।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७४, सोमवार
निर्दोषताका अनुभव



(गत ब्लॉगसे आगेका)
         असत् पदार्थोंमें जो रुचि है, भोग और संग्रहमें जो अच्छापन दीखता है और उसको पानेकी जो इच्छा होती है–यही सम्पूर्ण दोषोंकी जड़ है । संयोगजन्य सुखकी इच्छा उसीमें पैदा होती है, जो दुःखी है । दुःखी आदमी ही सुखकी इच्छा करता है और सुख भी उसीको मिलता है, जो दुःखी होता है; जैसे-भोजनका सुख उसीको मिलता है, जो भूखा होता है । सुखके बाद दुःख आता है, यह नियम है–‘ये ही संस्पर्शजा भोग दुःखयोनय एव ते’ (गीता ५/२२) । इस प्रकार सुखके पहले भी दुःख है और सुखके बाद भी दुःख है–ऐसा समझनेसे सुखकी इच्छाका त्याग हो जाता है; क्योंकि दुःखको कोई नहीं चाहता । सुखकी इच्छाका त्याग होनेपर स्वतःसिद्ध निर्दोषताका अनुभव हो जाता है ।

        निर्दोषता कृतिसाध्य नहीं है । निर्दोषताको कृतिसाध्य माननेसे अभिमान आ जाता है, जो सम्पूर्ण दोषोंका आश्रय है । वास्तवमें निर्दोषता स्वतःसिद्ध,  स्वाभाविक और सहज है । इस निर्दोषताकी रक्षा करना साधकका काम है । निर्दोषताकी रक्षा करनेका तात्पर्य है–ऐसा मान लेनेके बाद फिर कभी दोष आता हुआ दीखे तो ‘हे नाथ ! हे नाथ !!’ कहकर भगवान्‌को पुकारना चाहिये । भगवान्‌ अपने शरणागत भक्तोंके योग और क्षेमका वहन करते हैं–‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (गीता ९/२२) अर्थात् निर्दोषताकी रक्षा करते हैं और आगन्तुक दोषको दूर करते हैं, फिर हम चिन्ता क्यों करें ? जिसकी कृपासे हमें अपनेमें निर्दोषताका ज्ञान हुआ है, वही उस निर्दोषताकी रक्षा करेगा–इस प्रकार भगवान्‌की कृपाको स्वीकार करनेसे दोषोंका आना-जाना भी रुक जायगा ।

निर्दोषताका अनुभव करनेके लिये जैसे भगवान्‌को पुकारना एक उपाय है, ऐसे ही अपनेमें निर्दोषताकी दृढ़ स्वीकृति भी एक उपाय है । ‘है’ रूपसे अपनी जो सत्ता है, वह सर्वथा निर्दोष है । सत्तामात्रमें कोई दोष, विकार सम्भव ही नहीं है । उस निर्दोषतामें सबकी स्थिति स्वतः है, स्वाभाविक है, सहज है, नित्य है और स्वयंसिद्ध है । अपनी इस निर्दोषताको दृढ़तासे स्वीकार करके बाहर-भीतरसे चुप हो जाय । चुप होनेसे अर्थात् निर्दोष सत्ताको ही महत्त्व देनेसे दोषोंके सर्वथा अभावका अनुभव स्वतः हो जाता है । यह अनुभव एक बार हो जानेपर फिर सदाके लिये वैसा ही रहता है; क्योंकि यह अभ्यास नहीं है, प्रत्युत वास्तविकताका अनुभव है ।

नारायण !    नारायण !!    नारायण !!!


