।। श्रीहरिः ।।


सत्संग की आवश्यकता-१


एक सत्संगी भाईने एक व्यक्तिसे सत्संगमें चलनेको कहा तो वह व्यक्ति बोला- ‘मैं पाप नहीं करता, अत: मुझे सत्संगमें जानेकी आवश्यकता नहीं सत्संगमें वे जाते हैं, जो पापी होते हैं । वे सत्संगमें जाकर अपने पाप दूर करते हैं । जिस प्रकार अस्पतालमें रोगी जाते हैं और अपना रोग दूर करते हैं । निरोग व्यक्तिको अस्पतालमें जानेकी क्या आवश्यकता ? जब हम पाप नहीं करते तो हम सत्संगमें क्यों जायें ? ऊपरसे देखने पर यह बात ठीक भी दीखती है।

अब इस बातको ध्यान देकर समझें । श्रीमद्भागवतमें एक श्लोक आता है—

निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद् भवौषधाच्छ्रोत्रमनोऽभिरामात्।


क उत्तमश्लोकगुणांनुवादात् पुमान् विरज्येत विना पशुघ्रात्।।
(श्रीमद्भा.१०/१/४)

‘जिनकी तृष्णाकी प्यास सर्वदाके लिये बुझ चुकी है, वे जीवन्मुक्त महापुरुष जिसका पूर्ण प्रेमसे अतृप्त रहकर गान किया करते हैं, मुमुक्षुजनोंके लिये जो भवरोगका रामबाण औषध है तथा विषयी लोगोंके लिये भी उनके कान और मनको परम आह्लाद देनेवाला है, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसे सुन्दर, सुखद, रसीले, गुणानुवादसे पशुघाती अथवा आत्मघाती मनुष्यके अतिरिक्त और कौन ऐसा है जो विमुख हो जाय, उससे प्रीति न करे ?’

मनुष्य तीन प्रकार को होते हैं—एक जीवन्मुक्त, दूसरे साधक तथा तीसरे साधारण संसारी (विषयी) व्यक्ति ।

जिनके कोई तृष्णा नहीं रही, कामना नहीं रही, जो पूर्ण पुरुष हैं, जो ‘आत्माराम’ हैं, जिनके ग्रन्थि-भेदन हो गया है, जो शास्त्र-मर्यादासे ऊपर उठ गये हैं—ऐसे जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुष भी भगवान् की भक्ति करते हैं, भजन करते हैं और भगवान् के गुण सुनते हैं—


‘जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान ।’
(मानस, उत्तर. ४२)


‘जो निरन्तर भगवान् का ध्यान करते हैं, वे भी ध्यान छोड़कर भगवान् के चरित्र सुनते हैं ।’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन सुधा सिन्धु’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।
परमात्मप्राप्तिमें देरी क्यों?-२

(गत् ब्लोगसे आगेका)
अगर परमात्माकी प्राप्ति करना चाहते हो तो अपनेको स्त्री या पुरुष न मनाकर अपना सम्बन्ध परमात्मके साथ जोड़ो । शरीर तो मिला है और बिछुड जायगा । इस शरीरमें ही आप अटक जाओगे तो फिर परमात्माकी प्राप्ति कैसे होगी ? परमात्माकी प्राप्ति तब होगी, जब परमात्माके साथ सम्बन्ध जोड़ोगे । कोई कपूत हो या सपूत हो, पूत तो वह है ही । कपूत भी बेटा है, सपूत भी बेटा है । अतः हम कैसे ही हों, अच्छे हों या मंदे हों, परमात्माके ही है । परमात्माकी प्राप्ति न स्त्रीको होती है, न पुरुषको होती है । विवाह करना हो तो अपनेको स्त्री-पुरुष मानो । स्त्रीको पुरुष मिलेगा, परमात्मा कैसे मिलेंगे ? पुरुषको स्त्री मिलेगी, परमात्मा कैसे मिलेंगे ? परमात्मा तो साधकको मिलेंगे । साधक स्वयं होता है, शरीर नहीं होता । मुक्ति भी स्वयंकी होती है, शरीरकी नहीं होती । अतः हम न स्त्री हैं, न पुरुष हैं, प्रत्युत हम परमात्माके हैं । परमात्मा हमारे हैं । हम और किसीके नहीं हैं । और कोई हमारा नहीं है । जिसको प्राप्त करना हो, उसके साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध जोड़ो । परमात्माकी प्राप्तिमें स्त्रीपना और पुरुषपना—दोनों ही बाधक हैं । अपनेको स्त्री या पुरुष माननेवाला तो शरीरमें ही बैठा है, फिर उसको परमात्मा कैसे मिलेंगे ? मैं भगवान् का हूँ, भगवान् मेरे हैं—यह मान लो तो बड़ा भारी काम हो गया ! यह मामूली साधन नहीं हुआ है । भगवान् की और आपकी जाति एक हो गयी, जो कि वास्तवमें है ।

जाति, कुल, विद्या, सम्प्रदाय आदिका अभिमान परमात्माकी प्राप्तिमें बाधक है । भगवान् जिस जातिके हैं, उसी जातिके हम हैं । भगवान् के साथ हमारा असली सम्बन्ध है, बाकी सब सम्बन्ध नकली हैं । हम भगवान् के अंश हैं—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७) । हम संसारके अंश नहीं हैं । हम साक्षात् भगवान् के बेटा-बेटी हैं । सांसारिक स्त्री-पुरुष तो हम बादमें बने हैं—‘सो मायाबस भयउ गोसाई’ (मानस, उत्तर.११७/२)

यहाँ शंका हो सकती है कि ‘मैं भगवान् की बेटी हूँ’—ऐसा माननेसे अपनेमें स्त्रीभाव रह जायगा ! वास्तवमें ऐसी बात नहीं है । अगर भगवान् के साथ सम्बन्ध माननेसे स्त्रीभाव रह भी जाय तो वह मिट जायगा । भगवान् का सम्बन्ध ऐसा विलक्षण है कि सभी सम्बन्धोंको काट देता है । कारण कि सब सम्बन्ध झूठे हैं, पर भगवान् का सम्बन्ध सच्चा है । भगवान् ने कहा है कि जीव केवल मेरा ही अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ । सच्ची बातके आगे झूठी बात कैसे टिकेगी ? परन्तु आप ‘मैं स्त्री हूँ या मैं पुरुष हूँ’— इस बातको ही महत्त्व देते रहोगे तो यह कैसे मिटेगा ? ‘जदपि मृषा छूटत कठिनई’ । इसलिए एक भगवान् के सिवाय दूसरेका सर्वथा निषेध कर दो—‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरों न कोई’ । भगवान् मिलें चाहे उम्रभर न मिलें, दर्शन दें चाहे न दें, पर हम तो भगवान् के ही हैं । भरतजी कहते हैं—

जानहुँ रामु कुटिल करि मोही । लोग कहउ गुर साहिब द्रोही ॥
सीता राम चरन रति मोरें । अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें ॥
(मानस, अयोध्या. २०५/१)

हम जैसे हैं, भगवान् के हैं । अच्छे हैं तो भगवान् के हैं, बुरे हैं तो भगवान् के हैं । जैसे विवाहित स्त्री भीतरसे अपनेको कुँआरी नहीं मान सकती, इसी तरह भक्त भगवान् के सिवाय दुसरेको अपना मान सकता ही नहीं । झूठी बात कैसे माने ? भगवान् को हरेक आदमी अपना मान सकता है । पापी-से पापी, दुष्ट-से–दुष्ट आदमी भी भगवान् को अपना मान सकता है । कारण कि यह मान्यता सच्ची है, दूसरी सब मान्यताएँ झूठी हैं । आपको हजारों आदमी कह दें कि तुम भगवान् के नहीं हो तो उनसे यही कहें कि आपको पता नहीं है । भगवान् भी कह दे कि तुम हमारे नहीं हो तो उनसे कहें कि आपको भूल हो सकती है, पर मेरेको भूल नहीं हो सकती ! इतना पक्का विचार होना चाहिये !
अस अभिमान जाइ जनि भोरे । मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥
(मानस, अरण्यकाण्ड ११/११)

इस तरह दृढतासे भगवान् में अपनापन हो जाय तो फिर परमात्मप्राप्तिमें देरी नहीं लगेगी ।
—‘सब साधनोंका सार’ पुस्तकसे
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sab%20sadano%20ka%20sar/ch5_33.htm
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।। श्रीहरिः ।।
परमात्मप्राप्तिमें देरी क्यों?


परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य लेकर चलनेवाले जितने भी मनुष्य हैं, उन सबको परमात्मप्राप्ति होगी, पर कब होगी ? कितने जन्मोंके बाद होगी ? इसका पता नहीं है । शरीरको अपना और अपने लिए मानते हुए कोई साधन करेगा तो उसको कितने जन्म लेने पड़ेंगे, कितनी योनियाँ भोगनी पड़ेंगी, इसका कुछ पता नहीं है । इसलिए मेरी शुरूसे यही लगन रही है कि मनुष्यको जल्दी परमात्मप्राप्ति कैसे हो ?

यद्यपि किया हुआ साधन निरर्थक नहीं जाता, तथापि परमात्माकी प्राप्ति जल्दी कैसे हो, यह लगन होनी चाहिये । लगन नहीं होगी तो कई जन्म लग जायँगे । जो वस्तु कल मिलेगी, वह आज मिलनी चाहिये, आज भी अभी मिलनी चाहिये । परमात्मा भी मौजूद हैं, फिर देरी किस बातकी ? परमात्मप्राप्तिमें देरीकी बात मेरेको सुहाती नहीं । जो काम जल्दी हो सके, उसके लिए देरी क्यों ? जो काम अभी हो सके, उसके लिए कल क्यों ?

श्रीशरणानन्दजी महाराजने लिखा है कि जीव-ब्रह्मकी एकता कभी हुई नहीं, कभी हो सकती नहीं । इसका तात्पर्य है कि जीवपना छूटनेपर ब्रह्मकी प्राप्ति होती है । यह सूक्ष्म विवेचन है । इसी तरह कहा जाता है कि साधुको परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती, गृहस्थको परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती, ब्राह्मणको परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती तो इसका तात्पर्य है कि साधुपनेका अभिमान रहते हुए परमात्मप्राप्ति नहीं होती । ब्राह्मणपनेका अभिमान रखते हुए परमात्मप्राप्ति नहीं होती । अभिमान छूटेगा, तब प्राप्ति होगी । इन सब बातोंको कहनेका तात्पर्य यही है कि परमात्मप्राप्तिमें देरी मत करो । आपके कैसे ही पाप-ताप हों, आप कितने ही दुर्गुणी-दुराचारी हों, पर आपकी लगन लग जाय तो आज परमात्मप्राप्ति हो सकती है ।

साध्यकी प्राप्ति साधकको ही हो सकती है, ब्राह्मण, साधु आदिकी कैसे होगी ? ब्राह्मणको ब्राह्मण-कन्या विवाहके लिए मिल सकती है, पर परमात्मा कैसे मिलेंगे ? साधुको भिक्षा मिल सकती है, पर परमात्मा कैसे मिलेंगे ? शरीरधारीको परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती । साधक शरीरधारी नहीं होता । अपनेको पुरुष या स्त्री मानेंगे तो परमात्मप्राप्ति कैसे होगी ? मैं स्त्री या पुरुष हूँ ही नहीं, मैं तो भगवान् का हूँ—ऐसा भाव होगा तो बहुत जल्दी कल्याण हो जायगा । अपनेको स्त्री या पुरुष मानना तो सांसारिक व्यवहार (मर्यादा)-के लिए है । परन्तु पारमार्थिक मार्गमें अपनेको स्त्री या पुरुष मानेंगे तो बहुत देरी लगेगी । चिन्मयकी प्राप्ति चिन्मयको ही होगी, जडको कैसे हो जायगी ?

