।। श्रीहरिः ।।

                                                                         




           आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक पूर्णिमा, वि.सं.२०७७, सोमवा
भगवान्‌से अपनापन



हम अपनी तरफसे भगवान्‌को अपना मानते नहीं पर भगवान्‌ अपनी तरफसे हमें अपना मानते हैं । मानते ही नहीं, जानते भी हैं ।च्‍चा माँको अपनी माँ मानता है, पर कभी-कभी अड़ जाता है कि तू मेरा कहना नहीं मानती तो मैं तेरा बेटा नहीं बनूँगा । माँ हँसती है; क्योंकि वह जानती है कि बेटा तो मेरा ही है । बच्‍चा समझता है कि माँको मेरी गरज है, बेटा बनना माँको निहाल करना है, इसलिये कहता है कि तेरा बेटा नहीं बनूँगा, तेरी गोदमें नहीं आऊँगा । परन्तु बेटा नहीं बननेसे हानि किसकी होगी ? माँका क्या बिगड़ जायगा ? माँ तो बच्‍चेके बिना वर्षोसे जीती रही है, पर बच्‍चेका निर्वाह माँके बिना कठिन हो जायगा । च्‍चा उलटे माँपर अहसान करता है । ऐसे ही हम भी भगवान्‌पर अहसान कर सकते है !

भगवान्‌के एक बड़े प्यारे भक्त थे, नाम याद नहीं है । वे रात-दिन भगवद्भजनमें तल्लीन रहते थे । किसीने उनके लिये एक लंबी टोपी बनायी । उस टोपीको पहनकर वे मस्त होकर कीर्तन कर रहे थे । कीर्तन करते-करते वे प्रेममें इतने मग्न हो गये कि भगवान्‌ स्वयं आकर उनके पास बैठ गये और बोले कि भगतजी ! आज तो आपने बड़ी ऊँची टोपी लगायी ! वे बोले कि किसीके बापकी थोड़े ही है, मेरी है । भगवान्‌ने कहा कि मिजाज करते हो ? तो बोले कि माँगकर थोड़े ही लाये हैं मिजाज ? भगवान्‌ पूछा कि मेरेको जानते हो ? वे बोले कि अच्छी तरहसे जानता हूँ । भगवान्‌ बोले कि यह टोपी बिक्री करते हो क्या ? वे बोले कि तुम्हारे पास देनेको है ही क्या जो आये हो खरीदनेके लिये ? त्रिलोकी ही तो है तुम्हारे पास, और देनेको क्या है ? भगवान्‌ बोले कि इतना मिजाज ! तो वे बोले कि किसीका उधार लाये हैं क्या ? भगवान्‌ने कहा कि देखो, मैं दुनियासे कह दूँगा कि ये भगत-वगत कुछ नहीं हैं तो दुनिया तुम्हारेको मानेगी नहीं । वे बोले कि अच्छा, आप भी कहा दो, हम भी कह देंगे कि भगवान्‌ कुछ नहीं हैं । आपकी प्रसिद्धि तो हमलोगोंने की है, नहीं तो आपको कौन जानता है ? भगवान्‌ने हार मान ली !

माँके हृदयमें जितना प्रेम होता है उतना प्रेम बच्‍चोंके हृदयमें नहीं होता । ऐसे ही भगवान्‌के हृदयमें अपार स्‍नेह है । अपने स्‍नेहको, प्रेमको वे रोक नहीं सकते और हार जाते हैं ! और सबसों गये जीत, भगतसे हार्‌योकितनी विलक्षण बात है ! ऐसे भगवान्‌के हो जाओ । दूसरोंके साथ हमारा सम्बन्ध केवल उनकी सेवा करनेके लिये है । उनको अपना नहीं मानना है । अपना केवल भगवान्‌को मानना है । भगवान्‌की भी सेवा करनी है, पर उनसे लेना कुछ नहीं है ।

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।। श्रीहरिः ।।

                                                                        




           आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७७, रविवा
भगवान्‌से अपनापन


सज्जनो ! यह शरीर माता-पिताका है । इसलिये माता-पिताकी खूब सेवा करो, सब तरहसे उनको सुख पहुँचाओ, उनका आदर-सत्कार करो । वास्तवमें सेवा करके भी आप उऋण नहीं हो सकते । माँके ऋणसे कोई भी उऋण नहीं हो सकता । संसारसे जितने भी सम्बन्ध हैं, उनमें सबसे बढ़कर माँका सम्बन्ध है । इस शरीरका ठीक तरहसे पालन-पोषण जैसा माँ करती है, वैसा कोई नहीं कर सकतामात्रा समं नास्ति शरीरपोषणम् । । इसलिये कहा गया है

कुलं पवित्रं जननी कृतार्था        वसुन्धरा पुण्यवती च तेन ।

अपारसंवित्सुखसागारेऽस्मिन लीनं परे ब्रह्मणि यस्य चेतः ॥

                    (सकंन्दपुराण, माहे कौमार ५५/१४०)

अर्थात् जिसका अन्तःकरण परब्रह्म परमात्मामें लीन हो गया है, उसका कुल पवित्र हो जाता है, उसकी माता कृतार्थ हो जाती है, और यह सम्पूर्ण पृथ्वी महान् पवित्र हो जाती है ।

जननी जणे तो भक्त जण, कै दाता कै सूर ।

नहिं तो रहजे बाँझड़ी,    मती गमाजे नूर ॥

मैंने सन्तोंका बधावा बोलते समय सुना हैधिन जननी ज्यांरे ए सुत जाया ए, सोहन थाल बजाया ए । जिस माताने ऐसे भक्तको जन्म दिया है, वह धन्य है ! कारण कि बालकपर माँका विशेष असर पड़ता है । प्रायः देखा जाता है कि माँ श्रेष्ठ होती है तो उसका पुत्र भी श्रेष्ठ होता है । इसलिये जिसका मन भगवान्‌में लग जाता है, उसकी माँ कृतार्थ हो जाती है ।

आप दान-पुण्य करके, बड़ा उपकार करके इतना लाभ नहीं ले सकते, जितना लाभ भगवान्‌के शरण होनेसे ले सकते हैं । कारण कि परमात्माके साथ हमारा अकाट्य-अटूट सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध कभी भी टूट नहीं सकता । इस सम्बन्धको जीव ही भूला है, भगवान्‌ नहीं भूले । इसलिये जीवके ऊपर ही भगवान्‌की तरफ चलनेकी जिम्मेवारी है । भगवान्‌ तो अपनी ओरसे कृपा कर ही रहे हैं, चाहे वह कैसा ही क्यों न हो । भगवान्‌ सबका पालन, भरण-पोषण करते हैं । पापीको दण्ड देकर सुधारते हैं, नरकोंमें डालकर पवित्र करते हैं । इस तरह भगवान्‌ तो सम्पूर्ण जीवोंका पालन-पोषण करनेमें, उनको पवित्र करनेमें लगे हुए हैं । भगवान्‌ कहते हैं

सनमुख होई जीव मोहि जबहीं ।

जन्म कोटि अघ  नासहिं  तबहीं ॥

(मानस, सुन्दर४४/२)

जीव ही भगवान्‌से विमुख हुआ है, इसलिये इसपर ही भगवान्‌के सम्मुख होनेकी जिम्मेवारी है । जहाँ सम्मुख हुआ कि बेड़ा पार ! इसलिये हम प्रभुके चरणोंकी शरण हो जायँ और अपनी अहंता बदल दें कि हम परमात्माके हैं । जैसे बहनें-माताएँ अपनी अहंता बदल देती है कि मैं अब इस घरकी नहीं हूँ; जहाँ विवाह हुआ है, उस घरकी हूँ । उनका गोत्र बदल जाता है, पिताका गोत्र नहीं रहता । कई जगह ऐसी बात आती है कि घरमें कोई बालक पैदा हुआ और सूतक लगनेके कारण हम ठाकुरजीकी सेवा नहीं कर सकते, तो कहते है कि तुम्हारी जो विवाहित लड़की घरपर है, वह सेवा कर देगी; क्योंकि उसको तुम्हारा सूतक नहीं लगता, उसका गोत्र दूसरा है । वही लड़की आपके घरमें है और उसके ससुरालमें बालक पैदा हुआ तो आप उसको कहते हैं कि देख बेटी, जलको हाथ मत लगाना । वह खास अपनी बेटी है, पर ससुरालमें बालक पैदा होनेसे सूतक लगता है । ऐसे ही आप अपनी अहंता बदल दें कि हम तो भगवान्‌के हैं तो आप वास्तविकतातक पहुँच जायँगे ।

