।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒अब यहाँ यह शंका होती है कि जैसे तुम्हारे लिये दुर्योधन आदि स्वजन हैं, ऐसे ही दुर्योधन आदिके लिये भी तो तुम स्वजन हो । स्वजनकी दृष्‍टिसे तुम तो युद्धसे निवृत्त होनेकी बात सोच रहे हो, पर दुर्योधन आदि युद्धसे निवृत्त होनेकी बात ही नहीं सोच रहे हैं‒इसका क्या कारण है ? इसका उत्तर अर्जुन आगेके दो श्‍लोकोंमें देते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒दुर्योधनादिका युद्धमें प्रवृत्त होनेका और अपना युद्धसे निवृत्त होनेका कारण बताना ।

     यद्यप्येते   न   पश्यन्ति    लोभोपहतचेतसः ।

     कुलक्षयकृतं   दोषं   मित्रद्रोहे   च  पातकम् ॥ ३८ ॥

     कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्‍निवर्तितुम् ।

 कुलक्षयकृतं      दोषं      प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ ३९ ॥

यद्यपि = यद्यपि

कुलक्षयकृतम् = कुलका नाश करनेसे होनेवाले

लोभोपहतचेतसः = लोभके कारण जिनका विवेक-विचार लुप्‍त हो गया है, ऐसे

दोषम् = दोषको

एते = ये (दुर्योधन आदि)

प्रपश्यद्भिः = ठीक-ठीक जाननेवाले

कुलक्षयकृतम् = कुलका नाश करनेसे होनेवाले

अस्माभिः = हम लोग

दोषम् = दोषको

अस्मात् = इस

च = और

पापात् = पापसे

मित्रद्रोहे = मित्रोंके साथ द्वेष करनेसे होनेवाले

निवर्तितुम् = निवृत होनेका

पातकम् = पापको

ज्ञेयम् = विचार

न = नहीं

कथम् = क्यों

पश्यन्ति = देखते, (तो भी)

न = न करें ?

जनार्दन = हे जनार्दन !

 

व्याख्या‘यद्यप्येते न पश्यन्ति..........मित्रद्रोहे च पातकम्’इतना मिल गया, इतना और मिल जाय; फिर ऐसा मिलता ही रहे‒ऐसे धन, जमीन, मकान, आदर, प्रशंसा, पद, अधिकार आदिकी तरफ बढ़ती हुई वृत्तिका नाम लोभ’ है । इस लोभ-वृत्तिके कारण इन दुर्योधनादिकी विवेक-शक्ति लुप्‍त हो गयी है, जिससे वे यह विचार नहीं कर पा रहे हैं कि जिस राज्यके लिये हम इतना बड़ा पाप करने जा रहे हैं, कुटुम्बियोंका नाश करने जा रहे हैं, वह राज्य हमारे साथ कितने दिन रहेगा और हम उसके साथ कितने दिन रहेंगे ? हमारे रहते हुए यह राज्य चला जायगा तो हमारी क्या दशा होगी और राज्यके रहते हुए हमारे शरीर चले जायँगे तो क्या दशा होगी ? क्योंकि मनुष्य संयोगका जितना सुख लेता है, उसके वियोगका उतना दुःख उसे भोगना ही पड़ता है । संयोगमें इतना सुख नहीं होता, जितना वियोगमें दुःख होता है । तात्पर्य है कि अन्तःकरणमें लोभ छा जानेके कारण इनको राज्य-ही-राज्य दीख रहा है । कुलका नाश करनेसे कितना भयंकर पाप होगा, वह इनको दीख ही नहीं रहा है ।