समताकी प्राप्तिको बहुत ऊँचा बताया है । सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाने लिखा है कि गीताके अनुसार अगर समता आ गयी तो दूसरे लक्षण भले ही न आयें,परमात्मप्राप्ति हो जायगी और समता नहीं आयी तो भले ही दूसरे बड़े-बड़े लक्षण आ जायँ, परमात्मप्राप्ति नहीं होगी । वह समता ममताका त्याग करते ही आ जाती है !
तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार ।
(दोहावली ९४)


श्रीशरणानन्दजी महाराजने साफ लिखा है कि ममताको छोडते ही समता आ जायगी । दूसरी बात उन्होंने लिखी है कि अपने लिए तप करना भी भोग है और परमात्माके लिए झाड़ू लगाना भी पूजा है ! हिरण्यकशिपूने कितनी कठोर तपस्या की ! ब्रह्माजीने यह कह दिया कि ऐसी तपस्या आजतक किसीने नहीं की । परन्तु उसको तपस्यासे क्या परमात्मप्राप्ति हो गयी ? उसका परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य ही नहीं था । इन बातोंका तात्पर्य परमात्मप्राप्ति जल्दी करनेमें है ।

—‘सब साधनोंका सार’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।
सच्ची आस्तिकता-२



( गत् ब्लॉगसे आगेका )
भगवान् ने कहा है—‘ममैवांशो जीवलोके’ ( गीता १५/७ ) । भगवान् का अंश होनेके कारण जीवका सम्बन्ध केवल भगवान् के साथ है, प्रकृतिके साथ बिलकुल नहीं है । इसलिए जड-चेतनका ठीक-ठीक विवेक करना साधकके लिए बहुत आवश्यक है । साधकको यह जानना चहिये कि हमारा विभाग ही अलग है । हम चेतन विभागमें हैं । जड विभागसे हमारा किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है । सम्पूर्ण पदार्थ और क्रियाएँ जड-विभागमें हैं । चेतन-विभागमें न पदार्थ है, न क्रिया है । वास्तवमें पदार्थ और क्रियाकी सत्ता ही नहीं है । इसलिए साधकको पदार्थ और क्रियासे रहित होना नहीं है, प्रत्युत वह स्वतः इनसे रहित है । साधक अव्यक्त ( निराकार ) और अक्रियरूप है । मात्र ‘करना’ प्रकृतिका और ‘न करना’ स्वयंका होता है । परमात्मतत्व ज्यों-का-त्यों विद्यमान है, उसके लिए कुछ न करनेकी जरुरत है । करनेका आश्रय प्रकृतिका आश्रय है । वह छोड़ दिया तो तत्व ज्यों-का-त्यों रहा । तत्वमें न पदार्थ है, न क्रिया है, प्रत्युत केवल विश्राम है ।

भगवान् ने जीवात्माके लिए कहा है—‘नित्यः सर्वगतः’ ( गीता २/२४ ), ‘येन सर्वमिदं ततं’ ( गीता २/१७ ) अर्थात् इस जीवात्मासे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, यह नित्य रहनेवाला और सबमें परिपूर्ण है । इसलिए साधकको चाहिये कि वह शरीर-अंतःकरणको न देखकर अपनी सर्वव्यापी सामान्य सत्तामें स्थित हो जाय । जो सब जगह व्याप्त है, वही साधकका स्वरुप है । उसका स्वरुप शरीर-अंतःकरणमें नहीं है । साधकमें ‘मैं हूँ’ की मुख्यता न होकर ‘है’ की मुख्यता रहे । जो ‘है’, वही वास्तवमें अपना है ।

गीतामें भगवान् ने कहा है—‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति’ ( ७/७ ) और सन्त-महत्मओंका भी अनुभव है—‘वासुदेवः सर्वम्’ ( ७/१९ ) । भगवान् और उनके भक्त—ये दो ही संसारका अकारण हित करनेवाले है* । इसलिए इन दोनोंकी बात मान लेनी चहिये । उनकी बातके आगे हमारी बातका कोई मूल्य नहीं है । हमें भले ही वैसा न दिखे, पर बात उनकी ही सच्ची है । इसलिए हमें जगत् को जगत्-रूपसे न देखकर भगवत्-रूपसे ही देखना चाहिये । संसारमें जो सात्विक, राजस और तामस भाव ( गुण, पदार्थ और क्रिया ) देखनेमें आते हैं, वे भी भगवान् के ही स्वरुप हैं । भगवान् के स्वरुप होते हुए भी वे गुण हमारे उपास्य नहीं हैं । हमारा उपास्य गुणातीत है । इसलिए भगवान् ने कहा है—‘न त्वहं तेषु ते मयि’ ( गीता ७/१२ ) ‘मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं’ । गुण उपास्य इसलिए नहीं हैं कि हमें तीनों गुणोंसे ऊँचा उठना है । कारण कि जो मनुष्य तीनों गुणोंसे मोहित होता है, वह गुणातीत भगवान् को नहीं जानता+। जो गुणोंसे मोहित नहीं होते, उनको सब जगह भगवान् ही दिखते हैं, पर गुणोंसे मोहित मनुष्यको संसार ही दीखता है, भगवान् नहीं दीखते ।

यहाँ शंका हो सकती है कि भगवान् में राजस-तामस भाव कैसे होते हैं ? इसका समाधान है कि जैसे घर एक ही होता है, पर उसमें रसोई भी होती है और शौचालय भी अथवा एक ही शरीरमें उत्तमांग भी होते है और अधमांग भी, ऐसे ही एक भगवान् में सात्विक भाव भी हैं और राजस-तामस भाव भी ।

संसारको मिथ्या मानकर केवल भगवान् को सत्य मानना भी एक पद्धति ( साधना-मार्ग ) है । पर इस पद्धतिमें संसार बहुत दूरतक साथ रहता है । कारण कि त्याग करनेसे त्याज्य वस्तुकी सूक्ष्म सत्ता बनी रहती है । इसलिए इस पद्धतिमें भगवान् से अभेद तो होता है, पर अभिन्नता ( आत्मीयता ) नहीं होती । परन्तु जो संसाररूपसे भगवान् को देखते हैं, वे भगवान् के साथ अभिन्न हो जाते हैं ।



टिप्पणी—
* हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
( रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड ४७/३ )


+ त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥
( गीता ७/१३ )

—‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/meretogirdhargopal/ch5_38.htm

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।। श्रीहरिः ।।
सच्ची आस्तिकता-१


गीता भगवानके समग्ररूपको मानती है, उसीको महत्त्व देती है और उसीकी प्राप्तिमें ही मानव-जीवनकी पूर्णता मानती है । सब कुछ भगवान् ही हैं—‘वासुदेवः सर्वम्’ ( गीता ७/१९ )—यह भगवान् का समग्ररूप है । सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, द्विभुज, चतुर्भुज, सहस्रभुज आदि रूप तथा पदार्थ और क्रियारूप सम्पूर्ण जगत्, सम्पूर्ण जीव, सम्पूर्ण देवता—ये सब-के-सब भगवान् के समग्ररूपके अंतर्गत आ जाते हैं । इसलिए जो समग्रको जान लेना है, उसके लिए कुछ भी जानना शेष नहीं रहता— ‘यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते’ ( गीता ७/२ ) समग्रको जाननेका मुख्य साधन है— शरणागति । इसलिए भगवान् ने गीतोपदेशका पर्यवसान शरणागतिमें ही किया है— ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ ( गीता १८/६६ ) भगवान् ने गीताभरमें केवल शरणागतिको ही ‘सर्वगुह्यतमं’ ( सबसे अत्यन्त गोपनीय ) कहा है— ‘सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु’ ( गीता १८/६४ ) ।

वास्तवमें सत्ता एक ही है । उस एक परमात्माकी सत्ताके अधीन जीवकी सत्ता है और जीवके अधीन जगत् की सत्ता है । जीव और जगत्— दोनों परमात्मामें भासित होते हैं । गीताके सातवें अध्यायमें भगवान् ने जीवको अपनी ‘परा प्रकृति’ और जगत् को अपनी ‘अपरा प्रकृति’ बताया है । परा और अपरा— दोनों भगवान् की शक्तियाँ हैं । अतः इनको अपनी प्रकृति बतानेमें भगवान् का तात्पर्य है कि ये दोनों मेरेसे अलग नहीं हैं । शक्तिमानसे अलग शक्तिकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती । शक्तिमान शक्तिके बिना रह सकता है, पर शक्ति शक्तिमानके बिना नहीं रह सकती ।

अब शंका होती है कि जब जीव ( परा ) और जगत् ( अपरा )—दोनों ही भगवान् से अभिन्न हैं तो फिर जगत् की सत्ता अलग क्यों दीखती है ? इसके उत्तरमें भगवान् ने कहा है—‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’ ( गीता ७/५ ) अर्थात जीवने ही जगत् को धारण किया है अर्थात जगत् को सत्ता और महत्ता दी है । जीव केवल मेरा ( भगवान् का ) अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७ ) परन्तु यह मिलने और बिछुडनेवाले शरीर-इन्द्रियों-मन-बुद्धिको अपना मान लेता है— ‘मनः षष्ठानिन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ ( गीता १५/७ ) । जगत् के साथ अपना सम्बन्ध माननेके कारण ही यह जन्म-मरणके चक्करमें पड़कर दुःख पा रहा है । जीवके द्वारा जगत् से माना हुआ यह सम्बन्ध ही सम्पूर्ण योनियोंका कारण है— ‘एतद्योनिनी भूतानि सर्वाणीत्युपधारय’ ( गीता ७/६ ) अर्थात् इन दोनोंके माने हुए संयोगके कारण ही सम्पूर्ण स्थावर-जंगम प्राणी पैदा होते हैं । तात्पर्य हुआ कि जीवके द्वारा अपरासे जोड़ा गया सम्बन्ध ही मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है ।

‘वासुदेवः सर्वम्’ अर्थात् सब कुछ भगवान् ही हैं—यह गीताका सर्वोपरि सिद्धान्त है । इसका अनुभव करनेका मनुष्यमात्र अधिकारी है । प्रत्येक देश, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिका मनुष्य भगवान् का भक्त होकर ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव कर सकता है । कारण कि भगवान् की प्राप्ति शरीरके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत शरीरके सम्बन्ध-विच्छेदसे होती है । शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेदके लिए तीन बातोंको जानना आवश्यक है —शरीर ‘मैं’ नहीं हूँ, शरीर ‘मेरा’ नहीं है और शरीर ‘मेरे लिए’ नहीं है । यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु मिलने और बिछुडनेवाली होती है, वह अपनी और अपने लिए नहीं होती । एक भगवान् ही हमारे ऐसे साथी हैं, जो सदा हमारे साथ रहते हैं, कभी हमसे बिछुडते नहीं । परन्तु जो मनुष्य मिलने और बिछुडनेवाली वस्तुओंमें ही उलझे रहते हैं, नाशवान् भोगोंमें और संग्रहमें ही लगे रहते हैं, वे सदा साथ रहते हुए भी भगवान् को न प्राप्त होकर बार-बार संसारमें जन्मते-मरते रहते हैं—‘अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि’ ( गीता ९/३ ) ।

संसारकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है । उसको जीवने ही अहंता-ममता-कामनाके कारण स्वतन्त्र सत्ता दी है । जबतक साधकमें अहंता-ममता-कामना रहती है, तबतक उसको यह मानना चहिये कि परमात्मामें संसार है और संसारमें परमात्मा है । परन्तु जब उसकी अहंता-ममता-कामना मिट जायगी, तब उसकी दृष्टिमें न संसारमें परमात्मा रहेंगे, न परमात्मामें संसार रहेगा, प्रत्युत परमात्मा- ही-परमात्मा रहेंगे । परमात्मामें संसारको देखना अथवा संसारमें परमात्माको देखना अधूरी आस्तिकता है । परन्तु केवल परमात्माको ही देखना पूरी आस्तिकता है ।

—‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।
कल्याणका निश्चित उपाय
भगवान् ने जीव पर कृपा करके उसको अपना कल्याण करनेके लिए हीमनुष्यशरीर दिया है अपना कल्याण करनेके सिवाय मनुष्यजन्मकादूसरा कोई प्रयोजन है ही नहीं शरीर, धन-संपत्ति, जमीन-मकान, स्त्री-पुत्रआदि जितनी भी सांसारिक वस्तुएं हैं, वे सब-की-सब मिलने औरबिछुडनेवाली हैं अतः कोई कितना ही बड़ा धनवान बन जाय, बलवानबन जाय, विद्वान बन जाय, ऊँचे पदवाला बन जाय, बड़े कुटुम्बवाला बनजाय, पर अपने कल्याणके बिना ये सब-की-सब वस्तुएँ अपने कुछ काम आयेंगी बिना दुल्हेकी बरातकी तरह सम्पूर्ण सांसारिक भोग व्यर्थ हैं इसलिए मनुष्यका खास कर्त्तव्य हैअपना कल्याण करना

एक मार्मिक बात है कि अपना कल्याण करनेमें मनुष्यमात्र सर्वथा स्वतंत्र है, समर्थ है, योग्य है, अधिकारी है कारण कि भगवान् जीवको मनुष्यशरीर देते हैं तो उसके साथ ही अपना कल्याण करनेकी स्वतंत्रता, सामर्थ्य, योग्यता और अधिकार भी प्रदान करते हैं

अब प्रश्न उठता है कि मनुष्य अपना कल्याण करनेके लिए क्या करें ? इसका उत्तर है कि यदि मनुष्य इन चार बातोंको दृढतासे स्वीकार करले तो उसका कल्याण हो जाएगा
- मेरा कुछ भी नहीं है
- मेरेको कुछ भी नहीं चाहिए
- मेरा किसीसे कोई सम्बन्ध नहीं है
- केवल भगवान् ही मेरे हैं

मिलने और बिछुडनेवाली वस्तुओंको अपना मानना मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है । वास्तवमें अनन्त ब्रह्माण्डोंमें केश-जितनी वस्तु भी अपनी नहीं है । इसलिए ‘मेरा कुछ भी नहीं है’— ऐसा स्वीकार करनेसे जीवनमें निर्दोषता आ जाती है । निर्दोषता आते ही मनुष्य धर्मात्मा हो जाता है ।

जब मेरा कुछ है ही नहीं, तो फिर हम किस वस्तुकी चाहना करें ? अतःमेरेको कुछ भी नहीं चहिये’—ऐसा स्वीकार करते ही जीवनमें निष्कामता जाती है निष्कामता आते ही मनुष्य योगी हो जाता है अर्थात् उसको समत्वरूप योगकी प्राप्ति हो जाती हैमत्वं योग उच्यते’ ( गीता २/४८ ) कोई भी कामना होनेसे उसको चित्तवृतिनिरोधरूप योगकी भी प्राप्ति हो जाती है‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ ( योगदर्शन १/२ )
मनुष्यमात्रका स्वरुप स्वतः असंग है‘असंगो ह्ययं पुरुषः’ ( बृहदा. ४/३/१५ ) अतः मिलने और बिछुड़नेवाले किसी भी वस्तु-व्यक्तिके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे मनुष्यको अपनी असंगताका अनुभव हो जाता है असंगताका अनुभव होनेपर वह ज्ञानी हो जाता है

जीवमात्र परमात्माका अंश है‘ममैवांशो जीवलोके’ ( गीता १५/७ ) भगवान् का अंश होनेके नाते केवल भगवान् ही हमारे हैं भगवान् के सिवाय दूसरा कोई हमारा नहीं है इस प्रकार भगवान् में अपनापन स्वीकार करते ही मनुष्य भक्त हो जाता है

धर्मात्मा, योगी, ज्ञानी और भक्त होनेमें ही मनुष्यका कल्याण निहित है । ऐसा होनेमें कठिनाई भी नहीं है; क्योंकि वास्तवमें मनुष्यमात्रका स्वरुप स्वतः निर्दोष, निष्काम, असंग और भगवान् का अंश है । तात्पर्य है कि हमारा स्वरुप सत्तामात्र है । उस सत्तामें निर्दोषता, निष्कामता और असंगता स्वतःसिद्ध है और वह सत्ता भगवान् का अंश है । इसलिए साधकका कर्तव्य है कि वह उपर्युक्त चारों बातोंको दृढ़तासे स्वीकार कर ले । फिर उसका कल्याण निश्चित है ।

—‘सब साधनोंका सार’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।


विभूतियोंका क्या अर्थ है ?


अब आप ध्यान देकर सुनें । अब एक बात बताता हूँ अपने कामकी । आपको कोई भी सुन्दर रूप दिखे । बहुत सुन्दर दिखे तो उस रूपपर दृष्टि न रख करके की भाई, यह सुन्दरता कहाँसे आयी ? यह आयी हुई सुन्दरता है । क्या पहचान है कि आयी हुई है ? अगर इसकी यह सुन्दरता होती तो हरदम रहनी चाहिए । जैसे नये खिले हुए फूलकी सुन्दरता रहती है, दो-तीन दिनोंके बाद वह सुन्दरता रहती है क्या ? ऐसे स्वाद है, सुन्दरता है, शब्द है, स्पर्श है, रूप है, रस है, गन्ध है, जितने जो विषय हैं, जिनमें मनुष्यका आकर्षण होता है । क्या वे विषय पहले वहाँ इतने सुन्दर थे और क्या वैसे रहेंगे ? तो वहाँ सुन्दरता उसकी नहीं है, उसमें आयी हुई है । और जिससे आयी है, वो नित्य-सौन्दर्य है वहाँ, नित्य-ऐश्वर्य है, नित्य-माधुर्य है । परमात्माके गुण विलक्षण हैं और दिव्य हैं, अलौकिक और नित्य हैं । उनकी आभाकी ये झलक आती है संसारमें । हम इन्द्रियोंके आकर्षणसे उसमें उलझ जाते हैं । वो वास्तवमें तत्व नहीं हैं । उनके भीतर जो भरा हुआ है वही तत्व है । उसीकी आभा आती है । तो जहाँ कहीं भी महत्ता दिखे, श्रेष्ठता दीखे, विलक्षणता दीखे, विचित्रता दीखे, वहाँ उन चीजोंकी कभी भी नहीं माननी चाहिये । वहाँ ऐसा माने कि आयी हुई है इनमें, है नहीं इनमें । जीवन दीखता है, जीते हुए मनुष्य विलक्षण दीखते हैं तो भगवान् कहते हैं ‘भूतनामस्मि चेतना’ ( गीता १०/२२ ) वो चेतना मेरी है । इसीका नाम विभूतियाँ है । भगवान् ने विभूतियाँ बतायी हैं तो तुम इस संसारको मत देखो । इनमें जो कुछ सार चीज है, असली चीज है । वह मेरा स्वरूप है ।


अलौकिकता दीखते ही परमात्माकी ओर वृत्ति जानी चाहिए अचानक, कि यह विलक्षणता दूसरी आ नहीं सकती, इन हाड-मांसमें हो नहीं सकती, इन चीजोंमें हो नहीं सकती । बहुत विचित्र व्याख्यान हुआ । बहुत विचित्र शास्त्रका ज्ञान हुआ, उस ज्ञानमें भी विभूति उस परमात्माकी ही है । उस विचित्र व्याख्यानमें भी उस परमात्माकी ही विभूति है । विचित्र-विवेचनमें भी परमात्माकी विभूति है । विचित्र प्रसन्नता होती है, आनंद होता है, कीर्तन करते हैं उसमें विलक्षणता आती है, वो विलक्षणता उस परमात्माकी होती है । जहाँ कहीं आपको विलक्षणता दीखे, आकर्षण दीखे । वहाँ संसारमें न अटक करके उसके मूलमें परमात्मतत्वकी ओर हमारी वृत्ति जोरदार जानी चाहिये । तब उस परमात्माको पहिचान सकेंगे और इसमें उलझ गए, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धमें, संसारमें तो परमात्मतत्वकी प्राप्ति नहीं होगी । क्योंकि हम तो यहाँ नकलीमें ही उलझ गये, यहाँ ही फँस गये । तो इसमें न फँस करके, उस परमात्मतत्वकी ओर वृत्ति जावे । यही विभूतियोंका अर्थ है, यही विश्वरूपका अर्थ है, उस परमात्मतत्वको ठीक-ठीक तरहसे जानना चाहिये । सबमें वह परमात्मा परिपूर्ण है । सब देशमें है, सब कालमें है, सब वस्तुमें है, सब व्यक्तियोंमें है, संपूर्ण घटनाओंमें है; परन्तु देखनेवाला इन घटनाओंमें, परिस्थितियोंमें, वस्तुओंमें, व्यक्तियोंमें, इन क्रियाओंमें उलझे नहीं और उसको देखे तो वह दिखेगा । और इनमें उलझ जावोगे तो वह नहीं दिखेगा । यहीं फँस जायगा ।


नारायण ! नारायण !! नारायण !!!