–‘सहज साधना’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७४, रविवार
श्रीतुलसीदास-जयन्ती
निर्दोषताका अनुभव



(गत ब्लॉगसे आगेका)
         जो आदि और अन्तमें नहीं होता, वह मध्यमें भी नहीं होता, यह सिद्धान्त है–‘आदावन्तो च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा’ (माण्डूक्यकारिका ४/३१) । जैसे दर्पणमें मुख पहले भी नहीं था, पीछे भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें प्रत्यक्ष दीखनेपर भी वह वास्तवमें है नहीं । ऐसे ही अपनेमें दोष पहले भी नहीं था, पीछे भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें दीखते हुए भी वह अपनेमें नहीं है । जैसे दर्पणमें मुखकी प्रतीति है, ऐसे ही अपनेमें दोषोंकी प्रतीति है, वास्तवमें दोष है नहीं ।

         जैसे अपनेमें दोष नहीं है, ऐसे ही दूसरेमें भी दोष नहीं हैं । सबका स्वरूप स्वतः निर्दोष है । अतः कभी किसीको दोषी नहीं मानना चाहिये । ऐसा समझना चाहिये कि दूसरेने आगन्तुक दोषके वशीभूत होकर क्रिया कर दी, पर न तो वह क्रिया स्थायी रहेगी तथा न उसका फल स्थायी रहेगा । क्रिया और फल तो नहीं रहेंगे, पर स्वरूप रहेगा । अगर हम दूसरेमें दोष मानेंगे तो उसमें वे दोष आ जायँगे; क्योंकि उसमें दोष देखनेसे हमारा त्याग, तप, बल आदि भी उस दोषको पैदा करनेमें स्वाभाविक सहायक बन जायगा, जिससे वह व्यक्ति दोषी हो जायगा । अतः (सिद्धान्तकी दृष्टिसे) पुत्र, शिष्य आदिको स्वरुपसे निर्दोष मानकर और उनमें दिखनेवाले दोषको आगन्तुक मानकर ही उनको (व्यवहारकी दृष्टिसे) शिक्षा देना चाहिये । उनमें निर्दोषता मानकर ही उनके आगन्तुक दोषको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये ।

         अगर मन-बुद्धिमें कोई दोष पैदा हो जाय तो उसके वशमें नहीं होना चाहिये–‘तयोर्न वशमागच्छेत्’ (गीता ३/३४) अर्थात् उसके अनुसार कोई क्रिया नहीं करनी चाहिये । उसके वशीभूत होकर क्रिया करनेसे वह दोष दृढ़ हो जायगा । परन्तु उसके वशीभूत होकर क्रिया न करनेसे एक उत्साह पैदा होगा । जैसे, किसीने हमें कड़वी बात कह दी, पर हमें क्रोध नहीं आया तो हमारे भीतर एक उत्साह, प्रसन्नता होगी कि आज तो हम बच गये ! परन्तु इसमें अपना उद्योग न मानकर भगवान्‌की कृपा माननी चाहिये कि भगवान्‌की कृपासे आज हम बच गये, नहीं तो इसके वशीभूत हो जाते ! इस तरह साधकको कभी भी कोई दोष दीखे तो वह उसके वशीभूत न हो और उसको अपनेमें भी न माने ।

         मूल दोष है–मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग । हम असत्‌की सत्ता मान भी सकते हैं और नहीं भी मान सकते; छल, कपट, हिंसा आदि कर भी सकते हैं और नहीं भी कर सकते–यह मिली हुई स्वतन्त्रता है । जबसे हमने इस स्वतन्त्रताका दुरुपयोग किया, तभीसे जन्म-मरण आरम्भ हुआ । इसलिये साधकको चाहिये कि वह मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग न करे । दुरुपयोग न करनेसे निर्दोषता सुरक्षित रहेगी ।

जब मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके असत्‌का संग करता है, तब वह असत्‌के संगसे होनेवाले संयोगजन्य सुखमें आसक्त हो जाता है । संयोगजन्य सुखकी आसक्तिसे ही सम्पूर्ण दोष पैदा होते हैं ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)                  

–‘सहज साधना’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७४, शनिवार
निर्दोषताका अनुभव



भगवान्‌का साक्षात् अंश होनेसे जीवका भगवान्‌से साधर्म्य है । अतः जैसे भगवान्‌ निर्दोष हैं, ऐसे जीव भी स्वरूपसे सर्वथा निर्दोष है । यह निर्दोषता अपने उद्योगसे लायी हुई नहीं है, प्रत्युत स्वतःसिद्ध और सहज है–

ईस्वर अंस जिव अबिनाशी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
                                                (मानस ७/११७/१)