जहाँ लड़ाई होती है, वहाँ समय, सम्पत्ति, शक्तिका नाश हो जाता है । तरह-तरहकी चिन्ताएँ और आपत्तियाँ आ जाती हैं । दो मित्रोंमें भी आपसमें खटपट मच जाती है, मनोमालिन्य हो जाता है । कई तरहका मतभेद हो जाता है । मतभेद होनेसे वैरभाव हो जाता है । जैसे द्रुपद और द्रोण‒दोनों बचपनके मित्र थे । परन्तु राज्य मिलनेसे द्रुपदने एक दिन द्रोणका अपमान करके उस मित्रताको ठुकरा दिया । इससे राजा द्रुपद और द्रोणाचार्यके बीच वैरभाव हो गया । अपने अपमानका बदला लेनेके लिये द्रोणाचार्यने मेरे द्वारा राजा द्रुपदको परास्त कराकर उसका आधा राज्य ले लिया । इसपर द्रुपदने द्रोणाचार्यका नाश करनेके लिये एक यज्ञ कराया, जिससे धृष्‍टद्युम्‍न और द्रौपदी‒दोनों पैदा हुए । इस तरह मित्रोंके साथ वैरभाव होनेसे कितना भयंकर पाप होगा, इस तरफ ये देख ही नहीं रहे हैं !

विशेष बात

अभी हमारे पास जिन वस्तुओंका अभाव है, उन वस्तुओंके बिना भी हमारा काम चल रहा है, हम अच्छी तरहसे जी रहे हैं । परन्तु जब वे वस्तुएँ हमें मिलनेके बाद फिर बिछुड़ जाती हैं, तब उनके अभावका बड़ा दुःख होता है । तात्पर्य है कि पहले वस्तुओंका जो निरन्तर अभाव था, वह इतना दुःखदायी नहीं था, जितना वस्तुओंका संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दुःखदायी है । ऐसा होनेपर भी मनुष्य अपने पास जिन वस्तुओंका अभाव मानता है, उन वस्तुओंको वह लोभके कारण पानेकी चेष्‍टा करता रहता है । विचार किया जाय तो जिन वस्तुओंका अभी अभाव है, बीचमें प्रारब्धानुसार उनकी प्राप्‍ति होनेपर भी अन्तमें उनका अभाव ही रहेगा । अतः हमारी तो वही अवस्था रही, जो कि वस्तुओंके मिलनेसे पहले थी । बीचमें लोभके कारण उन वस्तुओंको पानेके लिये केवल परिश्रम-ही-परिश्रम पल्ले पड़ा, दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ा । बीचमें वस्तुओंके संयोगसे जो थोड़ा-सा सुख हुआ है, वह तो केवल लोभके कारण ही हुआ है । अगर भीतरमें लोभ-रूपी दोष न हो, तो वस्तुओंके संयोगसे सुख हो ही नहीं सकता । ऐसे ही मोहरूपी दोष न हो, तो कुटुम्बियोंसे सुख हो ही नहीं सकता । लालचरूपी दोष न हो, तो संग्रहका सुख हो ही नहीं सकता । तात्पर्य है कि संसारका सुख किसी-न-किसी दोषसे ही होता है । कोई भी दोष न होनेपर संसारसे सुख हो ही नहीं सकता । परन्तु लोभके कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता । यह लोभ उसके विवेक-विचारको लुप्‍त कर देता है ।