—‘भगवद् प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे पेज नं. ४३/४४ से

११/०६/१९८३ के प्रवचनसे ( गीता भवन, स्वर्गाश्रम, ऋषिकेश )
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/bhagwatprapti%20sahaj%20hai/ch4_43.htm

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।। श्रीहरिः ।।

‘वासुदेवः सर्वम’ का

साधन कैसे सिद्ध हो ?-२

( गत् ब्लॉगसे आगेका )

सन्तोंने कहा है—


हाथ काम मुख राम है, हिरदै साची प्रीत ।
दरिया गृहस्थी साध की, याही उत्तम रीत ॥


हाथसे काम करते रहें और मुखसे राम-राम करते रहें । इसके साथ ही भगवान् से बार-बार कहते रहें कि ‘हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’ । किसीको बुरा मत मानें । किसीको बुरा मान लिया तो समझें कि हमारा व्रत भंग हो गया ! अतः उसको प्रत्यक्ष अथवा मनसे नमस्कार करके क्षमा माँग ले । फिर भगवान् से प्रार्थना करें कि ‘हे नाथ ! मैं भूलूँ नहीं; हे प्रभो ! मेरा यह साधन सिद्ध हो जाय !’ एक साधु थे । उनको सत्संगमें कोई बात अच्छी लगती तो भगवान् से कह देते कि ‘महाराज ! यह बात आप अपने खजानेमें जमा कर लो, अगर मैं भूल जाऊँ तो मेरेको याद दिला देना’ । भगवान् के समान कोई मालिक नहीं, कोई नौकर नहीं, कोई मित्र नहीं ! अचानक बैठे-बैठे भगवान् की याद आ जाय तो यह समझकर बड़े खुश हो जाना चाहिए कि भगवान् मेरेको याद कर रहे हैं ! भगवान् ने मेरे ऊपर बड़ी कृपा कर दी ! मैं तो भूल गया था, पर भगवान् ने याद कर लिया, जिससे मेरेको भगवान् याद आ गए । इस प्रकार भगवान् की कृपाका आश्रय लेनेपर ‘वासुदेवः सर्वम्’ का साधन सुगम हो जायगा; क्योंकि ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’ —यह बात कृपासे समझमें आती है, अपनी बुद्धिमानीसे, अपने उद्योगसे नहीं । उद्योग करनेसे तो कर्तृत्व आता है, जो इसके अनुभवमें बाधक है । आजतक जितने भी महात्मा हुए हैं, वे भगवत्कृपासे जीवन्मुक्त, तत्वज्ञ और भगवत्प्रेमी हुए हैं, अपने उद्योगसे नहीं । इसलिए साधकको उद्योगका आश्रय न लेकर भगवत्कृपाका ही आश्रय लेना चाहिए । शरीर-इन्द्रियोंकी सार्थकताके लिए उद्योग करना चाहिए, पर परमात्मतत्व उद्योगसाध्य नहीं है ।
—‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे


http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/amarta%20ki%20or/ch5_74.htm

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।। श्रीहरिः ।।
‘वासुदेवः सर्वम्’ की सिद्धि कैसे करें ?


प्रश्न—सब कुछ भगवान् ही हैं—ऐसा अनुभव करनेका साधन क्या है ? किस तरह इसकी सिद्धि होती है ?
उत्तर—अगर आप ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव करना चाहते हैं तो बड़ी दृढधातासे इस बातको मान लें कि जिस शरीरको हम अपना मानते हैं, वह हमें संसारसे मिला है और छूट जायगा; अतः वह मेरा नहीं है । प्रत्यक्ष बात है कि शरीर जन्मसे पहले मेरा नहीं था और मृत्युके बाद मेरा नहीं रहेगा और अभी भी प्रतिक्षण मेरेसे अलग हो रहा है । जितनी उम्र बीत गयी, उतना तो शरीर हमसे अलग हो गया है, अब बाकी कितना रहा है, इसका पता नहीं । कर्मयोगकी दृष्टिसे शरीर संसारका है, ज्ञानयोगकी दृष्टिसे प्रकृतिका है और भक्तियोगकी दृष्टिसे परमात्माका है । शरीरको किसीका भी मानें, पर यह मेरा नहीं है—यह सर्वसिद्धान्त है । जो वस्तु मिली हुई है और बिछुड जायगी, वह अपनी कैसे हुई ? शरीर मिला हुआ है, बिछुड जायगा और निरन्तर बिछुड रहा है—ये तीनों बातें सन्देहरहित हैं ।


इस प्रकार शरीरको संसारका मानकर संसारकी सेवामें लगा दें और शरीर, मन, वाणीसे किसीका भी बुरा न चाहें तो ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव हो जायगा । हमें वही सेवा करनी है,जिसको करनेकी हमारेंमें सामर्थ्य है और सेवा लेनेवाला हमारेसे न्याययुक्त सेवा चाहता है । जो हमारेसे अन्याययुक्त, शास्त्रविरुद्ध सेवा चाहता है, उसको नहीं करना है । हम ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव करना चाहते हैं, तो अन्याययुक्त काम हम नहीं करें और न्याययुक्त काम भी उतना करें, जितनी हमारी शक्ति है । एक मार्मिक बात है कि भला करनेकी अपेक्षा बुरा न करना ( बुराईका त्याग ) बहुत ऊँची साधना है । भलाई करनेमें जोर आता है, पर बुराई न करनेमें कोई जोर नहीं आता । बुराई न करनेसे दो बातें होंगी—केवल भलाई करेंगे अथवा कुछ भी नहीं करेंगे । कुछ भी नहीं करनेसे परमात्मामें स्वतः स्थिति होती है; क्योंकि कुछ करनेसे ही संसारमें स्थिति होती है । भलाई करनेसे अभिमान आ सकता है, पर बुराई न करनेसे अभिमान आता ही नहीं । इसलिए बुराईका त्याग करें अर्थात् न बुरा करें, न बुरा सोचें और न बुरा कहें ।
भागवतमें ‘वासुदेवः सर्वम्’ का साधन बताया है—


विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रिडां च दैहिकीम् ।
प्रणमेद् दण्डवद् भूमावाश्वचाण्डालगोखरम् ॥
( श्रीमद्भागवत ११/२९/१६ )

‘हँसी उड़ानेवाले अपने लोगोंको और अपने शरीरकी दृष्टिको भी लेकर जो लज्जा आती है, उसको छोडकर अर्थात् उसकी परवाह न करके कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर लंबा गिरकर भगवद् बुद्धिसे साष्टांग प्रणाम करें ।’


जो भी प्राणी सामने आये, उसको साष्टांग प्रणाम करें । शरीरकी लज्जा आती हो तो उसको छोड़ दें और लोग हँसी उड़ाते हों उसकी परवाह मत करें; क्योंकि हमें उससे क्या मतलब ? हमें तो ‘वासुदेवः सर्वम्’ सिद्ध करना है । दृढ़ निश्चय हो जायगा तो ऐसा करनेमें कठिनता नहीं होगी । अगर कठिनता लगती हो तो मनसे ही दण्डवत् प्रणाम कर लें । ऐसा कोई प्राणी न छूटे, जिसको नमस्कार न किया हो । किसी भी वर्ण, आश्रम, जाति, धर्म, सम्प्रदायका मनुष्य हो, वह भगवान् ही है । इसमें चार बातें है—१. इन प्राणियोंके भीतर भगवान् हैं, २. ये भगवान् के भीतर हैं, ३. ये भगवान् के हैं और ४. ये भगवान् ही हैं—ऐसा मानना सबसे सुगम है । अतः ऐसा मान लें कि ये भगवान् के हैं, भगवान् को प्यारे है, इसलिए हम इनको प्रणाम करते हैं । ऐसा करनेका परिणाम क्या होगा, यह भगवान् बताते हैं—


नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात् ।
स्पर्धाऽसूयातिरस्काराः साहङ्कारा वियन्ति हि ॥
(श्रीमद्भागवत ११/२९/१५ )


‘जब भक्तका सम्पूर्ण स्त्री-पुरुषोंमें निरन्तर मेरा ही भाव हो जाता है अर्थात् उनमें मुझे ही देखता है, तब शीध्र ही उसके चित्तसे ईर्ष्या, दोषदृष्टि, तिरस्कार आदि दोष अहंकार-सहित सर्वथा दूर हो जाते हैं ।’


इसलिए मनुष्यमात्रमें भगवान् का भाव रखें । कहीं भाव न हो सके तो मनसे माफ़ी माँग लें । किसीको कहनेकी, जनानेकी जरुरत नहीं । शरीर-मन-वाणीसे संसारकी सेवा करनी है और संसार भगवान् का विराट् रूप है । अतः भगवान् के ही शरीर-मन-वाणीसे भगवान् की ही सेवा करनी है । फिर ‘वासुदेवः सर्वम्’ सिद्ध हो जायगा; क्योंकि यह कोई नया निर्माण नहीं है, प्रत्युत पहलेसे ही है । इसके लिए विद्याध्ययन, धनसम्पत्ति, बल, अनुष्ठान आदिकी जरुरत नहीं है । इसको हरेक भाई-बहन कर सकता है ।

—‘अमरताकी और’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।
मुक्ति सहज है-३


‘मारहिं काल अचान चपेटकी होय घडीकमें राखकी ढेरी ।’ वह दिन अचानक आ जायेगा । कहाँ बैठे हो ? आप और हम मृत्युलोकमें बैठे हैं । यहाँ सब मरनेवाले, मरनेवाले ही रहते हैं । मरनेवालोंकी जमात है । कोई रहनेवाला दिखता है क्या आपको ? फिर आप अकेले कैसे रह जाओगे भाई ! सन्तोंने कहा है —



कोई आज गया कोई काल गया कोई जावनहार तैयार खड़ा ।
नहीं कायम कोई मुकाम यहाँ चिरकालसे ये ही रिवाज रही ॥



यहाँकी रिवाज यही रही है । अब रिवाज कैसे मिटा दोगे ? अनादिकालसे ऐसी रीति चली आ रही है ।
इस वास्ते सन्तोंने कहा है —



घर घर लाग्यो लायाणो घर घर दाह पुकार ।
जन हरिया घर आपणो राखे सो हुशियार ॥



क्या कृपा की है सन्तोंने ! आग लग जाती है न, घरोंमें ! उसे मारवाड़ी भाषामें ‘लायाणो लाग्यो’ कहते हैं । आग लग गयी । घर-घर आग लगी हुई है । ये शरीर हैं, ये सब मौतरूपी ‘आग’में जल रहे हैं । जैसे लकड़ी आगमें जलती है । ज्यों जलती है त्यों ही कम होती जाती है । ऐसे ही ये शरीर कालरुपी आगमें जल रहे हैं, उमर कम हो रही है । परन्तु दीखती है साबत । लकड़ी भी दीखती है साबत, पर जल रही है,कम हो रही है । ऐसे ही ये शरीर कालरूपी आगमें जल रहे हैं, भस्म हो रहे हैं तो ‘घर घर लाग्यो लायाणो घर घर डाह पुकार’ डाह हो रही है, पुकार हो रही है । ‘जन हरिया घर आपणो राखे सो हुशियार’ कैसे रखे ? कि भगवान् के सन्मुख हो जाय, प्रभुको पुकारें फिर मौज हो जाय, आनंद हो जाय ।



जिन सन्तोंके जीनेसे बहुत लोगोंका उद्धार हो जाय,जिनका नाम लेकर लोग सुखी हो जायँ, याद करके खुशी हो जायँ । ऐसे जितने सन्त हुए हैं उनकी वाणी याद करो । उसके अनुसार जीवन बनाओ तो निहाल हो जाओगे, कारण कि उन्होंने रास्ता सुलटा ले लिया । इस वास्ते वे ठेट पहुँच गये । आज दौड़ते तो सभी हैं, पर अंधे होकर चलते हैं । नाशवान् की तरफ चलते हैं । अरे ! अविनाशीकी तरफ चलो भाई ! नाशवान् की तरफ चलनेसे अविनाशी तत्व कैसे मिलेगा ? उत्पन्न-नष्ट होनेवाले पदार्थोंके पीछे पड़े हैं । इनसे निर्वाहमात्र कर लें । लेकिन भीतरसे यह ध्यान नहीं होना चाहिए कि पदार्थ ले लें, भोग ले लें, सुख ले लें । कुछ नहीं मिलेगा । उमर खत्म हो जायगी । समय बरबाद हो जायगा, पीछे पछताना होगा ।



