।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
देनेके भावसे-कल्याण


(गत ब्लॉगसे आगेका)

जो सुख लेता है, वह साधक नहीं होता, प्रत्युत भोगी होता है । भोगीका पतन होता है । भोगी रोगी होता है । भोगीमें जड़ता आती है । भोगी पराधीन होता है । अतः जो लेता है, वह भोगी है और जो देता है, वह योगी है ।

भगवान्‌से बढ़कर और कोई नहीं है; क्योंकि वे देते-ही-देते हैं । इतना ही नहीं, उन्होंने अपने-आपको सबको सर्वथा सर्वदा समानरूपसे दे रखा है‒‘सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः’ (गीता १५ । १५) । उनमें कोई कमी है नहीं, हुई नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं, पर भक्तकी प्रसन्नताके लिये वे लेते हैं । गोपियोंकी प्रसन्नताके लिये ही वे उनका मक्खन लेते हैं । अतः साधकको केवल देने-ही-देनेका भाव रखना चाहिये कि सबको सुख कैसे हो ? सबको आराम कैसे हो ? सबका भला कैसे हो ? सबका कल्याण कैसे हो ? सब सुखी कैसे हों ? सबको प्रसन्नता कैसे हो ? ऐसे भावोंसे दुनियामात्रकी सेवा होती है । यद्यपि भाव साधारण दीखता है और क्रिया बड़ी दीखती है, तथापि वास्तवमें भाव बहुत श्रेष्ठ है और क्रिया बहुत छोटी है । लाखों-करोड़ों रुपये लगा दें तो भी वह सीमित ही होगा, पर सेवाका भाव असीम होगा । असीमसे असीम (परमात्मा) की प्राप्ति होती है । सीमितसे असीमकी प्राप्ति नहीं होती ।

कर्मयोगमें सेवा मुख्य है । कर्मयोगसे केवल मलदोष ही नहीं मिटता, प्रत्युत मल, विक्षेप और आवरण‒सभी दोष सर्वथा मिट जाते हैं और तत्वज्ञान हो जाता है । वही सेवा अगर भगवान्‌की पूजा समझकर की जाय तो भक्ति प्राप्त हो जाती है । यद्यपि ज्ञान और भक्तिमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है, तथापि भक्तिमें प्रेमका एक विशेष रस, विशेष आनन्द है । हाँ, ज्ञानमें भी विशेषताका अभाव नहीं है, पर उसमें प्रेम छिपा हुआ है, जबकि भक्तिमें प्रेम प्रकट है ।

लेनेसे वस्तुका नाश और अपना पतन होता है । भोगी मनुष्य भोजन लेता है तो भोजनका नाश और अपना पतन करता है । अपनेको भोजनके अधीन स्वीकार किया, भोजनको अधिक महत्व देकर अपनी महत्ता कम कर ली‒यही अपना पतन है । भोजनसे अपनी भूखका, खानेकी शक्तिका नाश होता है । भोजन कर नहीं सकते‒इस असामर्थ्यको ही तृप्ति कह देते हैं ! इसी तरह कपड़ा लेनेवाला कपड़ेका नाश करता है, मान-बड़ाई लेनेवाला मान-बड़ाईका नाश करतो है, आदर लेनेवाला आदरका नाश करता है और अपना पतन करता है । परन्तु देनेवाला दूसरेकी सेवा करता है, वस्तुको सार्थक करता है और अपना उत्थान करता है । देनेवाला मनुष्य ऊँचा उठ ही जाता है, नीचा नहीं रहता । लेनेवाला नीचा रहता है । देनेवालेका हाथ ऊँचा रहता है और लेनेवालेका हाथ नीचा रहता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७२, बुधवार
देनेके भावसे-कल्याण


श्रीमद्भगवद्गीतामें आया है‒

यतः   प्रवृत्तिर्भूतानां   येन   सर्वमिदं   ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
                                                      (१८ । ४६)

जिस परमात्मासे सम्पूर्ण प्राणियोंकी प्रवृत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्माका अपने कर्मके द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है ।’

