपदेश यही दिया है कि

सर्वधर्मान्परित्यज्य        मामेकं   शरणं  व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
                                                 (गीता १८/६६)

इससे पहले भगवान्‌ने ‘गुह्य’ कहा, ‘गुह्यतर’ कहा, ‘गुह्यतम’ कहा और यहाँ ‘सर्वगुह्यतम’ (१८/६४) कहा । तो सबसे अन्यन्त गोपनीय बात कहते हैं ‘मामेकं शरण व्रज’ एक मेरी शरण हो जा । अर्जुनने पूछा कि ‘धर्मसम्मूढचेताः त्वां पृच्छामि’ धर्मके निर्णय करनेमें मेरी बुद्धि काम नहीं करती, इसलिये आपसे पूछता हूँ ।

भगवान्‌ कहते हैं कि जिसका निर्णय तू नहीं कर सकता, वह मेरेपर छोड़ डे । अर्जुन धर्मका निर्णय नहीं कर सकता था कि युद्ध करूँ या न करूँ । तो भगवान् कहते हैं कि यदि तुझे पता नहीं है तो इस दुविधा में मत पड़ । इन सबको छोड़कर एक मेरे शरण हो जा । मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा । तू चिन्ता मत कर । तो इसमें सब तरहके आश्रयका त्याग कर देना है । किसीका आश्रय नहीं रखना है । मनमें किसी अन्यका भरोसा और आश्रय सब छोड़ दे । अनन्यभावसे भगवान्‌के शरण हो जाय । साधन और साध्य इसीको मानो । यह शरणागतिकी सबसे गोपनीय और सबसे बढ़िया बात भगवान्‌ने कही ।


इसमें एक बहुत विशेष रहस्यकी बात है‒‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः’, मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू चिन्ता मत कर । यह बहुत विलक्षण बात कही । इसका यह तात्पर्य नहीं है कि तू शरण हो जायगा तो तेरा पाप मैं नष्ट करूँगा । अर्जुनको लोभ दिया गया हो, ऐसी बात नहीं है । तू अनन्यभावसे शरण हो जा, धर्मकी परवाह मत कर, धर्मके त्यागसे होनेवाले पापका ठेका मेरेपर आ गया । गीतामें कहा है‒‘नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते’ (२/४०) । निष्कामभावसे जो कर्म करता है उसका उलटा फल नहीं होता । अधर्म होता ही नहीं । तू केवल मेरी शरण हो जा । इसके बाद कोई चिन्ता मत कर । शरण होनेके बाद मनमें कोई चिन्ता भी हो जाय, किसी तरहकी विपरीत भावना भी पैदा हो जाय, मन भी परमात्मामें न लगे, संसारके पदार्थोंमें राग-द्वेष भी हो जाय, तत्परता और निष्ठा न दिखायी दे‒इस तरहकी कमियाँ मालूम देवें तो उन कमियोंके लिये तू चिन्ता मत कर । भगवान्‌की शरण होनेपर उसको किसी तरहकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । निश्चिन्त हो जाना चाहिये । निर्भय और निःशोक होना चाहिये । निशंक हो चाहिये । लोकमें क्या दशा होगी, परलोकमें क्या होगा, यहाँ यश होगा कि अपयश होगा, निन्दा होगी कि स्तुति होगी, ठीक होगा कि बेठीक होगा, लाभ होगा कि हानि होगी, लोग आदर करेंगे या निरादर करेंगे‒इन बातोंकी तरफ खयाल ही मत कर । केवल अनन्य शरण हो जा और सब आश्रय छोड़ दे । तू भय मत कर । शोक भी मत कर और शंका भी मत कर । जो वस्तु चली गयी उसका शोक होता है और विचारमें बात आती है तो शंका होती है । शोकका भी त्याग कर दे । ‘मा शुचः’ का तात्पर्य है कि तू किस तरहका किंचिन्मात्र भी सोच मत कर ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं. २०७६ मंगलवार
                   भैयादूज, यमद्वितीया,
               सेवा कैसे करें ?