सो परत्र दुख पावइ सिर धुनी धुनी पछिताइ ।
कालहि कर्महि ईश्वरहि मिथ्या दोष लगाइ ॥



भाई ! संसारकी तरफ न जा करके भगवान् की तरफ चलो । आजतक बहुत उमर चली गयी, बहुत समय चला गया, अब भी जा रहा है । प्रभुको पुकारो, ‘हे नाथ ! हे नाथ !! हे नाथ !!!’ भगवान् के नामका जप करो रात-दिन । संसारमें उपकार करो, सेवा करो । तनसे, मनसे, वचनसे, धनसे जो शक्ति, सामर्थ्य एवं योग्यता है । ये संसारकी चीज संसारको दे दो । यही मुक्ति है । आनंद हो गया, मौज हो गयी । शरीर मात्र संसारका और ये स्वयं मात्र परमात्माका । शरीर संसारको सौंप दें तो सब ठीक हो जायेगा । मुक्ति सहज ही हो जायगी ।



नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

— ‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे(दि.१६/०४/१९८३, मुरली मनोहर धोरा, बीकानेरके प्रवचनसे)
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/bhagwatprapti%20sahaj%20hai/ch1_6.htm
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।। श्रीहरिः ।।
मुक्ति सहज है-२


जैसे कोयला काला होता है तो वह काला कब हुआ ? अग्रिसे अलग हुआ तब काला हुआ । अग्रिमें रहते हुए तो वह चमकता था । परन्तु अलग हुआ तो काला हो गया । अब इसे कोई धोवे, साफ करे तो इसका कालापन, साफ नहीं होता । इसके लिये आता है—‘कोयला हो नहीं उजला सौ मन साबुन लगाय ।’ सौ मन साबुन लगानेपर भी उजला नहीं होता तो कैसे हो ! कि यह जिसका अंश है, जिससे यह अलग हुआ है, उसी आगमें रख दिया जाय तो चमक उठेगा । पर आगका अंगार लेकर लाईन खींची जाय तो वह भी काली खीची जायगी । क्योंकि वह भी आगसे अलग हो गया । ऐसे यह जीव परमात्मासे अलग हुआ तब काला हुआ । अब उस कालेपनको धोनेके लिये साबुन लगाता है कि धन हो जाय, मान हो जाय, बड़ाई हो जाय, आदर हो जाय तो हम सुखी हो जायेंगे । इससे सुख नहीं होगा तो किससे सुख होगा ? यह अपने अंशी परमात्माको अपना मान लेगा तो सुखी हो जायगा, चमक उठेगा ।

आप थोड़ा-सा विचार करो तो पता चले कि लाखों-अरबों मनुष्योंमें से दो-चार मनुष्य भी सुखी हो गये क्या ? धनसे, मानसे, बड़ाईसे बड़े-बड़े मिनिस्टरी जिनके पास हैं, वे सुखी हो गये हैं क्या ? बड़े-बड़े धनियोंसे, बड़े-बड़े विद्वानोंसे आप एकान्तमें मिलो कि आप सुखी हो गये हैं क्या ? आपको कोई दुःख तो नहीं है । जो सच्चे हृदयसे परमात्मा लगे हैं उनको भी पूछो । तब आपको वास्तविकताका पता लग जायगा । जो ‘बाह्यस्पर्श’ है वे तो दुःखोंके कारण हैं । असली सुखकी प्राप्तिके लिये क्या करें ? भगवान् को पुकारो ‘हे नाथ ! हे नाथ ! हम तो भूल गये महाराज !’ भगवान् को याद दिला दो तो भगवान् कृपा कर देंगे फिर मौज हो जायगी ।
‘सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥’ (गीता ५/२९)

प्राणिमात्रके सुहृद् परमात्माके रहते हुए हम दुःख पावें बड़े आश्चर्य की बात है । महान् आनन्दस्वरूप वे परमात्मा हमारे खुदके हैं कैसी मौजकी बात है । पर यह अपने परमात्माको छोड़कर परायोंसे प्रेम करता है । बच्चे आपसेमें खेलते हुए जब कोई किसीको मारपीट करता है, तब दौड़ करके माँके पास आता है तो माँकी गोदमें ही रहो ना ! मौजसे, आनन्दसे ! क्यों बाहर जावे ? ऐसे ही यह जीव भगवान् से विमुख होकर दुःख पाता है । इस वास्ते नाशवान् से विमुख हो जाय, क्योंकि भाई ! यह तो ठहरने वाला है नहीं । सन्तों ने कहा है ।

चाख सब छाड़िया माया रस खारा हो ।

नाम सुधा रस पीजिये छिन बारम्बारा हो ॥

हमने तो यह सब चख लिया; पर मायाका रस खारा है । मीठा तो भगवान् का नाम है । नाम लेकर पुकारो, ‘हे नाथ ! हे नाथ ! हे प्रभो !’ ऐसे प्रभुको पुकारो तो निहाल हो जाओगे । ‘शरणे आया बहुत सुख पायो’ इस प्रकार सन्तोंने कहा है । प्रभुके चरणोंके शरण होनेमें बड़ा सुख है । असली सुख है । असली सुखसे वञ्चित क्यों रहते हो ? सबके लिए खुला पड़ा है यह नामका खजाना । कैसा ही मनुष्य क्यों न हो ? ‘अपि चेत्सुदुराचारः’ पापी-से-पापी भी, दुष्ट-से-दुष्ट भी भगवान् के सन्मुख हो जाय ।

सन्मुख
होई जीव मोहि जबही । जन्म कोटि अघ नासहिं तबही ॥

करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जा, क्योंकि पाप सब आगंतुक हैं और तुम परमात्माके हो । इस वास्ते परमात्माके हो जाओ । संसारकी सब चीजें मिट रही है अब उनको पकड़कर सुखी रहना चाहते हैं । तुम खुद रहनेवाले और यह सदा मिटनेवाला तो मिटनेवालेसे कबतक काम चलाओगे ? सोचते नहीं, विचार नहीं करते कि ऐसा सुख ले-लेकर कबतक काम चलाओगे भाई ! घरमें धान्य होता है तब तो रोजाना रोटी बनाओ मौजसे; परन्तु दूसरोंसे ले करके थोडा किसीसे लिया, थोडा किसीसे लिया, ऐसे काम कबतक चलेगा ?


सुख लेते समय यह तो सोचो कि लेकर करोगे क्या ? जिस शरीरके सुखके लिए तुम लेते हो वह शरीर तो प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है बेचारा ! इसके लिए सुख पाना चाहते हो । बड़े आश्चर्यकी बात है ! वहम यह हो रहा है कि हम जी रहे हैं । सच्ची बात है कि हम मर रहे हैं, पर ऐसा कह दें किसीको तो नाराज हो जाय कि हमें मरनेकी बात कह दी । अरे भाई ! असली बात है कि हम हरदम मर रहे हैं । कल इस समय जितनी उम्र थी अब उतनी नहीं है । २४ घंटे उम्र कम हो गई । मृत्युका दिन २४ घंटे नजदीक आ गया और यूँ आते-आते चट आ जायेगा वह दिन । वह दिन पता नहीं है कब आ जाय ।
— ‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे(दि.१६/०४/१९८३, मुरली मनोहर धोरा, बीकानेरके प्रवचनसे)

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।। श्रीहरिः ।।
मुक्ति सहज है

देखो, वस्तु, व्यक्ति और क्रिया—ये तीन चीजें दीखनेमें आती हैं । इनमें वस्तु और क्रिया—ये दोनों प्रकृति हैं और व्यक्त रूपमें जो दीखता है, यह शरीर भी प्रकृति ही है; परन्तु इसके भीतरमें जो न बदलने वाला है, यह परमात्मा अंश है । अब अगर ‘यह’ वस्तु, क्रिया और व्यक्तिमें नहीं उलझे, तो यह स्वाभाविक ही मुक्त है; क्योंकि ‘यह’ परमात्माका साक्षात् अंश है । इसके लिये कहा है—‘चेतन अमल सहज सुख रासी’—यह चेतन है, शुद्ध है, मलरहित है और सहज सुखराशि है, महान् आनन्दराशि है । यह महान आनन्दराशि अपने स्वरूपकी तरफ ध्यान न दे करके संसारके सम्बन्धके सुख चाहने लग गया । इससे यही भूल हुई है । यह संयोगजन्य सुखमें फँस गया । जैसे, धन मिले तो सुख हो, भोजन मिले तो सुख हो, भोग मिले तो सुख हो, कपड़ा, वस्तु, आदर, मान-सत्कार मिले तो सुख हो । यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि स्वयं नित्य-निरन्तर रहने वाला है । ‘सहज सुख रासी’ स्वाभाविक ही सुखराशि है; परन्तु इसमें यह वहम पड़ गया है कि संसारके पदार्थ मिलनेसे सुख होगा । यह बिछुड़ेगा जरूर ही ‘संयोगा विप्रयोगान्ताः’ जितने संयोग होते हैं उनका अन्तमें वियोग होता है तो सम्बन्धसे होनेवाला सुख रहेगा कैसे ? मनुष्य यह विचार नहीं करता है कि आज दिनतक संयोगसे जितने सुख लिये थे वे आज नहीं रहे । संयोगसे होनेवाले सुखका नमूना तो देख ही लिया; लेकिन अब भी चेत नहीं करते फिर और चाहते हैं कि संयोगसे सुख ले लें ।


जबतक बाहरके संयोगके सम्बन्धसे सुख लेगा, तबतक इसकों वास्तविक सुख नहीं मिलेगा ‘बाह्यस्पर्शेव्षसक्तात्मा’ (गीता ५/२१) बाह्य सुख (संयोगजन्य सुख) में आसक्त नहीं होगा तो ‘विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्’ उस विलक्षण सुखको आप-से-आप प्राप्त हो जायगा । संसारके सम्बन्धसे सुख लेनेसे इसका वास्तविक सुख गुम हो गया । वह सुख नहीं हैं; परन्तु यह उस सुखसे वियुक्त हो गया । जिनको वह सुख मिल गया वे आनन्दित हो गये । उनके कभी सांसारिक सुखकी इच्छा ही नहीं रहती । क्योंकि उनको जो वास्तविक सुख मिला, आनन्द मिला उसके समान कोई दूसरा सुख है नहीं । यह स्वयं सुखराशि होकर संयोगजन्य सुख चाहता है, सांसारिक सुखमें राजी होता है—यह बड़े भारी आश्चर्य की बात है । मिलने वाले व बिछुड़नेवाले सुखमें राजी होता है । आप ‘स्वयम्’ रहनेवाले हैं और यह सुख आने-जानेवाला है तो इस सुखसे कैसे काम चलेगा ?



