।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
मुक्तिमें सबका समान अधिकार


(गत ब्लॉगसे आगेका)
तर्हि देहो ब्राह्मण इति चेत्तन्न । आचाण्डालादिपर्यन्तानां मनुष्याणां पाञ्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरूपत्वाज्जरामरण धर्माधर्मादिसाम्यदर्शनाद्- ब्राह्मणः श्वेतवर्णः क्षत्रियो रक्तवर्णो वैश्यः पीतवर्णः शूद्रः कृष्णवर्ण इति नियमाभावात् । पित्रादिशरीरदहने पुत्रादीनां ब्रह्महत्यादिदोषसम्भवाच्च । तस्मान्न देही ब्राह्मण इति ॥
‘तो क्या देह ब्राह्मण है नहींऐसा भी नहीं हो सकता । चाण्डालसे लेकर मनुष्यपर्यन्त सबके शरीर पांचभौतिक होनेसे एकरूप ही हैं । जरा-मृत्युधर्म-अधर्म (पुण्य-पाप) आदि भी सबके समान ही देखे जाते हैं । ब्राह्मणका श्वेतवर्णक्षत्रियका लाल वर्णवैश्यका पीला वर्ण और शूद्रका काला वर्ण होता है‒ऐसा नियम भी नहीं है । यदि देहको ब्राह्मण मानें तो पिता आदिके मृत शरीरको जलानेसे पुत्र आदिको ब्रह्महत्या आदि पाप लगनेकी सम्भावना रहती है । अतः देह ब्राह्मण नहीं है ।’
तर्हि जातिर्ब्राह्मण इति चेत्तन्न । तत्र जात्यन्तरजन्तुष्वनेक जातिसम्भवा महर्षयो बहवः सन्ति । ऋष्यशृङ्गो मृग्याःकौशिकः कुशात्जाम्बूको जष्ठकात्,वाल्मीको वल्मीकात्व्यासः कैवर्तकन्यकायाम्शशपृष्ठाद् गौतमःवसिष्ठ उर्वश्यामूअगस्त्यः कलशे जात इति श्रुतत्वात् । एतेषां जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति । तस्मान्न जातिर्ब्राह्मण इति ॥
‘तो क्या जाति ब्राह्मण है नहींऐसा भी नहीं हो सकता । विभिन्न जातिवाले प्राणियोंसे अनेक जातिवाले बहुत-से महर्षि उत्पन्न हुए हैंजैसे‒मृगीसे ऋष्यशृंगकुशसे कौशिकजम्बूक (सियार) से जाम्बूकवल्मीकसे वाल्मीकि,मल्लाहकी कन्यासे व्यासशशपृष्ठ (खरगोशकी पीठ) से गौतमउर्वशीसे वसिष्ठकलश (घट) से अगस्त्य उत्पन्न हुए‒ऐसा सुना जाता है । इनमें जातिके बिना भी पहले बहुत-से पूर्ण ज्ञानवान् ऋषि हुए हैं । अतः जाति ब्राह्मण नहीं है ।’
तर्हि ज्ञानं ब्राह्मण इति चेत्तन्न । क्षत्रियादयोऽपि परमार्थ दर्शिनोऽभिज्ञा बहवः सन्ति । तस्मान्न ज्ञानं ब्राह्मण इति ॥
‘तो क्या ज्ञान ब्राह्मण है नहींऐसा भी नहीं हो सकता । बहुत-से ( जनकअश्वपति आदि) क्षत्रिय आदि भी परमार्थको जाननेवाले तत्त्वज्ञ हुए हैं । अतः ज्ञान ब्राह्मण नहीं है ।’
तर्हि कर्म ब्राह्मण इति चेत्तन्न । सर्वेषां प्राणिनां प्रारब्ध सञ्चितागामिकर्मसाधर्भ्यदर्शनात्कर्माभिप्रेरिताः सन्तो जनाः कियाः कुर्वन्तीति । तस्मान्न कर्म ब्राह्मण इति ॥
‘तो क्या कर्म ब्राह्मण है नहींऐसा भी नहीं हो सकता । सम्पूर्ण प्राणियोंमें प्रारब्धसंचित तथा क्रियमाण कर्मोंमें सधर्मता देखी जाती है और कर्मोंसे प्रेरित होकर वे मनुष्य क्रिया करते हैं । अतः कर्म ब्राह्मण नहीं है ।’