कथं न ज्ञेयमस्याभिः.........प्रपश्यद्भिर्जनार्दन’अब अर्जुन अपनी बात कहते हैं कि यद्यपि दुर्योधनादि अपने कुलक्षयसे होनेवाले दोषको और मित्रद्रोहसे होनेवाले पापको नहीं देखते, तो भी हमलोगोंको कुलक्षयसे होनेवाली अनर्थ-परम्पराको देखना ही चाहिये [ जिसका वर्णन अर्जुन आगे चालीसवें श्‍लोकसे चौवालीसवें श्‍लोकतक करेंगे ]; क्योंकि हम कुलक्षयसे होनेवाले दोषोंको भी अच्छी तरहसे जानते हैं और मित्रोंके साथ द्रोह (वैर, द्वेष)-से होनेवाले पापको भी अच्छी तरहसे जानते हैं । अगर वे मित्र हमें दुःख दें, तो वह दुःख हमारे लिये अनिष्‍टकारक नहीं है । कारण कि दुःखसे तो हमारे पूर्वपापोंका ही नाश होगा, हमारी शुद्धि ही होगी । परन्तु हमारे मनमें अगर द्रोह‒वैरभाव होगा, तो वह मरनेके बाद भी हमारे साथ रहेगा और जन्म-जन्मान्तरतक हमें पाप करनेमें प्रेरित करता रहेगा, जिससे हमारा पतन-ही-पतन होगा । ऐसे अनर्थ करनेवाले और मित्रोंके साथ द्रोह पैदा करनेवाले इस युद्धरूपी पापसे बचनेका विचार क्यों नहीं करना चाहिये ? अर्थात् विचार करके हमें इस पापसे जरूर ही बचना चाहिये ।

यहाँ अर्जुनकी दृष्‍टि दुर्योधन आदिके लोभकी तरफ तो जा रही है, पर वे खुद कौटुम्बिक स्‍नेह (मोह)-में आबद्ध होकर बोल रहे हैं‒इस तरफ उनकी दृष्‍टि नहीं जा रही है । इस कारण वे अपने कर्तव्यको नहीं समझ रहे हैं । यह नियम है कि मनुष्यकी दृष्‍टि जबतक दूसरोंके दोषकी तरफ रहती है, तबतक उसको अपना दोष नहीं दीखता, उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारेमें यह दोष नहीं है । ऐसी अवस्थामें वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारेमें भी कोई दूसरा दोष हो सकता है । दूसरा दोष यदि न भी हो, तो भी दूसरोंका दोष देखना‒यह दोष तो है ही । दूसरोंका दोष देखना एवं अपनेमें अच्छाईका अभिमान करना‒ये दोनों दोष साथमें ही रहते हैं । अर्जुनको भी दुर्योधन आदिमें दोष दीख रहे हैं और अपनेमें अच्छाईका अभिमान हो रहा है (अच्छाईके अभिमानकी छायामें मात्र दोष रहते हैं), इसलिये उनको अपनेमें मोहरूपी दोष नहीं दीख रहा है ।

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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒पूर्वश्‍लोकमें अर्जुनने स्वजनोंको न मारनेमें दो हेतु बताये । अब परिणमकी दृष्‍टिसे भी स्वजनोंको न मारना सिद्ध करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒आततायियोंको मारनेसे पापकी प्राप्‍ति बताना ।

     निहत्य धार्तराष्‍ट्रान्‍नः का प्रीतिः स्याज्‍जनार्दन ।

     पापमेवाश्रयेदस्मान्         हत्वैतानाततायिनः ॥ ३६ ॥

जनार्दन = हे जनार्दन ! (इन)

एतान् = इन

धार्तराष्‍ट्रान् = धृतराष्‍ट्र-सम्बन्धियोंको

आततायिनः = आततायियोंको

निहत्य = मारकर

हत्वा = मारनेसे तो

नः = हमलोगोंको

अस्मान् = हमें

का = क्या

पापम् = पाप

प्रीतिः = प्रसन्‍नता

एव = ही

स्यात् = होगी ?