आप रहनेवाले और आपके भीतर परमात्मा रहनेवाले हैं । रहनेवाले परमात्माके साथ रह जाओ तो सदाके लिये सुख मिल जाय । वह सुख कभी मिटेगा नहीं । उत्पन्न और नष्ट होनेवाले शरीरके साथ तथा संयोग और वियोग होनेवाले पदार्थोंसे सुख लेगा तो वह सुख कितना दिन रहेगा ? संतोंने कहा कि ‘ऐसी मूढ़ता या मनकी’ ऐसी मूढ़ता है इस मनकी । ‘परिहरि राम-भगति सुर-सरिता’ भगवान् की भक्ति गंगाजी है उसको छोड़ करके ‘आस करत ओस कनकी’ रात्रिमें ओस पड़ती है, घासकी पत्तीपर जलकी बूँदें चमकती हैं उस ओस-कणसे तृप्ति करना चाहता है । तात्पर्य हुआ भगवान् की भक्तिरूपी गंगाजी बह रही है उसको छोड़ करके ओस-कणके समान—धनसे सुख मिल जाय, स्त्रीसे सुख मिल जाय, पुत्रसे सुख मिल जाय, मानसे सुख मिल जाय, बड़ाईसे सुख मिल जाय, नीरोगतासे सुख मिल जाय आदि संयोगोंसे सुखको चाहता है । इन पदार्थोंमें सुख ढूँढ़ता है, इनके पीछे भटकता है—ये तो ओसकी बूँदें है भाई ! तरह-तरह की चमकती हैं । थोड़ा-सा सूर्य चढ़ा कि खत्म हो जायँगी, सूख जाएँगी तो इनसे तृप्ति कैसे हो जायगी ? ओसके कणोंसे प्यास कैसे बुझेगी ? ‘ऐसी मूढ़ता या मनकी’ तो भाई ! सच्चा सुख चाहते हो उन परमात्माकी तरफ चलो, उनके साथ सम्बन्ध मानो ।

— ‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे(दि.१६/०४/१९८३, मुरली मनोहर धोरा, बीकानेरके प्रवचनसे)

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।। श्रीहरिः ।।
तत्वज्ञानका सहज उपाय-३

एक प्रकाश्य (संसार) है और एक प्रकाशक (परमात्मा) है अथवा एक ‘यह’ है और एक उसका आधार, प्रकाशक, अधिष्ठान ‘सत्ता’ है । अहम् न तो प्रकाश्य (‘यह’) में है और न प्रकाशक (सत्ता) में ही है, प्रत्युत केवल माना हुआ है । जिसमें संसार (‘यह’) की इच्छा भी है और परमात्मा (सत्ता) की इच्छा भी है, उसका नाम ‘अहम्’ है और वही ‘जीव’ है । तात्पर्य है कि जडके सम्बन्धसे संसारकी इच्छा अर्थात् ‘भोगेच्छा’ है और चेतनके सम्बन्धसे परमात्माकी इच्छा अर्थात् ‘जिज्ञासा’ है । अतः अहम् (जड-चेतनकी ग्रंथि) में जड-अंशकी प्रधानतासे हम परमात्माको चाहते है# । माने हुए अहम् का नाश होनेपर भोगेच्छा मिट जाती है और जिज्ञासा पूरी हो जाती है अर्थात् तत्व रह जाता है । वास्तवमें परमात्माकी इच्छा भी संसारकी इच्छाके कारण ही है । संसारकी इच्छा न हो तो तत्वज्ञान स्वतःसिद्ध है ।

साधनकी ऊँची अवस्थामें ‘मेरेको तत्वज्ञान हो जाय, मैं मुक्त हो जाऊँ’—यह इच्छा भी बाधक होती है । जबतक अंतःकरणमें असत् की सत्ता दृढ़ रहती है, तबतक तो जिज्ञासा सहायक होती है, पर असत् की सत्ता शिथिल होनेपर जिज्ञासा भी तत्वज्ञानमें बाधक होती है । कारण कि जैसे प्यास जलसे दूरी सिद्ध करती है, ऐसे ही जिज्ञासा तत्वसे दूरी सिद्ध करती है, जब कि तत्व वास्तवमें दूर नहीं है, प्रत्युत नित्यप्राप्त है । दूसरी बात, तत्वज्ञानकी इच्छासे व्यक्तित्व (अहम्) दृढ़ होता है, जो तत्वज्ञानमें बाधक है । वास्तवमें तत्वज्ञान, मुक्ति स्वतःसिद्ध है । तत्वज्ञानकी इच्छा करके हम अज्ञानको सत्ता देते है, अपनेमें अज्ञानकी मान्यता करते है, जब कि वास्तवमें अज्ञानकी सत्ता है नहीं । इसलिए तत्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता —‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४/३५); क्योंकि वास्तवमें मोह है ही नहीं । मिटता वही है, जो नहीं होता और मिलता वही है, जो होता है ।
साधकको स्वतःस्वाभाविक एकमात्र ‘है’ (सत्ता) का अनुभव हो जाय —इसीका नाम जीवन्मुक्ति है, तत्वबोध है । कारण कि अन्तमें सबका निषेध होनेपर एक ‘है’ ही शेष रह जाता है । वह ‘है’ अपेक्षावाले ‘नहीं’ और ‘है’ —दोनोंसे रहित है अर्थात् उस सत्तामें ‘नहीं’ भी नहीं है और ‘है’ भी नहीं है । वह सत्ता ज्ञानस्वरूप है, चिन्मयमात्र है । वह सत्ता नित्य जाग्रत् रहती है । सुषुप्तिमें अहंसहित सब करण लीन हो जाते है, पर अपनी सत्ता लीन नहीं होती—यह सत्ताकी नित्यजागृति है । वह सत्ता कभी पुरानी नहीं होती, प्रत्युत नित्य नयी ही बनी रहती है; क्योंकि उसमें काल नहीं है । उस सत्तामात्रका ज्ञान होना ही तत्वज्ञान है और सत्तामें कुछ भी मिलाना अज्ञान है ।

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मैं सदा जीता रहूँ, कभी मरुँ नहीं—यह ‘सत्’ की इच्छा है; मैं सब कुछ जान लूँ, कभी अज्ञानी न रहूँ—यह ‘चित्’ की इच्छा है और मैं सदा सुखी रहूँ, कभी दुःखी न होऊ—यह ‘आनंद’ की इच्छा है । इस प्रकार सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्माकी इच्छा जीवमात्रमें रहती है । परन्तु जड़से सम्बन्ध माननेके कारण उससे भूल यह होती है कि वह इन इच्छओंको नाशवान् संसारसे ही पूरी करना चाहता है; जैसे—वह शरीरको लेकर जीना चाहता है, बुद्धि लेकर जानकार बनना चाहता है और इन्द्रियोंको लेकर सुखी होना चाहता है।
-'साधन-सुधा-सिन्धु' पुस्तकसे
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sadhansudhasindhu/ch51_146.htm
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।। श्रीहरिः ।।

तत्वज्ञानका सहज उपाय-२


मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर है—इस प्रकार वस्तुओंमें तो फर्क है, पर ‘है’ में कोई फर्क नहीं है । ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँ—इस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है । अनेक शरीरोंमें, अनेक अवस्थाओंमें चिन्मय सत्ता एक है । बालक, जवान और वृद्ध—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओंमें सत्ता एक है । कुमारी, विवाहिता और विधवा—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक है । जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि—ये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक है । अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता । ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध—इन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवालेमें कोई फर्क नहीं पड़ता ।


यदि जाननेवाला भी बदल जाय तो इन पाँचोंकी गणना कौन करेगा ? एक मार्मिक बात है कि सबके परिवर्तनका ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तनका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । सबका इदंतासे भान होता है, पर अपने स्वरूपका इदंतासे भान कभी किसीको नहीं होता सबके अभावका ज्ञान होता है, पर अपने अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । तात्पर्य है कि ‘है’ (सत्तामात्र) में हमारी स्थित स्वतः है करनी नहीं है । भूल यह होती है कि हम ‘संसार है’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप कर लेते हैं । ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप करनेसे ही ‘नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है और ‘है’ की तरफ दृष्टि नहीं जाती । वास्तवमें ‘है में संसार’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करना चाहिये । ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करनेसे ‘नहीं’ नहीं रहेगा और ‘है’ रह जायगा । भगवान् कहते हैं। नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। (गीता २/१६)

‘असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है अर्थात् असत् का अभाव ही विद्यमान है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है ।’एक ही देश काल वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदिमें अपनी जो परिच्छिन्न सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व, एकदेशीयता) को लेकर ही दीखती है । जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपनेको एक देश, काल आदिमें देखता है । अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदिमें परिच्छिन सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत अपरिच्छिन्न सत्तामात्र रहती है ।


वास्तवमें अहम है नहीं, प्रत्युत केवल उसकी मान्यता है । सांसारिक पदार्थोंकी जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की नहीं है । सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम् उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है । इसलिये तत्त्वबोध होने पर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है ।


अतः तत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानमात्र रहता है । इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं । अहम् ज्ञानीमें होता है, ज्ञानमें नहीं । अतः ज्ञानी नहीं है, प्रत्युत ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है । उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है । कारण कि वह ज्ञान स्वयंप्रकाश है, अतः स्वयंसे ही स्वयंका ज्ञान होता है । वास्तवमें ज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत अज्ञान मिटता है । अज्ञान मिटानेको ही तत्त्वज्ञानका होना कह देते हैं ।

—'साधन-सुधा-सिन्धु' पुस्तकसे

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sadhansudhasindhu/ch51_144.htm

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।। श्रीहरिः ।।

तत्त्वज्ञानका सहज उपाय-१


हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम् नहीं है—यह बात यदि समझमें आ जाय तो इसी क्षण जीवनमुक्ति है ! इसमें समय लगनेकी बात नहीं है । समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है । जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना है जैसे—


संकर सहज सरूपु सम्हारा लागि समाधि अखंड अपारा
(रामचरितमानस, बालकाण्ड ५८/४)

दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ’ । इसमें ‘मैं’ प्रकृतिका अंश है और ‘हूँ’ परमात्माका अंश है । ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है । ‘मैं’ आधेय है और ‘हूँ’ आधार है । ‘मैं’ प्रकाश्य है और ‘हूँ’ प्रकाशक है । ‘मैं’ परिवर्तनशील है और ‘हूँ’ अपरिवर्तनशील है । ‘मैं’ अनित्य है और ‘हूँ’ नित्य है । ‘मैं’ विकारी है और ‘हूँ’ निर्विकार है । ‘मैं’ और ‘हूँ’ को मिला लिया—यही चिज्जडग्रन्थि (जड़-चेतन की ग्रन्थि) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है । ‘मैं’ और ‘हूँ’ को अलग-अलग अनुभव करना ही मुक्ति है तत्त्वबोध है । यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि ‘मैं’ को साथ मिलानेसे ही ‘हूँ’ कहा जाता है । अगर ‘मैं’ को साथ न मिलायें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा । वह ‘है’ ही अपना स्वरूप है ।

एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि ‘मैं बेटा हूँ’, बेटेके सामने कहता है कि ‘मैं बाप हूँ’, दादाके सामने कहता है कि ‘मैं पोता हूँ’, पोताके सामने कहता है कि ‘मैं दादा हूँ’, बहनके सामने कहता है कि ‘मैं भाई हूँ’, पत्नीके सामने कहता है कि ‘मैं पति हूं’, भानजेके सामने कहता है कि ‘मैं मामा हूँ’, मामाके सामने कहता है कि ‘मैं भानजा हूँ’ आदि-आदि । तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, मामा, भानजा आदि तो अलग-अलग हैं, पर ‘हूँ’ सबमें एक है । ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं बदला । वह ‘मैं’ बापके सामने बेटा हो जाता, बेटेके सामने बाप हो जाता है अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है । अगर उससे पूछें कि ‘तू कौन है’ तो उसको खुदका पता नहीं है ! यदि ‘मैं’ की खोज करें तो ‘मैं’ मिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी । कारण कि वास्तवमें सत्ता ‘है’ की ही है, ‘मैं’ की सत्ता है ही नहीं ।

