।। श्रीहरिः ।।

            




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन (अधिक) शुक्ल चतुर्दशी
वि.सं.२०७७, बुधवा
भगवान्‌ हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं 



हमारे और भगवान्‌के बीचमें जो परदा दीखता है, दूरी दीखती है, अलगाव दीखता है, वह वास्तवमें हमारा ही बनाया हुआ है, भगवान्‌का नहीं । कारण कि भगवान्‌ सब जगह और सब समय विद्यमान हैं । इतना ही नहीं, वे हमारे माने हुए मैं-पनसे भी नजदीक विद्यमान है । पतित-से-पतित प्राणीके भीतर ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं । इसलिये साधकको चाहिये कि वह अपने ही भीतर अपने प्रेमास्पदको स्वीकार करके निश्चिन्त हो जाय । जब एक भगवान्‌के सिवाय किसी भी सत्ताकी मान्यता नहीं रहेगी, तब साधक अपनेमें ही अपने प्रेमास्पदको पा लेगा । परन्तु जबतक उसके भीतर ‘मैं शरीर हूँ’‒ऐसी मान्यता रहेगी, तबतक वह संसारके सिवाय कुछ नहीं पायेगा ।

जो अपने प्रेमास्पदको अन्य व्यक्तियों, सन्त-महात्माओं, ग्रन्थों आदिमें देखते हैं, उनको अपने प्रेमास्पदसे वियोगका अनुभव करना ही पड़ता है । परन्तु जो अपनेमें ही अपने प्रेमास्पदको देखते हैं, उनको अपने प्रेमास्पदसे वियोगका दुःख नहीं पाना पड़ता । अपनेसे अलग प्रेमास्पदको कितना ही अपने नजदीक दीखें, उससे वियोग अवश्य ही होगा । परन्तु अपनेसे अभिन्न (अपनेमें ही) अपने प्रेमास्पदको देखनेसे प्रेमास्पदसे नित्य-सम्बन्ध हो जाता है । जबतक साधकके अन्तःकरणमें अन्यकी सत्ता रहती है, तबतक वह अपने प्रेमास्पदसे नित्य-सम्बन्धका अनुभव नहीं करता, प्रत्युत अपने प्रेमास्पदको पानेके लिये संसारमें भटकता रहता है ।

साधकको कभी वास्तविक तत्त्वसे निराश नहीं होना चाहिये । कारण कि साधकमें तत्त्वप्राप्तिकी पूर्ण योग्यता, अधिकार एवं सामर्थ्य है । यह नियम है कि जो सांसारिक सुख भोग सकता है, वह संसारसे विमुख होकर आनन्दका भी अनुभव कर सकता है । जो संसारमें राग-द्वेष कर सकता ही, वह राग-द्वेषका त्याग करके प्रेम भी कर सकता है । जो भोगोंमें लग सकता है, वह भोगोंका त्याग करके योग भी कर सकता है । जिसको ग्रहण करना आता है, वह त्याग भी कर सकता है ।

कामनायुक्त प्राणी किसीसे प्रेम नहीं कर सकता । इसलिये कामनावाला व्यक्ति सच्‍चा आस्तिक नहीं बन सकता । मनुष्य सच्‍चा आस्तिक तभी बनता है, जब उसकी दृष्टिमें एक प्रेमास्पद (भगवान्‌)-के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं रहता । ऐसे सच्‍चे आस्तिकको भगवान्‌की कृपासे प्रेमकी प्राप्ति होती है । यद्यपि भगवान्‌की कृपा सभी प्राणियोंपर समानरूपसे है, तथापि उस कृपाका अनुभव तभी होता है, जब मनुष्य सर्वथा भगवान्‌का ही हो जाता है । भगवान्‌के सिवाय किसी अन्यकी सत्ता स्वीकार न करना ही भगवान्‌का हो जाना है ।

एक भगवान्‌के सिवाय अन्य कोई भी हमारा प्रेमास्पद नहीं है । जब हम परमात्माके सिवाय अन्य किसीसे प्यार करते हैं, तब वह प्यार अपना तथा दूसरोंका संहार करने लगता है । यह प्रेम नहीं, प्रेमोन्माद (मोह) है । अपने देशका प्रेमोन्माद ही अन्य देशका संहार करता है । अपने सम्प्रदायका प्रेमोन्माद ही अन्य सम्प्रदायका संहार करता है । अपनी जातिका प्रेमोन्माद ही अन्य जातिका संहार करता है ।