परमात्मासे ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं और चेष्टा करते हैं । वे परमात्मा सब जगह परिपूर्ण हैं‒‘मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्तमूर्तिना’ (गीता ९ । ४) । यह सब संसार मेरे अव्यक्त स्वरूपसे व्याप्त है ।’ अतः साधक जो भी कर्म करे, उसमें वह ऐसा भाव रखे कि मैं उस परमात्माकी ही पूजा कर रहा हूँ । किसीके साथ बर्ताव करे तो वह परमात्माकी ही पूजा है । किसीसे बातचीत करे तो वह परमात्माका ही पूजन है । इस प्रकार पूजन करनेसे मनुष्यका कल्याण हो जाता है‒यह कितना सुगम, सरल साधन है !

एक ही परमात्मा अनेक रूपोंसे प्रकट हुए हैं । वे एक ही अनेक रूपोंमें हैं और अनेक रूपोंमें वे एक ही हैं । उन्हीं परमात्माका पूजन करना है और कुछ नहीं करना है । भाईलोग अपने कर्मोंसे भगवान्‌का पूजन करें, बहनें अपने कर्मोंसे । भाईलोग व्यापार करें, नौकरी करें तो केवल भगवान्‌की पूजा समझकर करें । बहनें रसोई बनायें, बालकोंका पालन करें, घरका काम-धंधा करें तो केवल भगवान्‌की पूजा समझकर करें । भगवान् ही अनेक रूपोंमें हमारे सामने प्रकट हुए हैं । उस साक्षात् भगवान्‌की सेवासे बढ़कर और क्या अहोभाग्य होगा !

कुछ लेनेकी इच्छा रखकर सेवा करना भगवान्‌का पूजन नहीं है । जिस वस्तुको लेनेकी इच्छा होती है, उसकी सत्ता और महत्ता अपनेमें आ जाती है । अतः लेनेकी इच्छासे अपनेमें जड़ता आती है और देनेकी इच्छासे जड़ता मिटकर चेतनता आती है । जब मनुष्य साधक बनता है, तब वह लेनेके लिये नहीं बनता, प्रत्युत केवल देनेके लिये ही बनता है । जो कभी स्वप्रमें भी किसीसे कुछ लेना नहीं चाहता, केवल देना-हीं-देना चाहता है, वही साधक होता है । लेना और देना‒ये दोनों जिसमें हों, वह चिज्जड़ग्रन्थी’ है, जो जन्म-मरणका कारण है । जो अपना उद्धार चाहता है, चिज्जड़ग्रन्थीसे छूटना चाहता है, उसको लेना बन्द करके देना शुरू कर देना चाहिये । कहीं लेना भी पड़े तो वह भी देनेके लिये, दूसरेकी प्रसन्नताके लिये लेना है, अपने लिये नहीं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
कामना और आवश्यकता


(गत ब्लॉगसे आगेका)

विचारके द्वारा यह अनुभव करें कि शरीर मेरा स्वरूप नहीं है । बचपनमें हमारा शरीर जैसा था, वैसा आज नहीं है और जैसा आज है, वैसा आगे नहीं रहेगा, पर हम स्वयं वही हैं, जो बचपनमें थे । तात्पर्य है कि शरीर तो बदल गया, पर हम नहीं बदले । अतः शरीर हमारा साथी नहीं है । हम निरन्तर रहते हैं, पर शरीर निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत निरन्तर मिटता रहता है । इस विवेकको महत्व देनेसे तत्त्वज्ञान हो जायगा अर्थात् हमारी आवश्यकताकी पूर्ति हो जायगी । इसका नाम ज्ञानयोग’ है ।

जब इच्छाओंको मिटानेमें अथवा आवश्यकताकी पूर्ति करनेमें अपनी शक्ति काम नहीं करती और साधकका यह विश्वास होता है कि केवल भगवान् ही अपने हैं और उनकी शक्तिसे ही मेरी आवश्यकताकी पूर्ति हो सकती है, तब वह व्याकुल होकर भगवान्‌को पुकारता है, प्रार्थना करता है । भगवान्‌को पुकारनेसे उसकी इच्छाएँ मिट जाती हैं । इसका नाम भक्तियोग’ है ।

