(गत ब्लॉगसे आगेका)
जो सुख लेता है, वह साधक नहीं होता,
प्रत्युत भोगी होता है । भोगीका पतन होता है । भोगी रोगी होता
है । भोगीमें जड़ता आती है । भोगी पराधीन होता है । अतः जो लेता है,
वह भोगी है और जो देता है,
वह योगी है ।
भगवान्से बढ़कर और कोई नहीं है;
क्योंकि वे देते-ही-देते हैं । इतना ही नहीं,
उन्होंने अपने-आपको सबको सर्वथा सर्वदा समानरूपसे दे रखा है‒‘सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः’ (गीता
१५ । १५) । उनमें कोई कमी
है नहीं, हुई नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं, पर भक्तकी प्रसन्नताके लिये वे लेते हैं । गोपियोंकी प्रसन्नताके
लिये ही वे उनका मक्खन लेते हैं । अतः साधकको केवल देने-ही-देनेका भाव रखना चाहिये कि सबको सुख कैसे
हो ? सबको आराम कैसे हो ? सबका भला कैसे हो ?
सबका कल्याण कैसे हो ?
सब सुखी कैसे हों ?
सबको प्रसन्नता कैसे हो ?
ऐसे भावोंसे दुनियामात्रकी सेवा होती है । यद्यपि भाव साधारण दीखता है और क्रिया बड़ी दीखती है, तथापि
वास्तवमें भाव बहुत श्रेष्ठ है और क्रिया बहुत छोटी है । लाखों-करोड़ों रुपये लगा दें तो भी वह सीमित ही होगा,
पर सेवाका भाव असीम होगा । असीमसे असीम (परमात्मा) की प्राप्ति
होती है । सीमितसे असीमकी प्राप्ति नहीं होती ।
कर्मयोगमें सेवा मुख्य है । कर्मयोगसे केवल मलदोष ही नहीं मिटता,
प्रत्युत मल, विक्षेप और आवरण‒सभी दोष सर्वथा मिट जाते हैं और तत्वज्ञान हो
जाता है । वही सेवा अगर भगवान्की पूजा समझकर की जाय तो भक्ति प्राप्त हो जाती है ।
यद्यपि ज्ञान और भक्तिमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है,
तथापि भक्तिमें प्रेमका एक विशेष रस,
विशेष आनन्द है । हाँ, ज्ञानमें भी विशेषताका अभाव नहीं है,
पर उसमें प्रेम छिपा हुआ है,
जबकि भक्तिमें प्रेम प्रकट है ।
लेनेसे वस्तुका नाश और अपना पतन होता है । भोगी मनुष्य भोजन लेता है तो भोजनका नाश और अपना पतन करता है
। अपनेको भोजनके अधीन स्वीकार किया, भोजनको अधिक महत्व देकर अपनी महत्ता कम कर ली‒यही अपना पतन है
। भोजनसे अपनी भूखका, खानेकी शक्तिका नाश होता है । भोजन कर नहीं सकते‒इस असामर्थ्यको
ही तृप्ति कह देते हैं ! इसी तरह कपड़ा लेनेवाला कपड़ेका नाश करता है,
मान-बड़ाई लेनेवाला मान-बड़ाईका नाश करतो है,
आदर लेनेवाला आदरका नाश करता है और अपना पतन करता है । परन्तु
देनेवाला दूसरेकी सेवा करता है, वस्तुको सार्थक करता है और अपना उत्थान करता है । देनेवाला मनुष्य
ऊँचा उठ ही जाता है, नीचा नहीं रहता । लेनेवाला नीचा रहता है । देनेवालेका हाथ ऊँचा
रहता है और लेनेवालेका हाथ नीचा रहता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे
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