बेटेकी अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा है—इस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयंके नाम नहीं हैं । स्वयंका नाम तो निरपेक्ष ‘है’ है । वह ‘है’ ‘मैं’ को जाननेवाला है । ‘मैं’ जाननेवाला नहीं है और जो जाननेवाला है, वह ‘मैं’ नहीं है । ‘मैं’ ज्ञेय (जानने में आनेवाला) है और ‘है’ ज्ञाता (जाननेवाला) है । ‘मैं’ एकदेशीय है और उसको जानने वाला ‘है’ सर्वदेशीय है । ‘मैं’ से सम्बन्ध मानें या न मानें, ‘मैं’ की सत्ता नहीं है । सत्ता ‘है’ की ही है । परिवर्तन ‘मैं’ में होता है, ‘है’ में नहीं । ‘हूँ’ भी वास्तव में ‘है’ का ही अंश है । ‘मैं’ पनको पकड़नेसे ही वह अंश है । अगर मैं-पन को न पकड़ें तो वह अंश (‘हूँ’) नहीं है, प्रत्युत ‘है’ (सत्ता मात्र है) ‘मैं’ अहंता और ‘मेरा बाप, मेरा बेटा’ आदि ममता है । अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है—
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
(गीता २/७१)
यही ‘ब्राह्मी स्थिति’ है । इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् ‘है’ में स्थितिका अनुभव होने पर शरीरका कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीरको मैं—मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता ।

(शेष आगेके ब्लोगमें)

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।। श्रीहरिः ।।


जिन खोजा तिन पाइया-२


(गत ब्लॉगसे आगेका)

यह संसार दीखता है, इसमें अलग-अलग शरीर हैं । स्थूल, सूक्ष्म और कारण—ये तीन शरीर है । कोई स्थिर रहनेवाला (स्थावर) शरीर है, कोई चलने-फिरने वाला (जंगम) शरीर है । स्थिर रहनेवालोंमें पीपलका वृक्ष है, कोई नीमका वृक्ष है, कोई आमका वृक्ष है, कोई करीलका वृक्ष है । तरह-तरहके पौधे हैं, घास हैं । चलने-फिरने वालोंमें कई तरहके पशु-पक्षी, मनुष्य आदि हैं । ये सभी पृथ्वी पर हैं । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश—ये पंच महाभूत हैं । इनसे आगे समष्टि अहंकार है । फिर महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि) है । महत्तत्त्वके बाद फिर मूल प्रकृति है । ये सब मिलकर संसार हैं । संसारके आदिमें भी परमात्मा हैं, अन्तमें भी परमात्मा हैं और बीचमें अनेक रूपसे दीखते हुए भी तत्त्वसे परमात्मा ही हैं ।

मनसा वचसा दृष्टया गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियै: ।

अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वजमंज्जसा ॥
(श्रीमद्भागवत ११/१३/२४)

‘मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ । अत: मेरे सिवाय दूसरा कोई भी नहीं है—यह सिद्धान्त आप विचारपूर्वक शीघ्र समझ लें अर्थात् स्वीकार कर लें ।’ देखने, सुनने और चिन्तन करनेमें जितना संसार आता है, वह मोहमूल ही है; क्योंकि उसकी वास्तविक और स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं—
‘देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं, मोह मूल परमारथु नाहीं’ ॥
(रामचरितमानस २/९२/४)

संसार पहले नहीं था, पीछे नहीं रहेगा, केवल बीचमें बना हुआ दीखता है । बनी हुई (बनावटी) चीज निरन्तर मिट रही है और स्वत: सिद्ध परमात्मतत्त्व ही अनेक रूपोंसे दीखता है । परमात्मतत्त्व एक होते हुए भी अनेक रूपोंसे दीखता है और अनेक रूपोंसे दीखने पर भी स्वरूपसे एक ही रहता है । कारण कि वह एक ही था, एक ही है और एक ही रहेगा । वह एक रूपसे दीखे तो भी वही है और अनेक रूपसे दीखे तो भी वही है । जलसे बने भाप, बादल, बर्फ आदि सब जल ही है, सोनेसे बने गहने सोना ही है, मिट्टीसे बने बर्तन मिट्टी ही है । इसी तरह जो अनेक रूपोंमें एक परमात्मतत्त्वको ही देखता है, वही तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, ज्ञानी-महात्मा होता है । कारण कि उसको यथार्थ ज्ञान हो गया, उसने परमात्माको तत्त्वसे जान लिया । तत्त्वसे जानते ही वह परमात्मामें प्रविष्ट हो जाता है—‘ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्’ (गीता १८/५५) फिर एक तत्त्व ही शेष रह जाता है । परमात्मतत्त्व पहले एक था, पीछे एक रहेगा और अभी अनेक रूपोंसे दीखता है—ये तीनों बातें काल (भूत, भविष्य और वर्तमान) को लेकर हैं । परन्तु उस तत्त्वमें काल है ही नहीं । इसी तरह वहाँ न देश है, न क्रिया है, न वस्तु है, न व्यक्ति है, न घटना है, न परिस्थिति है, न अवस्था है । केवल एक अद्वैत तत्त्व है ।


-'साधन-सुधा-सिन्धु' पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।


जिन खोजा तिन पाइया

परमात्मतत्त्व अद्वितीय है। उपनिषद् में आया है-
सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् ।
(छान्दोग्य. ६/२/१)
‘हे सोम्य ! आरम्भमें यह एकमात्र अद्वितीय सत् ही था’ ।
तात्पर्य है कि वह तत्त्व अद्वैत है । उस तत्त्वमें किसी भी तरहका भेद नहीं है । भेद तीन तरहका होता है—स्वगत भेद, सजातीय भेद और विजातीय भेद । जैसे, एक शरीरमें भी पैर अलग हैं, हाथ अलग हैं, पेट अलग हैं, सिर अलग हैं—यह ‘स्वगत भेद’ है । वृक्ष-वृक्षमें कई भेद हैं, गाय-गायमें अनेक भेद हैं—यह ‘सजातीय भेद’ है । वृक्ष अलग हैं और गाय, भैंस, भेंड़ आदि पशु अलग हैं—यह स्थावर और जंगम का भेद ‘विजातीय भेद’ है । परमात्मतत्त्व ऐसा है कि उसमें न स्वगत भेद है, न सजातीय भेद है और न विजातीय भेद है । परमात्मतत्त्वमें कोई अवयव नहीं है, इसलिये उसमें ‘स्वगत भेद’ नहीं है । जीव भिन्न-भिन्न होने पर भी स्वरूपसे एक ही हैं; अत: उसमें ‘सजातीय भेद’ भी नहीं है । वह परमात्मतत्त्व सत्तारूपसे एक ही है ।

जैसे, समुद्रमें तरंगें उठती हैं, बुदबुद पैदा होते हैं, ज्वार-भाटा आता है, पर यह सब-का-सब जल ही है । इस जलसे भाप निकलती है । वह भाप बादल बन जाती है । बादलोंसे फिर वर्षा होती है । कभी ओले बरसते हैं । वर्षाका जल बह करके सरोवर, नदी-नालेमें चला जाता है । नदी समुद्रमें मिल जाती है । इस प्रकार एक ही जल कभी समुद्र रूपसे, कभी भाप रूपसे, कभी बूँद रूपसे, कभी ओला रूपसे, कभी नदी रूपसे और कभी आकाशमें परमाणु रूपसे हो जाता है । समुद्र, भाप, बादल, वर्षा, बर्फ, नदी आदिमें तो फर्क दीखता है, पर जल तत्त्वमें कोई फर्क नहीं है । केवल जल-तत्त्वको ही देखें तो उसमें न समुद्र है, न भाप है, न बूँदें हैं, न ओले हैं, न नदी है, न तालाब है । ये सब जलकी अलग-अलग उपाधियाँ हैं । तत्त्वसे एक जलके सिवाय कुछ भी नहीं है । इसी तरह सोनेके अनेक गहने होते हैं । उनका अलग-अलग उपयोग, माप-तौल, मूल्य, आकार आदि होते हैं । परन्तु तत्त्वसे देखें तो सब सोना-ही-सोना है । पहले भी सोना था, अन्तमें भी सोना रहेगा और बीचमें अनेक रूपसे दीखने पर भी सोना ही है। मिट्टीसे घड़ा, हाँडी, ढक्कन, सकोरा आदि कोई चीजें बनती हैं । उन चीजोंका अलग-अलग नाम, रूप, उपयोग आदि होता है । परन्तु तत्त्वसे देखें तो उनमें एक मिट्टीके सिवाय कुछ भी नहीं है । पहले भी मिट्टी थी, अन्तमें भी मिट्टी रहेगी और बीचमें भी अनेक रूपसे दीखने पर भी मिट्टी ही है । इसी प्रकार पहले भी परमात्मा थे, बादमें भी परमात्मा रहेंगे और बीचमें संसार रूपसे अनेक दीखने पर भी तत्त्व से परमात्मा ही हैं—‘वासुदेव: सर्वम्।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
'साधन-सुधा-सिंधु' पुस्तकसे
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दृढ़ भावसे लाभ

कहावत है कि ‘जिस गाँव में नहीं जाना है, उसका रास्ता क्यों पूछा जाय ?’ ऐसा दृढ़ भाव हो जाय कि ‘अपनी उम्रमें अमुक काम हमें नहीं ही करना है’ तो वह कार्य हो ही कैसे सकता है ? जैसे सिनेमा नहीं देखना है, तो नहीं ही देखना है । बीड़ी-सिगरेट आदि व्यसन नहीं करना है, तो नहीं ही करना है । चाय आज से नहीं पीना है, तो नहीं ही पीना है । समाप्त हुआ काम । अब झूठ नहीं बोलना है, तो झूठ बोलेंगे ही क्यों ? फिर झूठ निकल ही नहीं सकता । ऐसे ही प्रत्येक सद्गुण-सदाचारके ग्रहण और दुर्गुण-दुराचार के त्यागके लिये दृढ़ भाव बना लिया जाय तो यह भाव बहुत जल्दी बन सकता है और फिर वह अनायास ही आचरणमें भी आ सकता है ।

इसके लिये एक बहुत उपयोगी बात यह है कि हम अपनेको दृढ़प्रतिज्ञ बनावें । अर्थात् हरेक व्यवहारमें जो विचार कर लें, बस वैसा ही करें—यों करने पर विचारों की एक परिपक्वता हो जाती है, फिर संकल्प दृढ़ हो जाता है । इसी प्रकार जबानसे कह दें तो फिर वैसा ही करने की चेष्टा करें । बहुत ज्यादा दृढ़तासे कहें तो उसके पालनकी प्राणपर्यन्त चेष्टा करें । मर भले ही जायँ, पर अब तो करेंगे ऐसे ही । छोटे-छोटे कामोंमें इस प्रकार दृढ़ प्रतिज्ञताका स्वभाव बनानेकी चेष्टा करें तो हमारा स्वभाव सुधर जाता है । स्वभाव सुधरने पर फिर बड़ी-से-बड़ी बातें भी जो विचार कर लें, वे धारण हो जाती हैं । यह भाव-निर्माण तथा भाव-धारण-साधन बहुत सुगम है और बहुत ही श्रेष्ठ है ।