         मनुष्योंके भीतर यह बात बैठी हुई है कि हम दोषोंको दूर करेंगे, निर्दोष बनेंगे, तब भगवान्‌की प्राप्ति होगी । परन्तु सांसारिक वस्तुओंको प्राप्त करनेका जो तरीका है, वही तरीका परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका नहीं है । सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्ति तो अप्राप्तकी प्राप्ति है, पर परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नित्यप्राप्तकी प्राप्ति है । स्वरूप स्वतः स्वाभाविक निर्दोष तथा नित्यप्राप्त है । अतः इस निर्दोषताको स्वीकार करना है, इसको बनाना नहीं है और दोषोंसे उपरत होना है, उसको मिटाना नहीं है । तात्पर्य है कि अपनेमें निर्दोषता तो वास्तवमें है और सदोषता मानी हुई है, है नहीं । अतः इस मान्यताका त्याग करना है । अगर दोषोंको अपनेमें स्वीकार करके फिर उनको दूर करनेका प्रयत्न करेंगे तो वे दूर नहीं होंगे, प्रत्युत दृढ़ हो जायँगे । कारण कि  दोषोंको अपनेमें मानकर उनको सत्ता देंगे, तभी तो उनको मिटानेका उद्योग करेंगे !

         यह प्रत्येक साधकका अनुभव है कि साधन करनेसे पहले दोष जितने वेगसे आता था, उतने वेगसे अब नहीं आता; जितनी देर ठहरता था, उतनी देर अब नहीं ठहरता; और जितनी जल्दी आता था, उतनी जल्दी अब नहीं आता । ऐसा फर्क अपनेमें देखकर साधकका उत्साह बढ़ना चाहिये कि वास्तवमें दोष अपनेमें नहीं है । अगर ये अपनेमें होते तो ऐसा फर्क देखनेमें नहीं आता । तात्पर्य है कि दोषोंमें तो फर्क पडा, पर अपनेमें कोई फर्क नहीं पडा; अतः दोष अपनेसे अलग हैं ।

         काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि जितने भी दोष हैं, सब असत् हैं और असत्‌के सम्बन्धसे पैदा हुए हैं । जैसे नींदके सम्बन्धसे जाग्रतकी विस्मृति हो जाती है और स्वप्न दीखने लगता है, ऐसे ही असत्‌के सम्बन्धसे स्वतःसिद्ध निर्दोषताकी विस्मृति हो जाती है और दोष दीखने लगते हैं । दोष स्वप्नकी सृष्टिके समान दीखते तो हैं, पर वास्तवमें इनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है ।

         दोष आगन्तुक हैं, पर निर्दोष स्वरूप आगन्तुक नहीं है । यह सबका अनुभव है कि दोषोंके आनेपर भी हम रहते हैं और दोषोंके चले जानेपर भी हम रहते हैं । दोष आते-जाते हैं, पर हम आते-जाते नहीं, प्रत्युत ज्यों-के-त्यों रहते हैं । हमें दोषोंके आने-जानेका भान होता है तो इससे अपनेमें स्थायीरूपसे निर्दोषता सिद्ध होती है । कारण कि निर्दोष हुए बिना दोषोंका भान नहीं होता । हम निर्दोष हैं, तभी दोषोंका भान होता है और जिसका भान होता है, वह अपनेसे दूर होता है । कैसा ही दोष क्यों न हो, वह मन-बुद्धिके साथ तादात्म्य होनेसे दोष अपनेमें दीखने लगता है । प्रकृतिका कार्य होनेसे मन-बुद्धि भी दोषी और अनित्य हैं । हमारा सम्बन्ध न मन-बुद्धिके साथ है और न उनमें आनेवाले दोषोंके साथ ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)                 