लोगोंमें यह वहम रहता है कि इतना धन हो जाय तो हम ऐसी-ऐसी सेवा करेंगे । विचार करना चाहिये कि जिनके पास उतना धन है, वे सेवा करते हैं क्या ? वे तो सेवा नहीं करते और हम करेंगे ! जब धन हो जाय, तब देखना ! नहीं होगी सेवा । जिस समय पैसा हो जायगा, उस समय यह भाव नहीं रहेगा । भाव बदल जायगा । हमने देखे हैं ऐसे आदमी । केवल पुस्तकोंकी बात नहीं कहता हूँ । कलकत्तेके एक सज्जन दलाली करते थे और स्वर्गाश्रम, ऋषिकेशमें सत्संगके लिये आया करते थे । बड़ा उत्तम स्वभाव था उनका । वे कहते थे कि हम तो दलाली करते हैं, वह भी छोड़कर सत्संगमें आ जाते हैं और इनके पास इतना-इतना धन है, पर ये सत्संगमें नहीं आते । इनको क्या बाधा लगती है ? परन्तु आगे चलकर जब उनके पास धन हो गया, तब उनका सत्संगमें आना कम हो गया । उनको सत्संगमें आनेका समय ही नहीं मिलता । कारण कि धन बढ़ेगा तो कारोबार भी बढ़ेगा और कारोबार बढ़ेगा तो समय कम मिलेगा । अतः जबतक धन नहीं है, तबतक और विचार रहता है, पर धन होनेपर वह विचार नहीं रहता । किसी-किसीका वह विचार रह भी जाता है; वे शूरवीर ही हैं, जिन्होंने धनको पचा लिया । प्रायः धन पचता नहीं, अजीर्ण हो जाता है । बलका अजीर्ण हो जाता है । पहले विचार रहता है कि बल हो तो हम ऐसा-ऐसा करें, पर बल होनेपर निर्बलको दबाते हैं । जब वोट माँगते हैं, उस समय कहते हैं कि हम आपकी सेवाके लिये ये-ये काम करेंगे, पर मिनिस्टर बननेपर आपको पूछेंगे भी नहीं । क्या यह सेवा है ? यह सेवा नहीं है, स्वार्थ है । एक गाँवमें एक आदमी गया तो उसने कहा कि तुम्हारे गाँवमें इतना कूड़ा-कचरा पड़ा है, क्या सफाई करनेके लिये मेहतर नहीं आता ? वे बोले‒पाँच वर्ष बाद आता है मेहतर ! पहले कोई नहीं आता ? जब वोट माँगने आते हैं, तब मेहतर आता है ।

दूसरा कोई सेवा करता है, तो हमारेको बुरा क्यों लगता है ? कि हमारी महिमा नहीं हुई, उसकी महिमा हो गयी । उसने अन्नक्षेत्र खोल दिया, विद्यालय खोल दिया, व्याख्यान देना शुरू कर दिया तो उसकी महिमा हो गयी, हमारी महिमा नहीं हुई । यह सेवा करना है या अपनी महिमा चाहना है ? कसौटी कसकर देखो तो पता लगे । सेवाका तो बहाना है । अच्छाईके चोलेमें बुराई रहती है‒‘कालनेमि जिमि रावन राहू’ ऊपर अच्छाईका चोला है, भीतर बुराई भरी है । यह बुराई भयंकर होती है । जो बुराई चौड़े (प्रत्यक्ष) होती है, वह इतनी भयंकर नहीं होती, जितनी यह भयंकर होती है ।

असली सेवा करनेका जिसका भाव होगा, वह दूसरेके दुःखसे दुःखी और दूसरेके सुखसे सुखी हो जायगा । दूसरोंके दुःखसे दुःखी और सुखसे सुखी न होकर कोई सेवा कर सकता है क्या ? जबतक दूसरोंके दुःखसे दुःखी और सुखसे सुखी नहीं होगा, तबतक सेवा नहीं होगी । जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी होगा, वह अपना सुख दूसरोंको देगा, स्वयं सुख नहीं लेगा; और दूसरोंके सुखसे सुखी होगा, उसको अपने सुखके लिये संग्रह नहीं करना पड़ेगा । यह बात कण्ठस्थ कर लो कि दूसरोंके दुःखसे दुःखी होनेवालेको अपने दुःखसे दुःखी नहीं होना पड़ता और दूसरोंके सुखसे सुखी होनेवालोको अपने सुखके लिये भोग और संग्रह नहीं करना पड़ता ।

संसारसे मिली हुई सामग्रीको अपनी मानकर सेवामें लगाओगे तो अभिमान आयेगा । अतः सेवाके लिये सामग्रीकी जरूरत नहीं है, हृदयकी जरूरत है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे

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