तर्हि धार्मिको ब्राह्मण इति चेत्तन्न । क्षत्रियादयो हिरण्यदातारो बहवः सन्ति । तस्मान्न धार्मिको ब्राह्मण इति ॥’
‘तो क्या धार्मिक व्यक्ति ब्राह्मण है ? नहींऐसा भी नहीं हो सकता । बहुत-से क्षत्रिय आदि भी स्वर्णका दान करनेवाले हुए हैं । अतः धार्मिक व्यक्ति ब्राह्मण नहीं है ।’
तर्हि को वा ब्राह्मणो नाम । यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं षडूर्मिषड्भावे-त्यादिसर्वदोषरहितं सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं स्वयं निर्विकल्पमशेषकल्पाधारमशेषभूतान्तर्यामित्वेन वर्तमान-मन्तर्बहिश्चाकाशवदनुस्थूतमखण्डानन्दस्वभावमप्रमेयमनु-भवैकवेद्यमपरोक्षतया भासमानं करतलामलकवत्साक्षाद-परोक्षीकृत्य कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नभावमात्सर्यतृष्णाशामोहादिरहितो दम्भाहंकारादिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत एवमुक्तलक्षणो यः स एवं ब्राह्मण इति श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासानामभिप्रायः । अन्यथा हि ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नास्त्येव ॥
‘तो फिर ब्राह्मण नाम किसका है जो कोई अद्वितीय आत्मा जातिगुण तथा क्रियासे रहित हैछः ऊर्मियों तथा छः विकारों[*] आदि समस्त दोषोंसे रहित हैसत्-चित्-आनन्द तथा अनन्तस्वरूप हैस्वयं निर्विकल्प है, अनन्त कल्पोंका आधार हैअनन्त प्राणियोंमें अन्तर्यामीरूपसे रहनेवाला है, सदा वर्तमान (नित्य रहनेवाला) है आकाशकी तरह सबके भीतर-बाहर परिपूर्ण हैअखण्ड आनन्द स्वभाववाला है, अप्रमेय है अर्थात् इन्द्रियों और अन्तःकरणका विषय नहीं हैकेवल अनुभवसे जाननेयोग्य है तथा अपरोक्षरूपसे प्रकाशित होनेवाला हैउस परमात्मतत्त्वका हस्तामलककी तरह साक्षात्कार करके जो कृतकृत्य (ज्ञात-ज्ञातव्यप्राप्तप्राप्तव्य) हो गया है और जो कामराग आदि दोषोंसे रहित हैशमदम आदिसे सम्पन्न भाववाला हैमात्सर्यतृष्णाआशामोह आदिसे रहित है;और जिसका चित्त दम्भअहङ्कार आदि दोषोंसे निर्लिप्त है,वही वास्तविक ब्राह्मण है‒ऐसा श्रुतिस्मृतिपुराण एवं इतिहासका अभिप्राय है । इसके सिवाय अन्य किसी भी प्रकारसे ब्राह्मणत्वकी सिद्धि नहीं होती ।’
सच्चिदानन्दमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेदात्मानं सच्चिदानन्दं ब्रह्म भावयेदित्युपनिषत् ॥
‘आत्मा सच्चिदानन्दस्वरूप अद्वितीय ब्रह्म है (उसका साक्षात्कार करनेवाले ब्राह्मण हैं)‒ऐसा मानना चाहिये । आत्माको सच्चिदानन्दस्वरूप अद्वितीय ब्रह्म मानना चाहिये । यह उपनिषद् है ।’