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।। श्रीहरिः ।।

                                                                       




           आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७७, शनिवा
भगवान्‌से अपनापन


पिताजीने उनको शुक्राचार्यजीके पुत्र शण्डामर्कके पास भेजा । वहाँपर वे पढ़ाई नहीं करते । गुरूजी जब बाहर जाते, तब वे पाठशाला बना देते । वे राजकुमार थे; अतः सब लड़के उनके कहनेसे भजन करते । गुरुजीने देखा कि प्रह्लादजीने तो पाठशालाको भजनशाला बना दिया; अतः वे हिरण्यकशिपुके पास जाकर बोले कि महाराज ! आपका लड़का खुद तो बिगड़ा ही है, दूसरे लड़कोंको भी बिगाड़ रहा है । हिरण्यकशिपुने प्रह्लादजीको बुलाकर पूछा कि तेरी यह खोटी बुद्धि कहाँसे आयी है ? स्वतः पैदा हुई है कि यहाँ किसीने तेरेको सिखायी है ? प्रह्लादजीने कहा कि पिताजी ! ऐसी बुद्धि न तो स्वतः पैदा होती है और न इसको कोई सिखा सकता है । यह तो सन्त-महात्माओंकी कृपासे मिलती है ।

बचपनमें प्रह्लादजीपर नारदजी महाराजकी कृपा हुई थी । प्रह्लादजी जब माँके गर्भमें थे, तब इन्द्रने आकर लूटपाट की और कयाधूको ले गया । हिरण्यकशिपु उस समय तपस्याके लिये वनमें गया हुआ था । जब इन्द्र कयाधूको लेकर जा रहा था, तब रास्तेमें नारदजी मिले । नारदजीने कहा कि इस अबलाको क्यों दुःख दे रहा है ? इस बेचारीने क्या अपराध किया है ? इन्द्र बोला कि महाराज ! इसके पेटमें मेरे शत्रु हिरण्यकशिपुका अंश है । उसने अकेले ही हमें इतना तंग कर दिया है, जब दो हो जायँगे, तब बड़ी मुश्किल हो जायगी ! इसलिए मैं कयाधूको ले जाता हूँ । जब इसका बच्‍चा जन्मेगा, तब मैं उसको मार दूँगा, कयाधूको कुछ नहीं करूँगा । नारदजीने कहा कि इसका जो बच्‍चा होगा, वह तेरा वैरी नहीं होगा । नारदजीकी बात राक्षस, असुर, देवता, मनुष्य सब मानते हैं; क्योंकि वे सन्त जो ठहरे । सन्तोंपर सबका विश्वास होता है । इन्द्रने उनकी बात मान ली और कयाधूको छोड़ दिया । नारदजीने कयाधूको एक कुटियामें रखा और कहा कि बेटी ! तुम चिन्ता मत करो और यहींपर आनंदसे रहो । जैसे पिताके घर लड़की प्यार-से रहती है, ऐसे ही वह भी वहाँ रहने लग गयी । नारदजी उसके गर्भको लक्ष्यमें रखकर भगवान्‌की कथाएँ सुनाते थे । इसके गर्भमें जो बालक है, वह भगवान्‌का भक्त बन जायइस भावसे वे सत्संगकी बड़ी अच्छी-अच्छी बातें सुनाते थे ।

माता घट रह्यो न लेश नारदके उपदेशको ।
सो धारयो अशेष    गर्भ मांही ज्ञानी भयो ॥

नारदजीका उपदेश माँको तो याद नहीं रहा, पर प्रह्लादजीने गर्भमें ही उस उपदेशको धारण कर लिया । वे वहींसे भक्त बन गये । भक्त बननेसे उनके हृदयमें यह बात आ गयी कि मैं स्वयं तो वास्तवमें परमात्माका ही हूँ और यह शरीर माता-पिताका है । माता-पिता यदि इस शरीरके टुकड़े-टुकड़े भी करें तो भी मेरेको बोलनेका कोई अधिकार नहीं है; क्योंकि शरीर उनका दिया हुआ है । परन्तु मैं स्वयं साक्षात् परमात्माका अंश हूँ; अतः परमात्मासे हटानेका इनको अधिकार नहीं है । मैं परमात्माकी तरफ लगूँ और यह शरीर माता-पिताकी सेवामें लगे ।

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।। श्रीहरिः ।।

                                                                      




           आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७७, शुक्रवा
भगवान्‌से अपनापन


पुत्र तो कुपुत्र हो सकता है, पर माता कभी कुमाता नहीं होती । ऐसे ही हमारे प्रभु कभी कुमाता-कुपिता नहीं होते । वे देखते हैं कि यह अभी बच्‍चा है, गलती कर दी; परन्तु फिर प्यार करनेके लिये तैयार !