संसारकी सत्ता मानकर उसको महत्ता देनेसे तथा उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही जो अप्राप्त है, वह संसार प्राप्त दीखने लग गया और जो प्राप्त है, वह परमात्मतत्व अप्राप्त दीखने लग गया । इसी कारण संसारकी भी इच्छा उत्पन्न हो गयी और परमात्माकी भी इच्छा (आवश्यकता) उत्पन्न हो गयी । अतः साधकको कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि किसी भी साधनसे संसारकी इच्छाको सर्वथा मिटाना है । संसारकी इच्छा सर्वथा मिटते ही संसारकी सत्ता, महत्ता तथा सम्बन्ध नहीं रहेगा और जिनके हम अंश हैं, उन नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जायगा । फिर कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहेगा अर्थात् मनुष्यजन्मकी पूर्णता हो जायगी ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७२, सोमवार
रंगपंचमी
कामना और आवश्यकता


(गत ब्लॉगसे आगेका)

हम नया-नया पकड़ते रहते हैं और भगवान् छुड़ाते रहते हैं ! यह भगवान्‌की अत्यन्त कृपालुता है ! वे हमारा क्रियात्मक आवाहन करते हैं कि तुम संसारमें न फँसकर मेरी तरफ चले आओ । अगर हम संसारको पकड़ना छोड़ दें तो महान् आनन्द मिल जायगा । जब कभी हमें शान्ति मिलेगी तो वह कामनाओंके त्यागसे ही मिलेगी‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२ । १२) ।

दूसरोंकी सेवा करनेसे बड़ी सुगमतासे इच्छाका त्याग होता है । गरीब, अपाहिज, बीमार, बालक, विधवा, गाय आदिकी सेवा करनेसे इच्छाएँ मिटती हैं । एक साधु कहते थे कि जब मेरा विवाह हुआ था, एक दिन मेरेको एक आम मिला । पर मैंने वह आम अपनी स्त्रीको दे दिया । इससे मेरे भीतर यह विचार उठा कि वह आम मैं खुद भी खा सकता था, पर मैंने खुद न खाकर स्त्रीको क्यों दिया ? इससे मेरेको यह शिक्षा मिली कि दूसरेको सुख पहुँचानेसे अपने सुखकी इच्छा मिटती है । इसका नाम कर्मयोग’ है । संसारकी इच्छा शरीरकी प्रधानतासे होती है । अतः विवेक-विचारपूर्वक शरीरके द्वारा दूसरोंकी सेवा करनेसे, दूसरोंको सुख पहुँचानेसे इच्छा सुगमतापूर्वक मिट जाती है । सृष्टिकी रचना ही इस ढंगसे हुई है कि एक-दूसरेको सुख पहुँचानेसे, सेवा करनेसे कल्याणकी प्राप्ति हो जाती है‒परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ’ (गीता ३ । ११) । शरीर संसारसे ही पैदा हुआ है, संसारसे ही पला है, संसारसे ही शिक्षित हुआ है, संसारमें ही रहता है और संसारमें ही लीन हो जाता है अर्थात् संसारके सिवाय शरीरकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । अतः संसारसे मिले हुएको ईमानदारीके साथ संसारकी सेवामें अर्पित कर दें । जो कुछ करें, संसारके हितके लिये ही करें । केवल संसारके हितका ही चिन्तन करें, हितका ही भाव रखें, साथमें अपने आराम, मान-बड़ाई, सुख-सुविधा आदिकी इच्छा न रखें तो परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी‒‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः’ (गीता १२ । ४) ।