वज्रसूचिकोपनिषद् समाप्त ॥

शान्तिपाठ
‘ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि । सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोत् अनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु । तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

 ‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो ?’ पुस्तकसे
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        [*] भूख, प्यास, शोक, मोह, जन्म तथा मृत्यु‒ये छः उर्मियाँ हैं । उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना‒यह छः विकार हैं ।


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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ अमावस्या, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
मौनी अमावस्या
मुक्तिमें सबका समान अधिकार


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वज्रसूचिकोपनिषद्

शान्तिपाठ

 ‘ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि । सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोत् । अनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु । तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
‘हे परब्रह्म परमात्मन् ! मेरे सम्पूर्ण अंगवाणी,प्राण, नेत्रकान और सब इन्द्रियाँ तथा शक्ति परिपुष्ट हों । यह जो सर्वरूप उपनिषत्-प्रतिपादित ब्रह्म हैउसको मैं अस्वीकार न करूँ और वह ब्रह्म मेरा परित्याग न करे । उसके साथ मेरा अटूट सम्बन्ध हो और मेरे साथ उसका अटूट सम्बन्ध हो । उपनिषदोंमें प्रतिपादित जो धर्मसमूह हैंवे सब उस परमात्मामें लगे हुए मुझमें होंवे सब मुझमें हों । हे परमात्मन् ! त्रिविध तापोंकी शान्ति हो ।’
चित्सदानन्दरूपाय सर्वधीवृत्तिसाक्षिणे ।
नमो वेदान्तवेद्याय ब्रह्मणेऽनन्तरूपिणे ॥
‘सच्चिदानन्दस्वरूपसबकी बुद्धिका साक्षीवेदान्तके द्वारा जाननेयोग्य और अनन्त रूपोंवाले ब्रह्मको मैं नमस्कार करता हूँ ।’
ॐ वज्रसूचीं प्रवक्ष्यामि शास्त्रमज्ञानभेदनम् ।
दूषणं ज्ञानहीनानां भूषणं ज्ञानचक्षषाम् ॥
‘अब मैं अज्ञानका नाश करनेवाला ‘वज्रसूची’ नामक शास्त्र कहता हूँजो अज्ञानियोंके लिये दूषणरूप और ज्ञानचक्षुवालोंके लिये भूषणरूप है ।’
ब्रह्मक्षत्रियवैश्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव प्रधान इति वेदवचनानुरूपं स्मृतिभिरप्युक्तम् । तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं ज्ञानं किं कर्म किं धार्मिक इति ॥
‘ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य और शूद्र‒ये चार वर्ण हैं । उन वर्णोंमें ब्राह्मण मुख्य है, ऐसा वेदोंमें तथा स्मृतियोंमें भी कहा गया है । उस विषयमें यह शंका उत्पन्न होती है कि ब्राह्मण नाम किसका है क्या जीव ब्राह्मण है क्या देह ब्राह्मण है ? क्या जाति ब्राह्मण है ? क्या ज्ञान ब्राह्मण है क्या कर्म ब्राह्मण है ? अथवा क्या धार्मिक व्यक्ति ब्राह्मण है ?’
तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति चेत्तन्न । अतीतानागतानेकदेहानां जीवस्यैकरूपत्वादेकस्यापि कर्मवशादनेकदेहसम्भवात् सर्वशरीराणां जीवस्यैकरूप-त्वाच्च । तस्मान्न जीवो ब्राह्मण इति ॥
‘जीव ब्राह्मण है‒ऐसा नहीं हो सकता । कारण कि पहले हुए और आगे होनेवाले अनेक शरीरोंमें जीव एकरूप ही रहता है । जीव एक होनेपर भी कर्मोंके कारण अनेक शरीरोंको धारण करता हैपरन्तु सब शरीरोंमें जीव एकरूप ही रहता है (इसलिये यदि जीवको ब्राह्मण मानें तो फिर सभी शरीरोंको ब्राह्मण मानना पड़ेगा) ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)     
 ‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो ?’ पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
मुक्तिमें सबका समान अधिकार