सेनामें लोग भरती होते हैं तो अपना नाम लिखा देते हैं और समझते हैं कि ‘हम तो सिपाही हो गये ।’ ऐसा भाव होने पर मन में स्वयं जिज्ञासा पैदा होती है कि सिपाही को क्या करना चाहिये । ऐसी जिज्ञासा होने पर शिक्षा दी जाती है और वह शिक्षा उनके धारण हो जाती है । ऐसे ही साधना करनेके लिये वैरागी पुरुष साधु बनता है, उसके मनमें आता है कि ‘मैं साधु बन गया’ तो ‘साधु को क्या करना चाहिये’—यह स्वयं उसके मनमें जिज्ञासा होती है । उसके बाद जब यह बताया गया है कि साधु का यह आचरण है, साधुको ऐसे बोलना, ऐसे उठना चाहिये, ऐसा आचरण करना चाहिये, यह व्यवहार करना चाहिये तो यह साधुताकी बात वह पकड़ लेता है; क्योंकि वह समझता है कि ‘मैं साधु हूँ, अत: मुझे अब साधुके अनुसार चलना ही है ।’ ऐसे ही अपने आपको साधक मान ले कि मैं तो भजन-ध्यान-साधन करने वाला साधक हूँ । जहाँ प्रवचनोंमें, ग्रंथोंमें यह बात आयेगी कि ‘साधकके लिये यों करना उचित है, साधकमें चंचलता नहीं चाहिये, उसे व्यर्थ समय नहीं गँवाना चाहिये, हर समय भगवत्-भजन, ध्यानादि करना चाहिये, कुसंग का त्याग करना चाहिये, सत्संग और स्वाध्याय करना चाहिये, आदि’— इस प्रकार साधकके लिये जो कर्तव्य बतलाये जायँगे, उन कर्तव्योंको वह अपनेमें लानेकी स्वत: ही विशेष चेष्टा करेगा; क्योंकि वह अपने-आपको साधक मानता है । अत: साधकके लिये जो बातें आवश्यक हैं वे उसमें आ जायँगी, धारण हो जायँगी; पर जो मनुष्य अपनेको साधक नहीं मानेगा, वह कोई बात चाहे सत्संगमें सुने, व्याख्यानमें सुने या ग्रन्थोंमें पढ़े, उसके हृदयमें वह विशेषतासे धारण नहीं होगी और उन बातोंके साथ उसका घनिष्ठ संबंध नहीं होगा ।

बहुत-से भाई-बहिन साधन करते हैं, जप-पाठ आदि नित्य-नियम करते हैं, परन्तु नित्य-नियमके साथ समझते हैं कि यह तो घंटे-डेढ़-घंटे करनेका काम है । शेष समयमें समझते हैं कि हम तो गृहस्थ हैं, हमें अमुक-अमुक काम करने हैं, हम अमुक घरके, अमुक जातिके, अमुक वर्णाश्रमके हैं । घंटे-डेढ़-घंटे भगवान् का भजन कर लेना है, गीतापाठ कर लेना है, कीर्तन कर लेना है । सत्संग प्रतिदिन मिल गया तो प्रतिदिन कर लिया । बारह महीनेसे मिल गया तो बारह महीनेसे कर लिया । सत्संग कर लिया, एक पारी निकल गयी । ऐसा भाव रहता है । इसलिये विशेष सुधार नहीं होता, वह उस सत्संगको ग्राह्य-दृष्टिसे नहीं देखता । ग्राह्य-दृष्टिसे देखने और साधारण कुतूहलनिवृत्ति-दृष्टिसे देखनेमें बड़ा अन्तर है । हम सत्संगको कुतूहलनिवृत्ति या मन बहलानेकी तरह सुनते हैं । अत: धारणा नहीं होता । इसलिये हमें सत्संगको—साधन को ग्राह्य-दृष्टिसे देखना चाहिये और ऐसा भाव रखना चाहिये कि हमें तो निरन्तर भगवान् का भजन-ध्यान ही करना है । जो कुछ कार्य करना है वह भी केवल भगवान् का ही और भगवान् के लिये ही करना है । इस दृष्टिसे भगवान् के नाते ही सब काम किये जायँ तो उससे महान् लाभ हो सकता है ।

—'एक साधे सब सधे' पुस्तकसे
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स्त्रीयोंके प्रति-२



मेरेको आश्चर्य होता है कि गर्भपात, नसबंधीके लिए प्रचार करती है, ऐसे ही बहनें प्रचार करती है कि गुरु बना लो । जिन्होंने गुरु बनाया है उसमें क्या विलक्षणता आयी है ? आप कोई बताओ ? अभिमान एक और बढ़ गया कि हमने गुरु बना लिया, तुमने नहीं बनाया । अभिमान खास पतनका कारण है । आसुरी संपत्ति है खास बंधनके लिए । आप तर्क करो हमारे सामने ! शास्त्रसे, युक्तिसे काटो हमारी बात ! अपना कल्याण करना है कि अभिमान बढ़ाना है ? नरकोमें जाना है ? बताओ क्या विचार है आपका ? कल्याण करनेका विचार है वह कभी अभिमान नहीं बढ़ाएगा । अभिमान छोडेगा, अहंकारका त्याग करेगा । अभिमान बढ़ाना है कि हमारा गायत्रीमें अधिकार है, हमारा ॐ में अधिकार है । इससे हम बड़े हो गए । तुम जिसको लेकर बड़े हो गए वह शरीर क्या है ? आश्चर्य आये ऐसी बात है । शरीर क्या है बताऊ ? यह मल-मूत्र बनानेकी मशीन है । भगवानको भोग लगे ऐसे बढ़िया-बढ़िया पदार्थ ले लो और विष्टा बना लो । गंगाजी, जमनाजीका पवित्र जल इसको पीला दो और पेशाब बना देगी ! बताओ; काटो, खंडन करो कोई भी ! उस शरीरमें अभिमान करना कि ‘मै बड़ा हूँ’, तो मल-मूत्रकी मशीनका अभिमान हुआ । इससे कल्याण, उद्धार होगा ? कभी संभव नहीं है ।

देखो एक मार्मिक बात बताऊ । वस्तु कोई अच्छी और खराब होती ही नहीं । सदुपयोग कल्याण करनेवाला है और दुरुपयोग पतन करनेवाला है । हरेक वस्तुका सदुपयोग करो । सदुपयोगकी महिमा है, दुरुपयोगकी निंदा है । उत्तरकाण्डमें काकभुशुण्डिजी और गरुड़जीका संवाद है । उसमें सात प्रश्न है, जिसमें पहला प्रश्न है कि सबसे दुर्लभ शरीर कौनसा है ? ध्यानसे सुनना कृपा करके ! तो उसका उत्तर दिया ‘सबसे दुर्लभ मानुष देही जीव चराचर जाचत जेही’ उस मनुष्य देहकी महिमा करते हुए आगे कहते है कि ‘नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी, ज्ञान विराग भक्ति शुभ देनी’ । मनुष्य शरीरकी महिमामें पहला नंबर है नरक ! नरककी प्राप्तिका साधन है, तो यह महिमा हुई कि निंदा हुई ? मनुष्य शरीरका ऐसा फल है कि सीधा नरकोमें जाय । अगर इसका दुरुपयोग करेगा तो नरकोमें जायेगा । और सदुपयोग करेगा तो मुक्ति हो जायेगी । महिमा मानव शरीरकी नहीं है, महिमा सदुपयोगकी है । इस वास्ते चाहे भाईका शरीर हो चाहे बहनका शरीर हो, इसका सदुपयोग करो तो कल्याण हो जायेगा और दुरुपयोग करोगे तो नरक हो जायेगा । अधिकार पुरुषको ज्यादा दिया तो यह महेनत ज्यादा करे और जो मिले वह बहनोंको सुगमतासे मिल जाय । पति-पत्नी होते है तो पति जो शुभ काम करता है – संध्या करता है, गायत्री करता है, वेद पढता है, उसके धर्मका आधा अधिकार पत्नीको मिलता है । महेनत तो करे पुरुष और स्त्रीको मुफ्तमें मिले कल्याण । और स्त्री धर्म करें तो उसका आधा फल पतिको नहीं मिलता है, पर पाप करें तो पतिको फल भोगना पडता है । स्त्रीके किये हुआ पापका भागी पति होता है और पतिके धर्मका भाग लेती है पत्नी । धर्मपत्नी कहा है, पाप-पत्नी नहीं कहा है । धर्मका भाग लेती है मुफ्तमें, घर बैठे हुए । प्रत्यक्षमें देखो, कमाता पुरुष है और स्त्री मौजसे खाती है । पति पंडित हुआ और पत्नी पढ़ी हुई नहीं है पर पंडितानी कहलाती है । पढना एक अक्षर भी नहीं आता ! तो इससे अधिक अधिकार लेकर क्या कर लोगी ? माँ का दरज्जा श्रेष्ठ है, उतना पिताका नहीं है ।

हमने सुना है कि प्रणव पढ़ेगा और ॐ का ठीक उच्चारण ओम......ओम....ओम ऐसे करेगी तो गर्भपात हो जायेगा —यह बात मैंने सुनी है । तो अनर्थ होगा न ! आपका खास काम है गर्भ धारण करना उसमें बाधा होगी । अब आपको क्या कहूँ ? अन्नदाता हो आप हमारी ! हमें रोटी आपसे मिलती है, इनसे (पुरुष) नहीं मिलती है । आप सबको घरमें रोटी कौन खिलाता है ? आप जिससे जीते हो वह अन्न कौन देता है ? कमाकर आप लाते है पर सुधारकर आपके कामकी चीज बना देती है वरना रुपये खाओ, नोट चबा लो ! हमारे तो भाई ! इनसे भिक्षा मिलती है । फिर कृतघ्न क्यों होंगे ? ॐ, गायत्री, वेदोंका उच्चारण करना छोडो, राम-राम करो कल्याण हो जायेगा ।

कलकत्तेमें एक ब्राह्मणने मुझे बात पुछी कि कल्याण कैसे हो ? तो मैंने बताया कि भगवानके नामसे होता है, गायत्रीसे भी होता है । परन्तु मैंने एक बात कही, पंडितजीने काटी नहीं । मैंने कहा कि गायत्री जपोगे तो साथमें ब्राहमणपनेका अभिमान होगा और नाम-जप करोगे तो नम्रता, सरलता आ जायेगी । अंतःकरण निर्मल जितना रामनामसे होगा उतना गायत्रीसे नहीं होगा; शक्ति, तेज आ जायेगा । शाप-वरदान दे दोंगे । हम ब्राह्मण है—यह अभिमान होगा और अभिमानीका पतन होता है । आसुरी संपत्ति है —यह बात है महाराज ! इस वास्ते आपको अधिकार नहीं दिया तो शास्त्रने कृपाकी है, पति वेद, गायत्री पढ़े उसका आधा भाग आपको मुफ्तमें मिल जायेगा । यदि आप पापमें सम्मति देंगे तो आपको पाप होगा । इस वास्ते अधिकार तो केवल अभिमानके लिए है ।


—दि.२७/०१/१९९२, सायं ३ बजेके प्रवचनसे
सुनिए—
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