दूसरोंको सुख पहुँचानेकी अपेक्षा भी किसीको दुःख न पहुँचाना बहुत ऊँची सेवा है । सुख पहुँचानेसे सीमित सेवा होती है, पर दुःख न पहुँचानेसे असीम सेवा होती है । भलाई करनेसे ऊपरसे भलाई होती है, पर बुराई न करनेसे भीतरसे भलाई अंकुरित होती है । बुराईका त्याग करनेके लिये तीन बातोंका पालन आवश्यक है‒(१) किसीको बुरा नहीं समझें (२) किसीका बुरा नहीं चाहें और (३) किसीका बुरा नहीं करें । इस प्रकार बुराईका सर्वथा त्याग करनेसे हमारी वास्तविक आवश्यकताकी पूर्ति हो जायगी और मनुष्यजीवन सफल हो जायगा ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७२, रविवार
कामना और आवश्यकता


(गत ब्लॉगसे आगेका)

भोग और संग्रहका, शरीरका त्याग तो अपने-आप हो रहा है । जैसे बालकपना चला गया, ऐसे ही जवानी भी चली जायगी, वृद्धावस्था भी चली जायगी, व्यक्ति भी चले जायँगे, पदार्थ भी चले जायेंगे । केवल उनकी इच्छाका त्याग करना है, उनको अस्वीकार करना है । परन्तु परमात्मा निरन्तर हमारे साथ रहते हैं । वे हमारी स्वीकृति-अस्वीकृतिपर निर्भर नहीं हैं । परमात्माको मानें तो भी वे हैं, न मानें तो भी वे हैं, स्वीकार करें तो भी वे हैं, अस्वीकार करें तो भी वे हैं । परन्तु संसार हमारी स्वीकृति-अस्वीकृतिपर निर्भर करता है । संसारको स्वीकार करें तो वह है, अस्वीकार करें तो वह नहीं है । अगर संसार मनुष्यकी स्वीकृति-अस्वीकृतिपर निर्भर नहीं होता तो फिर कोई भी मनुष्य संसारसे असंग नहीं हो सकता, साधु नहीं बन सकता । संसार निरन्तर अलग हो रहा है और परमात्मा कभी अलग नहीं होते । केवल संसारकी इच्छाका त्याग करना है और परमात्माकी आवश्यकताका अनुभव करना है । फिर संसारका त्याग और परमात्माकी प्राप्ति स्वतः-सिद्ध है ।

किसीकी भी ताकत नहीं है कि वह शरीर-संसारको अपने साथ रख सके अथवा खुद उनके साथ रह सके । न हम उनके साथ रह सकते हैं, न वे हमारे साथ रह सकते हैं क्योंकि वे हमारे नहीं हैं । संसारका कोई भी सुख सदा नहीं रहता; क्योंकि वह सुख हमारा नहीं है । उसकी इच्छाका त्याग करना ही पड़ेगा । संसारको सत्ता भी हमने ही दी है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) । वास्तवमें संसारकी सत्ता है नहीं‒नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) । संसार एक क्षण भी टिकता नहीं है । हमें वहम होता है कि हम जी रहे हैं, पर वास्तवमें हम मर रहे हैं । मान लें, हमारी कुल आयु अस्सी वर्षकी है और उसमेंसे बीस वर्ष बीत गये तो अब हमारी आयु अस्सी वर्षकी नहीं रही, प्रत्युत साठ वर्षकी रह गयी । हम सोचते हैं कि हम इतने वर्ष बड़े हो गये हैं पर वास्तवमें छोटे हो गये हैं । जितनी उम्र बीत रही है, उतनी ही मौत नजदीक आ रही है । जितने वर्ष बीत गये, उतने तो हम मर ही गये । अतः जो निरन्तर छूट रहा है, उसको ही छोड़ना है और जो निरन्तर विद्यमान है, उसको ही प्राप्त करना है ।

हमने जिद कर ली है कि हम संसारको पकड़ेंगे, छोड़ेंगे नहीं तो भगवान्‌ने भी जिद कर ली है कि मैं छुड़ा दूँगा, रहने दूँगा नहीं । हम बालकपना पकड़ते हैं तो भगवान् उसको नहीं रहने देते, हम जवानी पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम वृद्धावस्था पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम धनवत्ता पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम नीरोगता पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे

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