(गत ब्लॉगसे आगेका)
विष्णुपुराणमें एक कथा आती है । एक बार अनेक ऋषि मिलकर श्रेष्ठताका निर्णय करनेके लिये वेदव्यासजी महाराजके पास गये । वेदव्यासजीने आदर-सत्कारपूर्वक उन सबको बैठाया और स्वयं गंगामें स्नान करने चले गये । स्नान करते हुए उन्होंने कहा कि ‘कलियुगतुम धन्य हो ! शूद्रों,तुम धन्य हो ! स्त्रियोंतुम धन्य हो !’* जब वे स्नान करके वापिस आयेतब ऋषियोंने उनसे कहा कि महाराज ! आपने कलियुगकोशूद्रोंको और स्त्रियोंको धन्यवाद क्यों दिया ?‒यह हमारी समझमें नहीं आया ! वेदव्यासजीने कहा किकलियुगमें अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेसे शूद्रों और स्त्रियोंका कल्याण जल्दी और सुगमतासे हो जाता हैइसलिये ये तीनों धन्यवादके पात्र हैं ।
जो वर्ण-आश्रममें जितना ऊँचा होता है, उसके लिये धर्म-पालन भी उतना ही कठिन होता है और नीचे गिरनेपर चोट भी उतनी ही अधिक लगती है ! ऊँचा कहलानेके कारण देहाभिमान भी अधिक होता हैअतः कल्याण भी कठिनतासे होता है ‒

नीच नीच सब तर गयेराम भजन लवलीन ।
जातिके अभिमान से,       डूबे सभी कुलीन ॥
जात नहीं जगदीश के,      जन के कैसे होय ।
जात पाँत कुल कीच में,  बंध मरो मत कोय ॥

तात्पर्य यह हुआ कि लौकिक व्यवहार (भोजन,विवाह आदि) में तो जातिकीवर्ण-आश्रमकी ही प्रधानता है,पर भगवत्प्राप्तिमें भाव और विवेककी प्रधानता है । अतः ऊँचे वर्णआश्रम आदिसे संसारमें अधिकार मिल सकता है,पर भगवान्‌को प्राप्त करनेका अधिकार केवल भगवान्‌के सम्बन्धसे ही मिलता है । जैसे सब-के-सब बालक माँकी गोदीमें जानेके समान अधिकारी हैंऐसे ही भगवान्‌का अंश होनेसे सब-के-सब जीव भगवान्‌को प्राप्त होनेके समान अधिकारी हैं । जीव-मात्रका भगवान्‌पर पूरा अधिकार है ।अतः भगवत्प्राप्तिके लिये किसी भी मनुष्यको कभी निराश नहीं होना चाहिये । सब-के-सब मनुष्य परमात्मतत्त्वको,मुक्तिकोतत्त्वज्ञानकोकैवल्यकोभगवत्प्रेमको,भगवद्दर्शनको* प्राप्त कर सकते हैं ।

यहाँ ‘वज्रसूची’ नामक उपनिषद् दी जा रही है । मुक्तिक-उपनिषद्‌में जहाँ एक सौ आठ उपनिषदोंके नाम दिये गये हैंवहाँ इस उपनिषद्‌का भी नाम आया है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)     
 ‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो ?’ पुस्तकसे
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      * भगवान्‌को अपना माननेका सबको अधिकार है । अनन्यभावसे भगवान्‌को अपना माननेसे भगवान्‌में प्रेम हो जाता है ।

