।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतामें जीवकी गतियाँ



अधोगति

अधोगतिमें दो प्रकारके जीव जाते हैं‒

(१) चौरासी लाख योनियोंमें जानेवाले‒जीव अपने पाप-कर्मोंके अनुसार पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि नीच योनियोंमें जाते हैं और वहाँ निरन्तर उन योनियोंकी यन्त्रणा भोगते हैं (१६ । १९)[*]

(२) नरकोंमें जानेवाले‒जीव अपने पापकर्मोंके अनुसार रौरव, कुम्भीपाक आदि भयकर नरकोंमें जाते हैं और वहाँ उन नरकोंकी भयंकर यन्‍त्रणा भोगते हैं (१६ । १६) ।

मध्यगति[†]

मध्यगतिमें छः प्रकारके जीव आते हैं‒

(१) स्वर्गादि लोकोंसे आये प्राणी‒जो लोग सुखभोगके उद्देश्यसे स्वर्गादि लोकोंमें गये हैं, वे स्वर्गप्रापक पुण्य क्षीण होनेपर इस मध्यलोक (मनुष्यलोक)-में आकर जन्म लेते हैं । ऐसे लोगोंकी प्रवृत्ति (आचरण) प्रायः शुद्ध होती है, इसलिये वे पुनः शुभकर्म करके स्वर्गादि लोकोंमें जाते हैं और फिर नीचे आते हैं, इस तरह वे बार-बार आते-जाते रहते है (९ । २१) ऐसे लोगोंमेंसे किन्हींको संसारसे वैराग्य हो जाता है तो वे तत्त्वज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं और किन्हींकी भगवान्‌में रुचि (प्रियता) हो जाती है तो वे भी संसार-बन्धनसे मुक्त होकर भगवद्‌धाममें चले जाते हैं ।

(२) योगभ्रष्ट‒सांसारिक वासनावाले योगभ्रष्ट मनुष्य स्वर्गादि लोकोंमें जाकर फिर यहाँ शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेते हैं, और सांसारिक वासनासे रहित योगभ्रष्ट मनुष्य स्वर्गादिमें न जाकर सीधे यहाँ योगियोंके कुलमें जन्म लेते हैं । अब जो योगभ्रष्ट मनुष्य श्रीमानोंके घरमें जन्म लेते हैं, वे भोगोंकी सूक्ष्म वासनाके कारण और श्रीमानोंके घरमें भोग-बाहुल्यके कारण भोगोंमें आसक्त हो जाते हैं । आसक्त होनेपर भी उनका पहले मनुष्य-जन्ममें किया हुआ अभ्यास (साधन) उनको पुनः पारमार्थिक मार्गमें खींच लेता है । वे पुनः तत्परतासे यत्‍न करके परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं (६ । ४४-४५) । जो योगभ्रष्ट मनुष्य योगियों (तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्तों)-के घरमें जन्म लेते हैं, उनको वहाँ पारमार्थिक वायुमण्डल, शिक्षा आदि मिलनेसे वे बचपनसे ही साधनमें लग जाते हैं तथा उनको पहले मनुष्यजन्ममें की हुई साधन-सामग्री भी स्वाभाविक प्राप्त हो जाती है, अतः वे पुनः तत्परतासे यत्‍न करके परमात्माको प्राप्त कर लेते हैं (६ । ४३) ।



[*] भगवान्‌ने योगभ्रष्टके लिये कहा कि वे स्वर्गमें बहुत समयतक रहते हैं‒शाश्वतीः समाः’ (६ । ४१) और पाप-कर्म करनेवालोंके लिये कहा कि मैं उनको निरन्तर नीच (आसुरी) योनियोंमें गिराता हूँ अर्थात् वे नीच योनियोंमें निरन्तर रहते हैं‒अजस्रम्’ (१६ । १९) । इसका तात्पर्य यह हुआ कि योगभ्रष्ट तो एक स्थानपर ही बहुत समयतक रहते हैं पर पाप-कर्म करनेवालोंकी नीच योनियाँ बदलती रहती हैं ।

[†] यहाँ मध्यगतिको अन्तमें देनेका तात्पर्य है कि सब गतियोंका कारण मध्यगति ही है, क्योंकि ऊर्ध्वगति और अधोगतिवाले मध्यगतिमें ही आते हैं तथा वे मध्यगतिसे ही ऊर्ध्वगति और अधोगतिमें जाते हैं । यदि यहाँ पहले ही मध्यगतिका वर्णन किया जाता तो (ऊर्ध्वगति और अधोगतिके वर्णनके बिना) उसका स्पष्ट बोध नहीं होता ।


