।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं. २०७६ बुधवार
                    श्राद्धकी अमावस्या
               सुख कैसे मिले ?
        

जो मन-इन्द्रियोंको अनुकूल जान पड़ता है, वह सुख और जो प्रतिकूल प्रतीत होता है, वह दुःख है । यह है सुख-दुःखकी साधारण जनताद्वारा की हुई परिभाषा ।

हम सोचते हैं कि हमें रोटी, कपड़ा, मकान, सवारी, जमीन, खेत, न्याय विद्या और औषध आदि वस्तुएँ सस्ती तथा पुष्कलमात्रामें प्राप्त हो जायँ तो हम सुखी हो जायँगे । किन्तु विचारिये जिसके पास उक्त पदार्थ प्रचुरमात्रामें हैं, क्या वह वास्तवमें सुखी है ? कदापि नहीं, क्योंकि पदार्थोंके बढ़नेसे उनकी लालसा बढ़ती है और वस्तुओंकी लालसा ही सम्पूर्ण दुःखोंका कारण है । गीतामें अर्जुनने भगवान्‌से जब दुःखोंके कारणरूप पापोंका हेतु पूछा, तब भगवान्‌ने काम (लालसा)-को ही पापाचारका हेतु बतलाया । दुःखका साक्षात् कारण भी लालसा ही है । कैदमें, नरकादिमें या जहाँ-कहीं भी कोई दुःखी देखनेमें आते हैं, उन सबके दुःखोंका कारण पहले कभी लालसासे किये हुए पाप या वर्तमानमें पदार्थोंकी लालसा ही है । लालसा (चाह) करनेसे पदार्थ मिलते भी नहीं । संसारी लोग भी चाहनेवालेको नहीं देते, बल्कि जो नहीं लेना चाहता, उसे आग्रह और प्रसन्नतापूर्वक देना चाहते हैं । किसी व्यक्तिको यदि सम्पूर्ण संसारकी उपर्युक्त सभी मनचाही वस्तुएँ मिल जायँ तब भी उनसे तृप्ति नहीं हो सकती, प्रत्युत उसकी लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती ही जायगी ‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ।’ इस लालसाके अधिक बढ़नेका अर्थ यही है कि आपको अपनेमें कमीका अनुभव है और जबतक अपनेमें कमीका अनुभव होगा, तबतक सुख हो ही कैसे सकता है, प्रत्युत दुःख ही बढ़ेगा ।

गम्भीरतासे विचार कीजिये तो आपको मालूम हो जायगा कि पदार्थोंके मिलनेसे सुख नहीं होता, वरं पदार्थ मिलनेसे दुःखका कारणभूत इच्छा (चाह) और बढ़ती है । कहा भी है‒

यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।
नालमेकस्य  तृप्त्यर्थमिति  मत्वा  शमं व्रजेत् ॥
न  जातु  कामः कामानामुपभोगेन  शाम्यति ।
हविषा   कृष्णवर्त्मेव     भूय   एवाभिवर्धते ॥

‘पृथ्वीमें जितने भी धान्य-चावल, जौ, गेहूँ, सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब-के-सब मिलकर एक मनुष्यकी तृप्तिके लिये भी पर्याप्त नहीं हैं, ऐसा मानकर तृष्णाका शमन करे; क्योंकि भोग-पदार्थोंके उपभोगसे कामना कभी शान्त नहीं होती, बल्कि जैसे घीकी आहुति डालनेपर आग और भड़क उठती है, वैसे ही भोगावासना भी भोगोंके भोगनेसे प्रबल होती जाती है ।