 ईशकेनकठप्रश्नमुण्डमाण्डूक्यतित्तिरिः ।
ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यकं तथा ॥
ब्रह्मकैवल्यजाबालश्वेताश्वो हंस आरुणिः ।
गर्भो नारायणो हंसो बिन्दुर्नादशिरः शिखा ॥
मैत्रायणी कौषीतकी बृहज्जाबालतापनी ।
कालाग्रिरुद्रमैत्रेयी सुबालक्षुरिमन्त्रिका ॥
सर्वसारं निरालम्बं रहस्यं वज्रसूचिकम् ।
तेजोनादध्यानविद्यायोगतत्त्वात्मबोधकम् ॥
परिव्राट् त्रिशिखी सीता चूडा निर्वाणमण्डलम् ।
दक्षिणा शरभं स्कन्दं महानारायणाद्वयम् ॥
रहस्यं रामतपनं वासुदेवं च मुद्गलम् ।
शाण्डिल्यं पैङ्गलं भिक्षुमहच्छारीरकं शिखा ॥
तुरीयातीतसंन्यासपरिव्राजाक्षमालिका ।
अव्यक्तैकाक्षरं पूर्णा सूर्याक्ष्यध्यात्मकुण्डिका ॥
सावित्र्यात्मा पाशुपतं परं ब्रह्मावधूतकम् ॥
त्रिपुरातपनं देवी त्रिपुरा कठभावना ।
हृदयं कुण्डली भस्म रुद्राक्षगणदर्शनम् ॥
तारसारमहावाक्यपञ्चब्रह्माग्निहोत्रकम् ।
गोपालतपनं कृष्णं याज्ञवल्क्यं वराहकम् ॥
शाट्यायनी हयग्रीवं दत्तात्रेयं च गारुडम् ।
कलिजाबालिसौभाग्यरहस्यऋचमुक्तिका ॥
एवमष्टोत्तरशतं भावनात्रयनाशनम् ।
ज्ञानवैराग्यदं पुंसां वासनात्रयनाशनम् ॥
                                                                                   (मुक्तिकोपनिषद्)
‘१ ईश२ केन३. कठ४. प्रश्न५. मुण्डक६. माण्डूक्य७. तैत्तिरीय,८. ऐतरेय९. छान्दोग्य१०. बृहदारण्यक११ ब्रह्म१२. कैवल्य१३. जाबाल१४. श्वेताश्वतर१५. हंस१६. आरुणिक१७. गर्भ१८. नारायण१९. परमहंस२०. अमृतबिन्दु२१ अमृतनाद२२ अथर्वशिरस्२३. अथर्वशिखा२४. मैत्रायणी२५. कौषीतकिब्राह्मण,२६. बृहज्जाबाल२७. नृसिंहतापनीय२८. कालाग्निरुद्र२९. मैत्रेयी,३०. सुबाल३१ क्षुरिका३२. मन्त्रिका३३. सर्वसार३४. निरालम्ब,३५. शुकरहस्य३६. वज्रसूचिका३७. तेजोबिन्दु३८. नादबिन्दु३९. ध्यानबिन्दु४० ब्रह्मविद्या४१. योगतत्त्व४२. आत्मप्रबोध४३. नारदपरिव्राजक४४. त्रिशिखिब्राह्मण४५. सीता४६. योगचूड़ामणि,४७. निर्वाण४८. मण्डलब्राह्मण४९. दक्षिणामूर्ति५०. शरभ५१ स्कन्द५२ त्रिपाद्विभूतिमहानारायण५३. अद्वयतारक५४. रामरहस्य,५५. रामतापनीय५६. वासुदेव५७. मुद्गल५८. शाण्डिल्य५९. पैंगल६० भिक्षुक६१ महत्६२. शारीरक६३ योगशिखा६४. तुरीयातीत६५. संन्यास६६. परमहंसपरिव्राजक६७. अक्षमाला६८. अव्यक्त६९. एकाक्षर७०. अन्नपूर्णा७१ सूर्य७२. अक्षि७३ अध्यात्म७४. कुण्डिका७५. सावित्री७६. आत्मा७७. पाशुपत७८. परब्रह्म७९. अवधूत८०. त्रिपुरातापनीय८१. देवी८२. त्रिपुरा,८३. कठरुद्र८४. भावना८५. रुद्रहृदय८६. योगकुण्डली८७. भस्मजाबाल८८. रुद्राक्षजाबाल८९. गणपति९० जाबालदर्शन११. तारसार१२. महावाक्य९३. पहब्रह्म९४. प्राणाग्निहोत्र९५. गोपालतापनीय९६. कृष्ण९७. याज्ञवल्क्य९८. वराह९९. शाट्‌यायनीय१००. हयग्रीव१०१ दत्तात्रेय१०२. गरुड़ १०३. कलिसंतरण१०४. जाबालि१०५. सौभाग्यलक्ष्मी१०६. सरस्वतीरहस्य१०७. बह्वृच१०८. मुक्तिकोपनिषद्‒ये एक सौ आठ उपनिषदें मनुष्यके आधिदैविकआधिभौतिक और आध्यात्मिक‒तीनों तापोंका नाश करती हैं । इनके पाठ और स्वाध्यायसे ज्ञान और वैराग्यकी प्राप्ति होती है तथा लोकवासनाशास्त्रवासना एवं देहवासनारूप त्रिविध वासनाओंका नाश होता है ।’

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