अपि चेत्सुदुराचारो  भजते   मामनन्यभाक् ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥

(गीता ९/३०)

दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी यदि भगवान्‌के भजनमें अनन्यभावसे लग जाय कि मैं तो भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैंतो उसको साधु ही मानना चाहिये । वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है और निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता हैक्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति । (गीता ९/३१) । यह सच्‍ची बात है ।

संसारके हम नहीं हैं, संसार हमारा नहीं हैं । संसारके साथ अपनापन हमने किया है । वास्तवमें तो हम सदासे भगवान्‌के हैं और भगवान्‌ हमारे हैं । हम भले ही भूल जायँ, पर भगवान्‌ हमें भूलते नहीं हैं । हम चाहे भगवान्‌से विमुख हो जायँ, पर भगवान्‌ हमारेसे विमुख नहीं हुए हैं । भगवान्‌ कहते हैंसब मम प्रिय सब मम उपजाए (मानस, उत्तर ८६/२) सब-के-सब मेरेको प्यारे लगते हैं । इसलिये सज्जनो ! हम सब भगवान्‌के लाड़ले हैं, उनके प्यारे हैं !

अर्जुनने पूरी गीता सुननेके बाद क्या कहा ? ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा (१८/७३) मोह नष्ट हो गया और स्मृति मिल गयी, याद आ गयी । जो भूल हो गयी थी, वह याद आ गयी कि मैं तो आपका हूँ । अब क्या करोगे ? तो कहाकरिष्ये वचनं तव आप जो कहोगे, वही करूँगा । मैं तो आपका हूँ ही, पहले भूल गया था, अब वह भूल मिट गयी ।

हम सदासे परमात्माके ही हैं । शरीर संसारसे मिला है । जिन माता-पितासे यह शरीर मिला है, उनकी सब तरहसे सेवा करना, सुख पहुँचाना, आदर करना हमारा कर्त्तव्य है । पर हम स्वयं परमात्माके ही हैं । इस बातको ज्ञानी भक्त प्रह्लादजी जानते थे । पिताजी कहते हैं कि तुम भगवान्‌का नाम मत लो, उनका भजन मत करो; यदि करोगे तो मार दिये जाओगे । परन्तु प्रह्लादजी इस बातसे भयभीत नहीं होते । उनके पिता हिरण्यकशिपुने अपनी स्त्री कयाधूसे कहा कि तू अपने लड़केको जहर पिला दे । कयाधू पतिव्रता थी । उसकी गोदमें प्रह्लाद है और हाथमें जहरका प्याला । माँके द्वारा बच्‍चेको जहर पिलाया जाना बड़ा कठीन काम है । प्रह्लादजी अपनी माँसे कहते हैं कि माँ ! तू मेरेको जहर पिला दे तो तेरे भी धर्मका पालन हो जायगा और मेरे भी धर्मका पालन हो जायगा । प्रह्लादजी जहर पी गये, पर मरे नहीं; क्योंकि उनको भगवान्‌पर पूरा भरोसा था । उन्होंने पिताजीकी आज्ञाको भंग नहीं किया । उनको समुद्रमें डुबाने लगे तो उन्होंने यह नहीं कहा कि मेरेको समुद्रमें क्यों डुबाते हो ? वे वहाँसे बच गये तो उनके ऊपर वृक्ष और पत्थर डाल दिये गये । उनको पहाड़से गिराया गया, हाथीसे कुचलवाया गया, अस्त्र-शस्त्रोंसे काटनेकी चेष्टा की गयी, पर वे मरे नहीं । प्रह्लादजीने कभी यह नहीं कहा कि आप मेरेको मारते क्यों हो ? परन्तु भगवान्‌का भजन नहीं छोड़ा ।

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