सभी मनुष्य चाहते तो सुख ही हैं, परन्तु सुखकी सामग्री इन संसारकी वस्तुओंको ही समझते हैं, इसलिये इन्हींको प्राप्त करनेका प्रयत्न करते देखे जाते हैं । आज पृथ्वीपर ढाई अरब मनुष्य माने जाते हैं, उनमेंसे प्रत्येक व्यक्तिको संसारकी समस्त वस्तुएँ कैसे मिल सकती हैं ? क्योंकि वस्तुओंपर सभीका हक है, एवं वस्तुएँ सब मिलकर भी सीमित हैं और उनके चाहनेवाले हैं बहुत अधिक । जब एकको एक भी पूरी नहीं मिल सकती, तब प्रत्येकको सभी वस्तुएँ पूरी कैसे मिलें ? मान लीजिये, यदि सभीको मिल भी जायँ, तब भी इन वस्तुओंसे सुख होना सम्भव नहीं; क्योंकि चेतन जीवको केवल पूर्ण चिन्मयतासे ही शान्ति मिल सकती है, अपूर्ण और सीमित जड़ वस्तुओंसे नहीं । यदि इन नश्वर पदार्थोंके संयोगसे मूर्खतावश जो सुख प्रतीत होता है, उसे ही सुख मान लें , तो भी जड़ वस्तुएँ तो प्रतिक्षण परिवर्तनशील और नाशवान्‌ हैं तथा जीव नित्य और अविनाशी है । अतः इन दोनोंका नित्य संयोग कैसे रह सकता है ?

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं. २०७६ मंगलवार
                 चेतावनी
        

विचार करें कि धन आदि पदार्थोंमें जो सुख दिखलायी देता है एवं हम उनसे सुखकी आशा करते है, तो क्या उनमें पूरा सुख है ? क्या उनके सम्बन्धसे कभी दुःख होता ही नहीं ? क्या वे सदा साथ रहेंगे ? क्या उन पदार्थोंके रहते हुए दुःख होता ही नहीं ? ऐसा तो हो ही नहीं सकता; प्रत्युत उन पदार्थोंके सम्बन्धसे, उनको अपने माननेसे लोभ जैसा नरक-द्वाररूप भयंकर दोष उत्पन्न हो जाता है, जो जीते-जी आगकी तरह जलाता ही रहता है और मरनेपर सर्प आदि दुःखमयी योनियों तथा महान्‌ यन्त्रणामय नरकोंमें ले जाता है ।

विचार करें कि आप अपने कुटुम्बके लोगोंसे एवं अन्य प्राणियोंसे सुख चाहते हैं, तो क्या वे सभी सुखी हैं ? क्या कभी दुःखी नहीं होते ? क्या वे सभी सबके अनुकूल होते भी हैं ? क्या वे सभी आपके साथ रहते भी है ? क्या रहना चाहते भी हैं ? क्या वे सभी आपके साथ रह भी सकते हैं ? क्या पहलेवाले सभी साथी आपके साथ हैं ? क्या उनके मनोंमें और शरीरोंमें परिवर्तन नहीं होता ? क्या उनमेंसे किसीके मनमें किसी प्रकारकी कमीका बोध नहीं होता ? क्या वे सर्वदा सर्वथा पूर्ण हैं ? क्या वे कभी किसीसे कुछ भी नहीं चाहते हैं ? कम-से-कम आपसे तो कुछ नहीं चाहते होंगे ? सोचिये ! जो दूसरोंसे अपने लिये कुछ भी चाहता है, क्या वह दूसरोंकी चाह पूरी कर सकता है ? क्या स्वयं सुख चाहनेवाला औरोंको सुख दे सकता है ?

चेत करें । सबका हर समय वियोग हो रहा है । आयु पल-पलमें घट रही है । मृत्यु प्रतिक्षण समीप आ रही है । ये बातें क्या विचारसे नहीं दिखलायी देती हैं ? यदि कहे  कि ‘हाँ, दिखलायी देती हैं ।’ तो ठीक तरहसे क्यों नहीं देखते ? कब देखेंगे ? किसकी प्रतीक्षा करते हैं ? या इस मोहमें पड़े रहनेसे आपको अपना हित दिखलायी देता है ? यदि नहीं तो आपका हित कौन करेगा ? किसके भरोसे निश्चिन्त बैठे हैं ? ऐसे कबतक काम चलेगा ? कभी सोचा है ? नहीं तो कब सोचोगे ? आपका सच्‍चा साथी कौन है ? क्या यह शरीर; जिसे आप मेरा कहते-कहते ‘मैं’ भी कह देते हैं, आपकी इच्छाके अनुसार नीरोग रहेगा ? क्या जैसा चाहें, वैसा काम देगा ? क्या सदा साथ रहेगा, मरेगा नहीं ? इस ओर आपने अपनी विवेक-दृष्टीसे देखा भी है ? कब देखेंगे ? क्या इस विषयमें अपरिचित ही रहना है ? क्या यह बुद्धिमानी है ? क्या इसका परिणाम और कोई भोगेगा ?