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें जीवकी गतियाँ



जीवानां गतयो बह्व्‌यो गीतया तु त्रिधा मता ।

द्विधोर्ध्वा हि द्विधा चाधो मध्यमैकेति पञ्चधा ॥

भगवान्‌ने गीतामें जीवकी मुख्यरूपसे तीन गतियोंका वर्णन किया है‒उर्ध्वगति, अधोगति और मध्यगति । जैसे‒सत्त्वगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मरनेवाला और सत्त्वगुणमें स्थित रहनेवाला मनुष्य ऊर्ध्वगतिमें जाता है (१४ । १४, १८) । तमोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मरनेवाला और तमोगुणमें स्थित रहनेवाला मनुष्य अधोगतिमें जाता है (१४ । १५, १८) । रजोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मरनेवाला और रजोगुणमें स्थित रहनेवाला मनुष्य मध्यगतिमें जाता है (१४ । १५, १८) । इन तीनों गतियोंका विस्तारसे वर्णन इस प्रकार है‒

ऊर्ध्वगति

ऊर्ध्वगतिमें दो प्रकारके जीव जाते हैं‒

(१) लौटकर न आनेवाले‒(क) जो जीव शुक्लमार्गसे ब्रह्माजीके लोकमें जाते हैं, वे वहाँ रहकर महाप्रलयके समय ब्रह्माजीके साथ ही भगवान्‌में लीन हो जाते हैं अर्थात् मुक्त हो जाते हैं (८ । २४) ।

(ख) जो तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त हो जाते हैं, वे यहाँ ही तत्त्वमें लीन हो जाते हैं, उनके प्राणोंका उत्क्रमण नहीं होता (५ । १९, २४-२६) ।

(ग) जो भगवान्‌के भक्त होते हैं, वे भगवान्‌के परमधाममें चले जाते हैं (८ । २१; १५ । ६) ।

(घ) भगवान्‌ दुष्टोंका नाश करनेके लिये अवतार लेते हैं (४ । ८) । वे दुष्ट जब भगवान्‌के हाथसे मारे जाते हैं, तब वे यहाँ ही भगवान्‌के श्रीविग्रहमें लीन हो जाते हैं; क्योंकि उनके सामने भगवान्‌का ही श्रीविग्रह रहता है और उसीका चिन्तन करते हुए वे मरते हैं । भगवान्‌का यह नियम है कि जो जीव अन्तकालमें मेरेको याद करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह निःसंदेह मेरेको ही प्राप्त हो जाता है ८ । ५) ।

(२) लौटकर आनेवाले‒(क) जो स्वर्गादिका सुख भोगनेके उद्देश्यसे सकाम कर्म करते हैं, वे अपने पुण्योंके फलस्वरूप कृष्ण-मार्गसे स्वर्गादि लोकोंमें जाते हैं और वहाँ अपने-अपने पुण्योंके अनुसार सुख भोगते हैं । पुण्य समाप्त होनेपर वे फिर लौटकर मृत्युलोकमें आते हैं (८ । २५; ९ । २१) ।

(ख) जो परमात्मप्राप्तिके साधनमें लगे हुए हैं, पर जिनकी सांसारिक वासना अभी सर्वथा नहीं मिटी है, वे अन्तसमयमें किसी वासनाके कारण अपने साधनसे विचलित हो जाते हैं तो वे स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें जाते हैं । ऐसे योगभ्रष्ट मनुष्य बहुत लम्बे समयतक स्वर्गादि लोकोंमें रहते हैं । जब वहाँके भोगोंसे उनकी अरुचि हो जाती है, तब वे लौटकर मृत्युलोकमें आते हैं और शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेते हैं (६ । ४१) ।


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें सृष्टि-रचना



(२) सर्ग‒ब्रह्माजीके सोनेपर प्रलय होता है और जागनेपर सर्ग होता है । सर्गके समय ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है । तात्पर्य है कि प्रलयके समय सम्पूर्ण प्राणी अपने-अपने सूक्ष्म और कारण-शरीरोंके सहित ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरमें लीन हो जाते हैं और सर्गके समय पुनः उन सूक्ष्म और कारण-शरीरोंके सहित ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरसे प्रकट हो जाते हैं (८ । १ ८- १९) ।

