लोगोंमें यह वहम रहता है कि इतना धन हो जाय तो
हम ऐसी-ऐसी सेवा करेंगे । विचार करना चाहिये कि जिनके पास उतना धन है, वे सेवा
करते हैं क्या ? वे तो सेवा नहीं करते और हम करेंगे ! जब धन हो जाय, तब देखना !
नहीं होगी सेवा । जिस समय पैसा हो जायगा, उस समय यह भाव नहीं रहेगा । भाव बदल जायगा । हमने देखे हैं ऐसे आदमी । केवल पुस्तकोंकी बात नहीं कहता हूँ । कलकत्तेके एक सज्जन
दलाली करते थे और स्वर्गाश्रम, ऋषिकेशमें सत्संगके लिये आया करते थे । बड़ा उत्तम
स्वभाव था उनका । वे कहते थे कि हम तो दलाली करते हैं, वह भी छोड़कर सत्संगमें आ
जाते हैं और इनके पास इतना-इतना धन है, पर ये सत्संगमें नहीं आते । इनको क्या बाधा
लगती है ? परन्तु आगे चलकर जब उनके पास धन हो गया, तब उनका सत्संगमें आना कम हो
गया । उनको सत्संगमें आनेका समय ही नहीं मिलता । कारण कि धन बढ़ेगा तो कारोबार भी बढ़ेगा
और कारोबार बढ़ेगा तो समय कम मिलेगा । अतः जबतक धन नहीं है, तबतक और विचार रहता है,
पर धन होनेपर वह विचार नहीं रहता । किसी-किसीका वह विचार रह भी जाता है; वे शूरवीर
ही हैं, जिन्होंने धनको पचा लिया । प्रायः धन पचता नहीं,
अजीर्ण हो जाता है । बलका अजीर्ण हो जाता है । पहले विचार रहता है कि बल हो
तो हम ऐसा-ऐसा करें, पर बल होनेपर निर्बलको दबाते हैं । जब वोट माँगते हैं, उस समय
कहते हैं कि हम आपकी सेवाके लिये ये-ये काम करेंगे, पर मिनिस्टर बननेपर आपको
पूछेंगे भी नहीं । क्या यह सेवा है ? यह सेवा नहीं है, स्वार्थ है । एक गाँवमें एक आदमी
गया तो उसने कहा कि तुम्हारे गाँवमें इतना कूड़ा-कचरा पड़ा है, क्या सफाई करनेके
लिये मेहतर नहीं आता ? वे बोले‒पाँच वर्ष बाद आता है मेहतर ! पहले कोई नहीं आता ?
जब वोट माँगने आते हैं, तब मेहतर आता है ।
दूसरा कोई सेवा करता है, तो हमारेको बुरा क्यों लगता है ?
कि हमारी महिमा नहीं हुई, उसकी महिमा हो गयी । उसने अन्नक्षेत्र खोल दिया,
विद्यालय खोल दिया, व्याख्यान देना शुरू कर दिया तो उसकी महिमा हो गयी, हमारी
महिमा नहीं हुई । यह
सेवा करना है या अपनी महिमा चाहना है ? कसौटी कसकर देखो तो पता लगे । सेवाका तो
बहाना है । अच्छाईके चोलेमें बुराई रहती है‒‘कालनेमि जिमि रावन राहू’ ऊपर
अच्छाईका चोला है, भीतर बुराई भरी है । यह बुराई भयंकर होती है । जो बुराई चौड़े (प्रत्यक्ष) होती
है, वह इतनी भयंकर नहीं होती, जितनी यह भयंकर होती है ।
असली सेवा करनेका जिसका भाव होगा, वह दूसरेके
दुःखसे दुःखी और दूसरेके सुखसे सुखी हो जायगा । दूसरोंके दुःखसे दुःखी और सुखसे सुखी न होकर कोई सेवा कर
सकता है क्या ? जबतक दूसरोंके दुःखसे दुःखी और सुखसे सुखी नहीं होगा, तबतक सेवा
नहीं होगी । जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी होगा, वह अपना सुख दूसरोंको देगा, स्वयं सुख
नहीं लेगा; और दूसरोंके सुखसे सुखी होगा, उसको अपने सुखके लिये संग्रह नहीं करना
पड़ेगा । यह बात
कण्ठस्थ कर लो कि दूसरोंके दुःखसे दुःखी होनेवालेको अपने दुःखसे दुःखी नहीं होना
पड़ता और दूसरोंके सुखसे सुखी होनेवालोको अपने सुखके लिये भोग और संग्रह नहीं करना
पड़ता ।
संसारसे
मिली हुई सामग्रीको अपनी मानकर सेवामें लगाओगे तो अभिमान आयेगा । अतः सेवाके लिये
सामग्रीकी जरूरत नहीं है, हृदयकी जरूरत है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे
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