अगर एक भगवान्‌के सिवाय अन्य सभी इच्छाएँ मिट जायँ तो भगवान्‌ बिना बुलाये आ जायँगे और संसार बिना मिटाये मिट जायगा । उनकी प्राप्तिके लिये भविष्यकी आशा रखना भूल है । दूसरोंकी सेवा करनी  चाहिये । अपने शरीर तथा संसारसे लेशमात्र भी सम्बन्ध न रहे‒यही ‘त्याग’ है और भगवान्‌के सिवाय लेशमात्र भी किसी सत्ताको स्वीकार न करे‒यही प्रेम है ।

जिसके भीतर कामनाएँ हैं, वही प्राणी प्रेम नहीं कर सकता । कारण कि कामनाएँ संसारकी और प्रेम परमात्माका होता है । कामनायुक्त व्यक्ति सांसारिक विषयोंका उपासक होता है और प्रेमयुक्त व्यक्ति भगवान्‌का उपासक होता है । संसारका उपासक परतन्त्र हो जाता है और भगवान्‌का उपासक स्वतन्त्र हो जाता है ।

 

 

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।। श्रीहरिः ।।

           




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन (अधिक) शुक्ल त्रयोदशी
वि.सं.२०७७, मंगलवा
अमृतबिन्दु 



निषिद्ध कर्मोंको करते हुए कोई व्यक्ति साधक नहीं बन सकता ।

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साधक चाहे तो असत्‌से विमुख हो जाय, चाहे सत्‌के सम्मुख हो जाय । दोनोंमें कोई एक काम तो करना ही पड़ेगा, तभी आफत मिटेगी ।

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साधकके लिये ‘मेरेको केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है’‒इस निश्चयकी तथा इसपर दृढ़ अटल रहनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है ।

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साधकको चाहिये कि वह अपनेको कभी भोगी या संसारी व्यक्ति न समझें । उसमें सदा यह जागृति रहनी चाहिये कि ‘मैं साधक हूँ’ ।

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जड़तासे जितना सम्बन्ध-विच्छेद होता जाता है, उतनी ही साधकमें विलक्षणता आती जाती है ।

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साधक उसीको कहते हैं, जो निरन्तर सावधान रहता है ।

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साधकको अपनी स्थिति स्वाभाविक रूपसे परमात्मामें ही माननी चाहिये, जो वास्तवमें है । संसारमें अपनी स्थिति माननेवाला साधक साधनासे गिर जाता है ।

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साधकको विचार करना चाहिये कि अगर मेरे द्वारा किसीको लाभ नहीं हुआ, किसीका हित नहीं हुआ, किसीकी सेवा नहीं हुई तो मैं साधक क्या हुआ ?

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साधकमें साधन और सिद्धिके विषयमें चिन्ता तो नहीं होनी चाहिये, पर भगवत्प्राप्तिके लिये व्याकुलता अवश्य होनी चाहिये । कारण कि चिन्ता भगवान्‌से दूर करनेवाली है और व्याकुलता भगवान्‌की प्राप्ति करानेवाली है ।

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जबतक अपने व्यक्तित्वका भान हो, तबतक साधकको सन्तोष नहीं करना चाहिये ।

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आपसमें मतभेद होना और अपने मतके अनुसार साधन करके जीवन बनाना दोष नहीं है, प्रत्युत दूसरोंका मत बुरा लगना, उनके मतका खण्डन करना, उनसे घृणा करना ही दोष है ।

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जबतक साधकको अपनी स्थितिपर असन्तोष नहीं होता, तबतक उसकी उन्नति नहीं होती ।

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साधकको केवल इतनी सावधानी रखनी है कि उसको जो चीज नाशवान्‌ दीखे, उसके मोहमें न फँसे, उसको महत्त्व न दे । नाशवान्‌ चीजको काममें ले, पर उसकी दासता स्वीकार न करे ।

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साधकको मतवादी न बनकर तत्त्ववादी बनना चाहिये ।

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।। श्रीहरिः ।।

          