तीसरे अध्यायके दसवें श्‍लोकमें प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिमें यज्ञ (कर्तव्य-कर्म)-के सहित प्रजाकी रचना की‒ऐसा कहकर सर्गका वर्णन किया गया है ।

[ महासर्गमें तो भगवान्‌ जीवोंका कारण-शरीरके साथ विशेष सम्बन्ध करा देते हैं‒यही भगवान्‌के द्वारा प्राणियोंकी रचना करना है और सर्गमें ब्रह्माजी जीवोंका सूक्ष्मशरीरके साथ विशेष सम्बन्ध करा देते हैं‒यही ब्रह्माजीके द्वारा प्राणियोंकी रचना करना है । ]

(३) सृष्टिचक्रपहले तो ब्रह्माजीकी मानसिक सृष्टि होती है । इसके बाद ब्रह्माजीसे स्थूलरूपमें स्त्री और पुरुषका शरीर उत्पन्न होता है । फिर स्त्री-पुरुषके संयोगसे यह सृष्टि चल पड़ती है, इसका नाम है‒सृष्टिचक्र । इसी बातको गीतामें कहा गया है कि अन्नसे अर्थात् स्त्री-पुरुषके रज-वीर्यसे सब प्राणी पैदा होते है; अन्न वर्षासे पैदा होता है; वर्षा कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञसे होती है; उस कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञकी विधिका विधान वेद और वेदानुकूल शास्त्रोंसे होता है; वेद परमात्मासे प्रकट होते हैं; अतः परमात्मा ही सर्वगत हैं, अर्थात् सबके मूलमें परमात्मा ही विद्यमान हैं (३ । १४- १५) । सृष्टि चाहे भगवान्‌से हो, चाहे ब्रह्माजीसे हो, चाहे अन्न (रज-वीर्य)-से हो अर्थात् चाहे महासर्ग हो, चाहे सर्ग हो, चाहे सृष्टिचक्र हो, सबके मूलमें एक परमात्मा ही रहते है । अतः इन तीनों सृष्टियोंका तात्पर्य सबके मूल परमात्माके सम्मुख होनेमें ही है ।

(४) क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-संयोगजीवोंका अपने-अपने शरीरोंके साथ जो तादात्म्य है, उसको क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका संयोगकहते हैं । इसीको प्रकृति-पुरुषका संयोग, ‘जड़-चेतनका संयोगऔर अपरा-परा प्रकृतिका संयोगभी कहते हैं । जीवोंका स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरोंके साथ जो रागहै, वही संयोग है । इस संयोगके कारण ही जीवोंकी उत्पत्ति होती है, जन्म-मरण होता है (१३ । २१) । तात्पर्य है कि इस संयोग (राग)-से ही जीवोंका महासर्गमें कारणशरीरके साथ, सर्गमें सूक्ष्म-शरीरके साथ और सृष्टिचक्रमें माता-पिताके रजवीर्यके साथ सम्बन्ध हो जाता है ।

जीवोंका शरीरके साथ जो तादात्म्य है, राग है, सम्बन्ध है, उसका वर्णन गीताके सातवें अध्यायके छठे श्‍लोकमें और तेरहवें अध्यायके इक्कीसवें तथा छब्बीसवें श्‍लोकमें किया गया है ।

उपर्युक्त महासर्ग, सर्ग, सृष्टिचक्र और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-संयोगइन चारोंका तात्पर्य यह है कि चाहे महासर्ग हो, चाहे सर्ग हो, चाहे सृष्टिचक्र हो और चाहे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-संयोग हो, इन सबमें परमात्माका जीवोंके साथ और जीवोंका परमात्माके साथ अटूट सम्बन्ध रहता है । केवल शरीरकी परवशताके कारण जीव बार-बार जन्मता-मरता रहता है । यह परवशता भी इसकी खुदकी बनायी हुई है । अगर इस परवशताको छोड़कर जीव परमात्माके सम्मुख हो जाय तो हरेक परिस्थितिमें परमात्माको प्राप्त कर सकता है ।


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
       श्रावण अमावस्या, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें सृष्टि-रचना



सृष्टिश्चतुर्विधा प्रोक्ता त्वादिसंकल्पजा प्रभोः ।

ब्रह्मजा  चान्नजा   तुर्या   क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोगजा ॥