आश्रयेत् = लगेगा ।

व्याख्या‘निहत्य धृार्तराष्‍ट्रान्‍नः...............हत्वैता-नाततायिनः’धृतराष्‍ट्रके पुत्र और उनके सहयोगी दूसरे जितने भी सैनिक हैं, उनको मारकर विजय प्राप्‍त करनेसे हमें क्या प्रसन्‍नता होगी ? अगर हम क्रोध अथवा लोभके वेगमें आकर इनको मार भी दें, तो उनका वेग शान्त होनेपर हमें रोना ही पड़ेगा अर्थात् क्रोध और लोभमें आकर हम क्या अनर्थ कर बैठे‒ऐसा पश्‍चात्ताप ही करना पड़ेगा । कुटुम्बियोंकी याद आनेपर उनका अभाव बार-बार खटकेगा । चित्तमें उनकी मृत्युका शोक सताता रहेगा । ऐसी स्थितिमें हमें कभी प्रसन्‍नता हो सकती है क्या ? तात्पर्य है कि इनको मारनेसे हम इस लोकमें जबतक जीते रहेंगे, तबतक हमारे चित्तमें कभी प्रसन्‍नता नहीं होगी और इनको मारनेसे हमें जो पाप लगेगा, वह परलोकमें हमें भयंकर दुःख देनेवाला होगा ।

आततायी छ: प्रकारके होते हैं‒आग लगानेवाला, विष देनेवाला, हाथमें शस्‍त्र लेकर मारनेको तैयार हुआ, धनको हरनेवाला, जमीन (राज्य) छीननेवाला और स्‍त्रीका हरण करनेवाला

१.अग्‍निदो गरदश्‍चैव शस्‍त्रपाणिर्धनापह: ।

    क्षेत्रदारापहर्ता च षडेते  ह्याततायिनः ॥

(वसिष्‍ठस्मृति ३ । १९)

आग लगानेवाला, विष देनेवाला, हाथमें शस्‍त्र लेकर मारनेको उद्यत हुआ, धनका हरण करनेवाला, जमीन छीननेवाला और स्‍त्रीका हरण करनेवाला‒ये छहों ही आततायी हैं ।’

दुर्योधन आदिमें ये छहों ही लक्षण घटते थे । उन्होंने पाण्डवोंको लाक्षागृहमें आग लगाकर मारना चाहा था । भीमसेनको जहर खिलाकर जलमें फेंक दिया था । हाथमें शस्‍त्र लेकर वे पाण्डवोंको मारनेके लिये तैयार थे ही । द्यूतक्रीडामें छल-कपट करके उन्होंने पाण्डवोंका धन और राज्य हर लिया था । द्रौपदीको भरी सभामें लाकर दुर्योधनने ‘मैंने तेरेको जीत लिया है, तू मेरी दासी हो गयी है’ आदि शब्दोंसे बड़ा अपमान किया था और दुर्योधनादिकी प्रेरणासे जयद्रथ द्रौपदीको हरकर ले गया था ।

शास्‍त्रोंके वचनोंके अनुसार आततायीको मारनेसे मारनेवालेको कुछ भी दोष (पाप) नहीं लगता‒नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्‍चन’ (मनुस्मृति ८ । ३५१) । परन्तु आततायीको मारना उचित होते हुए भी मारनेकी क्रिया अच्छी नहीं है । शास्‍त्र भी कहता है कि मनुष्यको कभी किसीकी हिंसा नहीं करनी चाहिये‒न हिंस्यात्सर्वा भूतानि’; हिंसा न करना परमधर्म है‒अहिंसा परमो धर्मः ।’

२.आततायीको मार दे‒यह अर्थशास्‍त्र है और किसीकी भी हिंसा न करे‒यह धर्मशास्‍त्र है । जिसमें अपना कोई स्वार्थ (मतलब) रहता है, वह अर्थशास्‍त्र’ कहलाता है; और जिसमें अपना कोई स्वार्थ नहीं रहता, वह धर्मशास्‍त्र’ कहलाता है । अर्थशास्‍त्रकी अपेक्षा धर्मशास्‍त्र बलवान् होता है । अतः शास्‍त्रोंमें जहाँ अर्थशास्‍त्र और धर्मशास्‍त्र‒दोनोंमें विरोध आये, वहाँ अर्थशास्‍त्रका त्याग करके धर्मशास्‍त्रको ही ग्रहण करना चाहिये‒

स्मृत्योर्विरोधे न्यायस्तु बलवान्व्यवहारतः ।

अर्थशास्‍त्रात्तु बलवद्धर्मशास्‍त्रमिति स्थितिः ॥

(याज्ञवल्क्‍यस्मृति २ । २१)

अतः क्रोध-लोभके वशीभूत होकर कुटुम्बियोंकी हिंसाका कार्य हम क्यों करें ?