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन (अधिक) शुक्ल द्वादशी
वि.सं.२०७७, सोमवा
अमृतबिन्दु 




मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें अपने कर्तव्यका पालन कर सकता है । कर्तव्यका यथार्थ स्वरूप है‒सेवा अर्थात् संसारसे मिले हुए शरीरादि पदार्थोंको संसारके हितमें लगाना ।

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अपने कर्तव्यका पालन करनेवाले मनुष्यके चित्तमें स्वाभाविक प्रसन्नता रहती है । इसके विपरीत अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्यके चित्तमें स्वाभाविक खिन्नता रहती है ।

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साधक आसक्तिरहित तभी हो सकता है, जब वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको ‘मेरी’ अथवा ‘मेरे लिये’ न मानकर, केवल संसारकी और संसारके लिये ही मानकर संसारके हितके लिये तत्परतापूर्वक कर्तव्य-कर्मका आचरण करनेमें लग जाय ।

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वर्तमान समयमें घरोंमें, समाजमें जो अशान्ति, कलह, संघर्ष देखनेमें आ रहा है, उसमें मूल कारण यही है कि लोग अपने अधिकारकी माँग तो करते हैं, पर अपने कर्तव्यका पालन नहीं करते ।

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कोई भी कर्तव्य-कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता । छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा कर्म कर्तव्यमात्र समझकर (सेवाभावसे) करनेपर समान ही है ।

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जिससे दूसरोंका हित होता है, वही कर्तव्य होता है । जिससे किसीका भी अहित होता है, वह अकर्तव्य होता है ।

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राग-द्वेषके कारण ही मनुष्यको कर्तव्य-पालनमें परिश्रम या कठिनाई प्रतीत होती है ।

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जिसे करना चाहिये और जिसे कर सकते हैं, उसका नाम ‘कर्तव्य’ है । कर्तव्यका पालन न करना प्रमाद है, प्रमाद तमोगुण है और तमोगुण नरक है‒‘नरकस्तमउन्नाहः’ (श्रीमद्भागवत ११/१९/४३) ।

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अपने सुखके लिये किये गये कर्म ‘असत्’ और दूसरोंके हितके लिये किये गये कर्म ‘सत्’ होते हैं । असत्-कर्मका परिणाम जन्म-मरणकी प्राप्ति और सत्-कर्मका परिणाम परमात्माकी प्राप्ति है ।

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अच्छे-से-अच्छा कार्य करो, पर संसारको स्थायी मानकर मत करो ।

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जो निष्काम होता है, वही तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन कर सकता है ।

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दूसरोंकी तरफ देखनेवाला कभी कर्तव्यनिष्ठ हो ही नहीं सकता, क्योंकि दूसरोंका कर्तव्य देखना ही अकर्तव्य है ।

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अपने लिये कर्म करनेसे अकर्तव्यकी उत्पत्ति होती है ।

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अपने कर्तव्य (धर्म)-का ठीक पालन करनेसे वैराग्य हो जाता है‒‘धर्म तें बिरति’ (मानस ३/१६/१) । यदि वैराग्य न हो तो समझना चाहिये कि हमने अपने कर्तव्यका ठीक पालन नहीं किया ।

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अपने कर्तव्यका ज्ञान हमारेमें मौजूद है । परन्तु कामना और ममता होनेके कारण हम अपने कर्तव्यका निर्णय नहीं कर पाते ।

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चारों वर्णों और आश्रमोंमें श्रेष्ठ व्यक्ति वही है, जो अपने कर्तव्यका पालन करता है । जो कर्तव्यच्युत होता है, वह छोटा हो जाता है ।

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संसारके सभी सम्बन्ध अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये ही हैं, न कि अधिकार जमानेके लिये । सुख देनेके लिये हैं, न कि सुख लेनेके लिये ।

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एकमात्र अपने कल्याणका उद्देश्य होगा तो शास्त्र पढ़े बिना भी अपने कर्तव्यका ज्ञान हो जायगा । परन्तु अपने कल्याणका उद्देश्य न हो तो शास्त्र पढ़नेपर भी कर्तव्यका ज्ञान नहीं होगा, उल्टे अज्ञान बढ़ेगा कि हम जानते हैं !

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