अधोगति अधोगतिमें दो प्रकारके जीव जाते हैं‒ (१) चौरासी लाख योनियोंमें जानेवाले‒जीव अपने पाप-कर्मोंके अनुसार पशु-पक्षी,
कीट-पतंग आदि नीच योनियोंमें जाते हैं और वहाँ निरन्तर उन योनियोंकी
यन्त्रणा भोगते हैं (१६ । १९)[*] । (२) नरकोंमें जानेवाले‒जीव अपने पापकर्मोंके अनुसार रौरव,
कुम्भीपाक आदि भयकर नरकोंमें जाते हैं और वहाँ उन नरकोंकी भयंकर
यन्त्रणा भोगते हैं (१६ । १६) । मध्यगति[†] मध्यगतिमें छः प्रकारके जीव आते हैं‒ (१) स्वर्गादि लोकोंसे आये प्राणी‒जो लोग सुखभोगके उद्देश्यसे स्वर्गादि लोकोंमें गये हैं,
वे स्वर्गप्रापक पुण्य क्षीण होनेपर इस मध्यलोक (मनुष्यलोक)-में
आकर जन्म लेते हैं । ऐसे लोगोंकी प्रवृत्ति (आचरण) प्रायः शुद्ध होती है,
इसलिये वे पुनः शुभकर्म करके स्वर्गादि लोकोंमें जाते हैं और
फिर नीचे आते हैं, इस तरह वे बार-बार आते-जाते रहते है (९ ।
२१) ऐसे लोगोंमेंसे किन्हींको संसारसे वैराग्य हो जाता है तो
वे तत्त्वज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं और किन्हींकी भगवान्में रुचि (प्रियता)
हो जाती है तो वे भी संसार-बन्धनसे मुक्त होकर भगवद्धाममें चले जाते हैं । (२) योगभ्रष्ट‒सांसारिक वासनावाले योगभ्रष्ट मनुष्य स्वर्गादि लोकोंमें जाकर फिर यहाँ शुद्ध श्रीमानोंके
घरमें जन्म लेते हैं, और सांसारिक वासनासे रहित योगभ्रष्ट मनुष्य स्वर्गादिमें न जाकर
सीधे यहाँ योगियोंके कुलमें जन्म लेते हैं । अब जो योगभ्रष्ट मनुष्य श्रीमानोंके घरमें
जन्म लेते हैं, वे भोगोंकी सूक्ष्म वासनाके कारण और श्रीमानोंके घरमें भोग-बाहुल्यके कारण भोगोंमें
आसक्त हो जाते हैं । आसक्त होनेपर भी उनका पहले मनुष्य-जन्ममें किया हुआ अभ्यास (साधन)
उनको पुनः पारमार्थिक मार्गमें खींच लेता है । वे पुनः तत्परतासे यत्न करके परमगतिको
प्राप्त हो जाते हैं (६ । ४४-४५) । जो योगभ्रष्ट मनुष्य योगियों (तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्तों)-के घरमें जन्म लेते हैं, उनको वहाँ पारमार्थिक वायुमण्डल,
शिक्षा आदि मिलनेसे वे बचपनसे ही साधनमें लग जाते हैं तथा उनको
पहले मनुष्यजन्ममें की हुई साधन-सामग्री भी स्वाभाविक प्राप्त हो जाती है,
अतः वे पुनः तत्परतासे यत्न करके परमात्माको प्राप्त कर लेते
हैं (६ । ४३) ।
[*] भगवान्ने योगभ्रष्टके लिये कहा कि वे स्वर्गमें बहुत समयतक
रहते हैं‒‘शाश्वतीः समाः’
(६ । ४१) और पाप-कर्म करनेवालोंके लिये कहा कि मैं उनको निरन्तर नीच
(आसुरी) योनियोंमें गिराता हूँ अर्थात् वे नीच योनियोंमें निरन्तर रहते हैं‒‘अजस्रम्’
(१६ । १९) । इसका तात्पर्य
यह हुआ कि योगभ्रष्ट तो एक स्थानपर ही बहुत समयतक रहते हैं पर पाप-कर्म करनेवालोंकी
नीच योनियाँ बदलती रहती हैं । [†] यहाँ मध्यगतिको अन्तमें देनेका तात्पर्य है कि सब गतियोंका कारण
मध्यगति ही है, क्योंकि ऊर्ध्वगति और अधोगतिवाले मध्यगतिमें ही आते हैं तथा वे मध्यगतिसे ही ऊर्ध्वगति
और अधोगतिमें जाते हैं । यदि यहाँ पहले ही मध्यगतिका वर्णन किया जाता तो (ऊर्ध्वगति
और अधोगतिके वर्णनके बिना) उसका स्पष्ट बोध नहीं होता । |