आततायी होनेसे ये दुर्योधन आदि मारनेके लायक हैं ही; परन्तु अपने कुटुम्बी होनेसे इनको मारनेसे हमें पाप ही लगेगा; क्योंकि शास्‍त्रोंमें कहा गया है कि जो अपने कुलका नाश करता है, वह अत्यन्त पापी होता है‒स एव पापिष्‍ठतमो यः कुर्यात्कुलनाशनम् । अतः जो आततायी अपने खास कुटुम्बी हैं, उन्हें कैसे मारा जाय ? उनसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लेना, उनसे अलग हो जाना तो ठीक है, पर उन्हें मारना ठीक नहीं है । जैसे, अपना बेटा ही आततायी हो जाय तो उससे अपना सम्बन्ध हटाया जा सकता है, पर उसे मारा थोड़े ही जा सकता है !

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सम्बन्ध‒पूर्वश्‍लोकमें युद्धका दुष्परिणाम बताकर अब अर्जुन युद्ध करनेका सर्वथा अनौचित्य बताते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒युद्ध करनेका सर्वथा अनौचित्य बताना ।

     तस्मान्‍नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्‍ट्रान्‍स्वबान्धवान् ।

    स्वजनं  हि  कथं  हत्वा  सुखिनः स्याम माधव ॥ ३७ ॥

तस्मात् = इसलिये

माधव = हे माधव !

स्वबान्धवान् = अपने बान्धव (इन)

स्वजनम् = अपने कुटुम्बियोंको

धार्तराष्‍ट्रान् = धृतराष्‍ट्र-सम्बन्धियोंको

हत्वा = मारकर (हम)

हन्तुम् = मारनेके लिये

कथम् = कैसे

वयम् = हम

सुखिनः = सुखी

न अर्हाः = योग्य नहीं हैं;

स्याम = होंगे ?

हि = क्योंकि

 

व्याख्यातस्मान्‍नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्‍ट्रान् स्वबान्धवान्’अभीतक (पहले अध्यायके अट्ठाईसवें श्‍लोकसे लेकर यहाँतक) मैंने कुटुम्बियोंको न मारनेमें जितनी युक्तियाँ, दलीलें दी हैं, जितने विचार प्रकट किये हैं, उनके रहते हुए हम ऐसे अनर्थकारी कार्यमें कैसे प्रवृत हो सकते हैं ? अपने बान्धव इन धृतराष्‍ट्र-सम्बन्धियोंको मारनेका कार्य हमारे लिये सर्वथा ही अयोग्य है, अनुचित है । हम-जैसे अच्छे पुरुष ऐसा अनुचित कार्य कर ही कैसे सकते हैं ?

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव’हे माधव ! इन कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे ही बड़ा दुःख हो रहा है, संताप हो रहा है, तो फिर क्रोध तथा लोभके वशीभूत होकर हम उनको मार दें तो कितना दुःख होगा ! उनको मारकर हम कैसे सुखी होंगे ?

यहाँ ये हमारे घनिष्‍ठ सम्बन्धी हैं’इस ममताजनित मोहके कारण अपने क्षत्रियोचित कर्तव्यकी तरफ अर्जुनकी दृष्‍टि ही नहीं जा रही है । कारण कि जहाँ मोह होता है, वहाँ मनुष्यका विवेक दब जाता है । विवेक दबनेसे मोहकी प्रबलता हो जाती है । मोहके प्रबल होनेसे अपने कर्तव्यका स्पष्‍ट भान नहीं होता ।

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