–‘सहज साधना’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७४, शुक्रवार
मृत्युके भयसे कैसे बचें ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)
         अगर भीतरमें कोई इच्छा न हो तो सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्तिसे सुख नहीं होता और अप्राप्ति तथा विनाशसे दुःख नहीं होता । इच्छा होनेसे ही सुख और दुःख–दोनों होते हैं । सुख और दुःख द्वन्द्व हैं, जिनसे मनुष्य संसारमें बँध जाता है । वास्तवमें सुख और दुःख–दोनों एक ही हैं । सुख भी वास्तवमें दुःखका ही नाम है; क्योंकि सुख-दुःखका कारण है–‘ये हि संस्पर्शजा भोग दुःखयोनय एव ते’ (गीता ५/२२) । अगर मनुष्यमें कोई इच्छा न हो तो वह सुख और दुःख–दोनोंसे ऊँचा उठ जाता है और आनन्दको प्राप्त कर लेता है । जैसे सूर्यमें न दिन है, न रात है, प्रत्युत नित्यप्रकाश है, ऐसे ही आनन्दमें न सुख है, न दुःख है, प्रत्युत नित्य आनन्द है । उस आनन्दका एक बार अनुभव होनेपर फिर उसका कभी अभाव नहीं होता; क्योंकि वह स्वतःसिद्ध नित्य और निर्विकार है ।

अगर सब इच्छाओंकी पूर्ति सम्भव होती तो हम जीनेकी इच्छा पूरी करनेका उद्योग करते और अगर मृत्युसे बचना सम्भव होता तो हम मृत्युसे बचनेका प्रयत्न करते । परन्तु यह सबका अनुभव है कि सब इच्छाएँ कभी किसीकी पूरी नहीं होतीं और उत्पन्न होनेवाला कोई भी प्राणी मृत्युसे बच नहीं सकता, फिर जीनेकी इच्छा और मृत्युसे भय करनेसे क्या लाभ ? जीनेकी इच्छा करनेसे बार-बार जन्म और मृत्यु होती रहेगी तथा जीनेकी इच्छा भी बनी रहेगी ! इसलिये जीते-जी अमर होनेके लिये इच्छाका त्याग करना आवश्यक है ।

शरीर ‘मैं’ नहीं है; क्योंकि शरीर प्रतिक्षण बदलता है, पर हम (स्वयं) वही रहते हैं । अगर हम वही न रहते तो शरीरके बदलनेका ज्ञान किसको होता ? बदलनेवालेका ज्ञान न बदलनेवालेको ही होता है । शरीर ‘मेरा’ भी नहीं है; क्योंकि इसपर हमारा आधिपत्य नहीं चलता अर्थात् इसको हम अपनी इच्छाके अनुसार रख नहीं सकते, इसमें इच्छानुसार परिवर्तन नहीं कर सकते और इसको सदा साथ नहीं रख सकते । इस प्रकार जब हम शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ नहीं मानेंगे, तब उसके जीनेकी इच्छा भी नहीं रहेगी । जीनेकी इच्छा न रहनेसे शरीर छुटनेसे पहले ही नित्यसिद्ध अमरताका अनुभव हो जायगा ।

सत्‌का भाव (सत्ता) नहीं है और सत्‌का अभाव नहीं है–‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । सत् सत् ही है और असत् असत् ही है । अतः न सत्‌का भय है, न असत्‌का भय है । अगर भय रखें तो भी शरीर मरेगा और भय न रखें तो भी शरीर मरेगा । मरेगा वही, जो मरनेवाला है; फिर नयी हानि क्या हुई ? अतः मृत्युसे भयभीत होना व्यर्थ ही है ।

नारायण !    नारायण !!    नारायण !!!


–‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७४, गुरुवार
नागपंचमी
मृत्युके भयसे कैसे बचें ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)
         शरीरमें जितना अधिक मैंपन और मेरापन होता है, मृत्युके समय उतना ही अधिक कष्ट होता है । संसारमें बहुत-से आदमी मरते रहते है, पर उनके मरनेका दुःख, कष्ट हमें नहीं होता; क्योंकि उनमें हमारा मैंपन भी नहीं है और मेरापन भी नहीं है ।