चेत करें ! पहले आप जिन पदार्थों और कुटुम्बीयोंके साथ रहे हैं, वे सब आज हैं क्या ? एवं आज जो आपके साथ हैं, वे रहेंगे क्या ? वे सब-के-सब सदा साथ रह सकते हैं क्या ? थोडा ध्यान देकर विचार करें ।

यदि आप ठीक विचार करेंगे तो आपको ज्ञात हो जायगा कि सदा साथ रहनेवाले तो केवल एक वे परम कृपामय परमात्मा ही हैं । अतएव आपको उन्हींके चरणोंकी शरण लेनी चाहिये ।


शयनकालको भजन बनानेका साधन

         मैं भगवान्‌का हूँ, शरीर भी भगवान्‌का ही है । अतः नींद लेनेका लक्ष्य न रखकर भजन करनेका ही उद्देश्य रखना । इतनी देरतक चलते-फिरते, बैठकर भजन किया है, अब लेटकर भजन करना है । भगवान्‌की विस्मृति न हो जाय । ध्यान-सहित जप करते रहना है । जप करते-करते नींद आ जाय तो वह नींद भी भजन ही है ।

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नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘चेतावनी’ (पुरानी)पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण द्वादशी, वि.सं. २०७६ सोमवार
                  श्रावण सोमवार-व्रत 
 मनकी हलचलके नाशके सरल उपाय
        


मनकी हलचलका कारण क्या है ?

जब मनमें हलचल होने लगे तभी यह विचार करना चाहिये कि इसका कारण क्या है ? गहराईसे विचार करनेपर पता लगेगा कि अपनी मनचाहीका न होना और अनचाहीका हो जाना‒यही मनकी हलचलका कारण है ।

         भक्तियोगकी दृष्टिसे शरीर, प्राण, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि तथा मैंपन अपना नहीं है; अपितु सब कुछ भगवान्‌का है । इनको अपना और अपनेको भगवान्‌से अलग मानना, इस विपरीत मान्यतासे ही मनमें दुःख और हलचल होती है । हलचल होनेका और कोई कारण नहीं है । जो कुछ होता है वह हमारे परमसुहृद् प्रभुका मंगलमय विधान है, यह सोचकर प्रसन्न होना चाहिये; उलटे मनको मैला करना सर्वथा नासमझी ही है ।

ज्ञानयोगकी दृष्टिसे शरीर, प्राण, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि तथा मैंपन सब कुछ प्रकृतिका है । मैंका आधार परमात्मतत्त्व है, वह अपना स्वरूप ही है । प्रकृति ही प्रकृतिके गुणोंमें बर्त रही है (गीता १३/२९), स्वरूप तो अपने आपमें स्थित है ही । उसमें क्रिया करना-कराना सम्भव ही नहीं है । तब फिर हलचल कैसी ?

कर्मयोगकी दृष्टिसे शरीर, प्राण, मन और बुद्धि तथा मैंपन‒यह सब कुछ अपना नहीं, संसारका है और इनको संसारकी सेवामें ही लगाना है । अपने लिये इनकी आवश्यकता नहीं है । इनको अपना तथा अपने लिये माननेसे ही दुःख आता है और हलचल होती है । यह मान्यता‒यह भूल मिट गयी, फिर दुःख और हलचल कैसे रह सकती है ?

ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, पुरुषार्थवाद और प्रारब्धवाद इन सबका तात्पर्य मनकी चिन्ताको मिटानेमें ही है, कर्तव्यकर्मको छुड़ा देनेमें बिलकुल नहीं है ।

उपर्युक्त दृष्टियोंसे यह बात सिद्ध होती है कि शरीर आदिको चाहे तो भगवान्‌का, चाहे प्रकृतिका और चाहे संसारका मान लो । ‘ये अपने नहीं है’‒इस नित्य-सिद्ध बातको न मानकर अपना मानना भूल और बेसमझी है । यही दुःखोंका और हलचलका कारण है । भूल मिटनेके बाद हलचलके लिये किंचिन्मात्र भी स्थान नहीं है । फिर तो केवल आनन्द-ही-आनन्द है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒ ‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण एकादशी, वि.सं. २०७६ रविवार
            कामदा एकादशी-व्रत (सबका)
 मनकी हलचलके नाशके सरल उपाय
        


अन्तःकरणमें अधिक उथल-पुथल होनेपर
मनको समझानेके लिये (सिद्ध मन्त्र)

(क)       मना मनोरथ छोड़ दे
तेरा  किया  न  होय ।
पानी में घी नीपजे तो
रूखा खाय  न  कोय ॥

भजन

(ख)      जीव तू मत करना फिकरी,
जीव तू मत करना फिकरी ।
भाग लिखी सो हुई रहेगी,
भली बुरी सगरी ॥टेर॥
तप करके  हिरनाकुश  आयो,  वर  पायो  जबरी ।
लोह लकड़ से मर्‌यो नहीं, वो मर्‌यो मौत नखरी ॥१॥
     सहस्र  पुत्र  राजा  सगरके,   तप   कीनो  अकरी ।
थारी गति ने तू ही जाने, आग मिली  ना  लकरी ॥२॥
तीन लोक  की  माता  सीता,  रावण  जाय  हरी ।
जब  लक्ष्मणने  लंका  घेरी,  लंका  गइ बिखरी ॥३॥
आठ पहर साहेब को रटना,  ना करना जिकरी ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो रहना बे-फिकरी ॥४॥

चिन्ता छोड़ते हुए अपने कर्तव्यसे कभी च्युत न हों । श्रीभगवान्‌की आज्ञा है‒

कर्मण्येवाधिकारस्ते   मा  फलेषु कदाचन ।
 मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
                                           (गीता २/४७)

अर्थ‒तेरा कर्म करनेमात्रमें ही अधिकार है, फलमें कभी नहीं; और तू कर्मोंके फलकी वासनावाला भी मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी प्रीती न हो ।

इसलिये करनेमें सावधान रहे और जो हो जाय, उसमें प्रसन्न रहे एवं सदा भगवन्नाम जपता रहे ।

श्रीभगवन्नाम-माहात्मय

सम्पूर्ण पापोंके नाशके लिये भगवन्नाम खास औषधि है । चारों ही युग और चारों ही वेदोंमें नामकी महिमा है, परन्तु कलियुगमें विशेष है; क्योंकि कलियुगमें इसके समान कोई उत्तम उपाय नहीं है‒

चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ । कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ ॥
तुलसी हठि हठि कहत  नित,  चित सुनि हित करि मानि ।
  लाभ राम सुमिरन  बड़ो,  बड़ी बिसारे हानि ॥
 बिगरी  जन्म  अनेक  की  सुधरै  अबहीं आजु ।
   होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु ॥

जितनी ही प्रतिकूल परिस्थिति आती है, वह सब पूर्व-पापोंका नाश करनेके लिये तथा अपने कर्तव्यके विषयमें सचेत करनेके लिये आती है । उस समय वह विचार करे‒ ‘इससे मेरा अन्तःकरण पवित्र हो रहा है ।’ हृदयकी सारी हलचल मिटाने और अन्तःकरणको भगवन्मुखी बनानेके लिये जप और कीर्तन करना चाहिये एवं श्रीभगवान्‌को बारम्बार प्रणाम करना चाहिये । श्रीमद्भागवतके अन्तिम श्लोकमें कहा है‒

नामसंकीर्तनं    यस्य   सर्वपापप्रणाशनम् ।
 प्रणामो दुःखशमानास्तं नमामि हरिं परम् ॥


अर्थ‒जिनके नामोंका संकीर्तन सारे पापोंको सर्वथा नष्ट कर देता है और जिनको किया हुआ प्रणाम सारे दुःखोंको शान्त कर देता है, उन्ही परमेश्वर श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ ।

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