गीतामें सृष्टि-रचनाका वर्णन चार प्रकारसे हुआ है, जो इस तरह है‒

(१) महासर्ग‒ब्रह्माजीकी और सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति महासर्गमे होती है । यह महासर्ग भगवान्‌के संकल्पसे होता है । भगवान्‌का संकल्प क्यों होता है ? महाप्रलयमें सम्पूर्ण जीव अपने-अपने कर्मोंके संस्कारोंके साथ कारणशरीरसहित प्रकृतिमें लीन होते हैं और प्रकृति उन सम्पूर्ण प्राणियोंसहित भगवान्‌में लीन होती है । प्रकृतिमें लीन हुए उन प्राणियोंके कर्म जब परिपक्‍व होकर फल देनेके लिये उन्मुख हो जाते हैं, तब भगवान्‌में बहु स्यां प्रजायेय(तैत्तिरीय २ । ६) मैं अकेला ही बहुत हो जाऊँ‒ऐसा संकल्प होता है । ऐसा संकल्प होते ही भगवान्‌ अपनी प्रकृतिको स्वीकार करके ब्रह्माजीकी,[*] सम्पूर्ण जीवोंके शरीरोंकी और सम्पूर्ण लोकोंकी रचना करते है । परन्तु रचना-रूपसे परिणति तो प्रकृतिमें ही होती है अर्थात् सम्पूर्ण जीवोंके शरीरोंका निर्माण तो प्रकृतिसे ही होता है । इसलिये भगवान्‌ने गीतामें दो बातें कही हैं कि मैं महासर्गमें प्राणियोंके शरीरोंका निर्माण करता हूँ तो प्रकृतिको स्वीकार करके ही करता हूँ (९ । ७-८) और प्रकृति प्राणियोंके शरीरोंका निर्माण करती है तो मेरी अध्यक्षतासे अर्थात् मेरेसे सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही करती है (९ । १०) ।

महासर्गका वर्णन गीतामें दूसरी जगह इस प्रकार आया है‒

चौथे अध्यायके पहले श्‍लोकमें यह अविनाशी योग पहले महासर्गके आदिमें मैंने सूर्यसे कहा था और तीसरे श्‍लोकमें वही यह पुरातन (महासर्गके आदिमें कहा हुआ) योग मैंने आज तुमसे कहा है ऐसा कहकर भगवान्‌ने महासर्गका वर्णन किया है ।

चौथे अध्यायके ही तेरहवें श्‍लोकमें भगवान्‌के द्वारा गुणों और कर्मोंके अनुसार चारों वणोंकी रचनाकी बात आयी है, जो कि महासर्गका समय है ।

आठवें अध्यायके तीसरे श्‍लोकमें विसर्गः कर्मसंज्ञितः’ पदोंमें भगवान्‌के द्वारा सृष्टि-रचनाके लिये संकल्प करनेको विसर्ग’ कहा गया है, जो कि महासर्गका समय है ।

दसवें अध्यायके छठे श्‍लोकमें चार सनकादि, सात महर्षि और चौदह मनु मेरे मनसे उत्पन्न होते हैं, जिनकी संसारमें यह प्रजा है‒ऐसा कहकर महासर्गका वर्णन किया गया है ।

चौदहवें अध्यायके तीसरे-चौथे श्‍लोकोंमें प्रकृतिको बीज धारण करनेका स्थान और अपनेको बीज प्रदान करनेवाला पिता बताकर भगवान्‌ने महासर्गका वर्णन किया है ।

सत्रहवें अध्यायके तेईसवें श्‍लोकमें जिस परमात्माके ॐ, तत् और सत्‒ये तीन नाम है, उसी परमात्माने सृष्टिके आदिमें वेद, ब्राह्मण और यज्ञोंकी रचना की है‒ऐसा कहकर महासर्गका वर्णन किया गया है ।

अठारहवें अध्यायके इकतालीसवें श्‍लोकमें स्वभावसे उत्पन्न हुए गुणोंके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके कर्मोंका विभाग किया गया है‒ऐसा कहकर भगवान्‌ने महासर्गका वर्णन किया है ।



[*] कभी तो भगवान्‌ स्वयं ब्रह्मारूपसे प्रकट होते हैं और कभी जीव अपने पुण्यकर्मोंके कारण ब्रह्मा बन जाता है ।


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