         मृत्युके समय एक पीड़ा होती है और एक दुःख होता है । पीड़ा शरीरमें और दुःख मनमें होता है । जिस मनुष्यमें वैराग्य होता है, उसको पीड़ाका अनुभव तो होता है, पर दुःख नहीं होता । हाँ, देहमें आसक्त मनुष्यको जैसी भयंकर पीड़ाका अनुभव होता है, वैसा अनुभव वैराग्यवान् मनुष्यको नहीं होता । परन्तु जिसको बोध और प्रेमकी प्राप्ति हो गयी है, उस तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त तथा भगवत्प्रेमी महापुरुषको पीड़ाका भी अनुभव नहीं होता । जैसे भगवान्‌के चरणोमें प्रेम होनेसे बालिको मृत्युके समय किसी पीड़ा या कष्टका अनुभव नहीं हुआ । जैसे हाथीके गलेमें पड़ी हुई माला टूटकर गिर जाय तो हाथीको उसका पता नहीं लगता, ऐसे ही बालिको शरीर छूटनेका पता नहीं लगा–

राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग ।
सुमन माल जिमि कंठ  ते   गिरत न जानइ नाग ॥
                                                     (मानस ४/१०)

         बोध होनेपर मनुष्यको सच्चिदानन्दरूप  तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है, जिस तत्त्वमें कभी परिवर्तन हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं । प्रेमकी प्राप्ति होनेपर मनुष्यको एक विलक्षण रसका अनुभव होता है; क्योंकि प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है ।

         बोध और प्रेमकी प्राप्ति होनेपर मृत्युमें भी आनन्दका अनुभव होता है । कारण कि मृत्युके समय तत्त्वज्ञ पुरुष एक शरीरमें आबद्ध न रहकर सर्वव्यापी हो जाता है और भगवत्प्रेमी पुरुष भगवान्‌के लोकमें, भगवान्‌की सेवामें पहुँच जाता है ।

जिनका शरीरमें मैं-मेरापन नहीं मिटा है, उनको भी मृत्युमें, कष्टमें सुखका अनुभव हो सकता है; जैसे–शूरवीर सैनिकमें वीररसका स्थायीभाव ‘उत्साह’ रहनेके कारण शरीरमें पीड़ा होनेपर भी उसको दुःख नहीं होता, प्रत्युत अपने कर्तव्यका पालन करनेमें एक सुख होता है । उसमें इतना उत्साह रहता है कि सिर कट जानेपर भी वह शत्रुओंसे लड़ता रहता है । खुदीराम बोसको जब फाँसीका हुक्म हुआ था, तब अपने उद्देश्यकी सिद्धिसे हुई प्रसन्नताके कारण उसके शरीरका वजन बढ़ गया था । स्त्रीको प्रसवके समय बड़ा कष्ट होता है । परन्तु पुत्र-मोहके कारण उसको दुःख नहीं होता, प्रत्युत एक सुख होता है, जिसके आगे प्रसवकी पीड़ा भी नगण्य हो जाती है । लोभी आदमीको रुपये खर्च करते समय बड़े कष्टका अनुभव होता है ! परन्तु जिस काममें अधिक लाभ होनेकी सम्भावना रहती है; उसमें वह अपने पासके रुपये भी लगा देता है और जरूरत पड़नेपर कड़े ब्याजपर लिये गये रुपये भी लगा देता है । लाभकी आशासे रुपये लगानेमें भी उसको दुःख नहीं होता । तपस्वीलोग गर्मियोंमें पञ्चाग्नि तपते हैं तो शरीरको कष्ट होनेपर भी उनको दुःख नहीं होता, प्रत्युत तपस्याका उद्देश्य होनेसे प्रसन्नता होती है । विरक्त पुरुषके पास स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि कुछ नहीं होनेपर भी उनका अभावरूपसे अनुभव नहीं होता । अतः उसको दुःख नहीं होता, प्रत्युत सुखका अनुभव होता है । इतना ही नहीं, बड़े-बड़े धनी, राजा-महाराजा भी उसके पास जाकर सुख-शान्तिका अनुभव करते हैं । इस प्रकार जब शरीरमें मैं-मेरापन मिटनेसे पूर्व भी मृत्युमें, कष्टमें सुखका अनुभव हो सकता है, तो फिर जिनका शरीरमें मैं-मेरापन सर्वथा मिट गया है, उनको मृत्युमें दुःख होगा ही कैसे ? निर्मम-निरहंकार होनेपर दुःखका भोक्ता ही कोई नहीं रहता, फिर दुःख भोगेगा ही कौन ?

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)                   

–‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे

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