।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण एकादशी, वि.सं. २०७५ रविवार
                        एकादशी-व्रत कल है
शरणागतिका रहस्य
        


प्रभावकी तरफ देखना यह सिद्ध करता है कि हमारेमें कुछ पानेकी कामना है । हमारे मनमें उस कामनावाले पदार्थका आदर है । जबतक हमारेमें कामना है, तबतक हम प्रभावको देखते हैं । अगर हमारे मनमें कोई कामना रहे तो भगवान्‌के प्रभाव, ऐश्वर्यकी तरफ हमारी दृष्टि नहीं जायगी । केवल भगवान्‌की तरफ दृष्टि होगी तो हम भगवान्‌के शरण हो जायँगे, भगवान्‌के अपने हो जायँगे ।

विचार करें, पूतना राक्षसी जहर लगाकर स्तन मुखमें देती है । उसको भगवान्‌ने माताकी गति दे दी[1] जसुमति की गति पाई अर्थात् जो मुक्ति यशोदा मैयाको मिले, वह मुक्ति पूतनाको मिल गयी । जो मुखमें जहर देती है, उसे तो भगवान्‌ने मुक्ति दे दी । अब जो रोजाना दूध पिलाती है, उस मैयाको भगवान् क्या दें ? तो अनन्त जीवोंको मुक्ति देनेवाले भगवान् मैयाके अधीन हो गये, उन्हें अपने-आपको ही दे दिया। मैयाके इतने वशीभूत हो गये कि मैया छड़ी दिखाती है तो वे डरकर रोने लग जाते हैं । कारण कि मैयाकी भगवान्‌के प्रभाव, ऐश्वर्यकी तरफ दृष्टि ही नहीं है । इस प्रकार जो भगवान्‌से मुक्ति चाहते हैं, उन्हें भगवान् मुक्ति दे देते हैं, पर जो कुछ भी नहीं चाहता, उसे भगवान् अपने-आपको ही दे देते हैं ।

सर्वभावसे भगवान्‌की शरण होनेका रहस्य यह है कि हमारा शरीर अच्छा है, इन्द्रियाँ वशमें हैं, मन शुद्ध निर्मल है, बुद्धिसे हम ठीक जानते हैं, हम पढ़े-लिखे हैं, हम यशस्वी हैं, हमारा संसारमें मान है‒इस प्रकार हम भी कुछ हैं ऐसा मानकर भगवान्‌की शरण होना शरणागति नहीं है । भगवान्‌की शरण होनेके बाद शरणागतको ऐसा विचार भी नहीं करना चाहिये कि हमारा शरीर ऐसा होना चाहिये; हमारी बुद्धि ऐसी होनी चाहिये; हमारा मन ऐसा होना चाहिये; हमारा ऐसा ध्यान लगना चाहिये; हमारी ऐसी भावना होनी चाहिये; हमारे जीवनमें ऐसे-ऐसे लक्षण आने चाहिये; हमारे ऐसे आचरण होने चाहिये; हमारेमें ऐसा प्रेम होना चाहिये कि कथा-कीर्तन सुननेपर आँसू बहने लगें, कण्ठ गद्‌गद हो जाय; पर ऐसा हमारे जीवनमें हुआ ही नहीं तो हम भगवान्‌की शरण कैसे हुए ? आदि-आदि । ये बातें अनन्य शरणागतिकी कसौटी नहीं हैं । जो अनन्य शरण हो जाता है, वह यह देखता ही नहीं कि शरीर बीमार है कि स्वस्थ है ? मन चंचल है कि स्थिर है ? बुद्धिमें जानकारी है कि अनजानपना है ? अपनेमें मूर्खता है कि विद्वत्ता है ? योग्यता है कि अयोग्यता है ? आदि । इन सबकी तरफ वह स्वप्नमें भी नहीं देखता; क्योंकि उसकी दृष्टिमें ये सब चीजें कूड़ा-करकट हैं, जिन्हें अपने साथ नहीं लेता है । यदि इन चीजोंकी तरफ देखेगा तो अभिमान ही बढ़ेगा कि मैं भगवान्‌का शरणागत भक्त हूँ अथवा निराश होना पड़ेगा कि मैं भगवान्‌के शरण तो हो गया, पर भक्तोंके गुण (अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहङ्कारः समदु:खसुखः क्षमी ॥ इत्यादि, गीता १२ । १३‒१९) तो मेरेमें आये ही नहीं ! तात्पर्य यह हुआ कि अगर अपनेमें भक्तोंके गुण दिखायी देंगे तो उनका अभिमान हो जायगा और अगर नहीं दिखायी देंगे तो निराशा हो जायगी । इस वास्ते यही अच्छा है कि भगवान्‌की शरण होनेके बाद इन गुणोंकी तरफ भूलकर भी नहीं देखें । इसका यह उलटा अर्थ लगा लें कि हम चाहे वैर-विरोध करें, चाहे द्वेष करें, चाहे ममता करें, चाहे जो कुछ करें ! यह अर्थ बिलकुल नहीं है । तात्पर्य है कि इन गुणोंकी तरफ खयाल ही नहीं होना चाहिये । भगवान्‌के शरण होनेवाले भक्तमें ये सब-के-सब गुण अपने-आप ही आयेंगे, पर इनके आने या आनेसे उसको कोई मतलब नहीं रखना चाहिये। अपनेमें ऐसी कसौटी नहीं लगानी चाहिये कि अपनेमें ये गुण या लक्षण हैं या नहीं ।



[1] अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी । 
      लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम
                                                      (श्रीमद्भा ३। २। २३)

अहो ! इस पापिनी पूतनाने जिसे मार डालनेकी इच्छासे अपने स्तनोंपर लगाया हुआ कालकूट विष पिलाकर भी वह गति प्राप्त की, जो धात्रीको मिलनी चाहिये, उसके अलावा और कौन दयालु है, जिसकी शरणमें जायँ !’
    
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