।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒पूर्वश्‍लोकमें अर्जुनने स्वजनोंको न मारनेमें दो हेतु बताये । अब परिणमकी दृष्‍टिसे भी स्वजनोंको न मारना सिद्ध करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒आततायियोंको मारनेसे पापकी प्राप्‍ति बताना ।

     निहत्य धार्तराष्‍ट्रान्‍नः का प्रीतिः स्याज्‍जनार्दन ।

     पापमेवाश्रयेदस्मान्         हत्वैतानाततायिनः ॥ ३६ ॥

जनार्दन = हे जनार्दन ! (इन)

एतान् = इन

धार्तराष्‍ट्रान् = धृतराष्‍ट्र-सम्बन्धियोंको

आततायिनः = आततायियोंको

निहत्य = मारकर

हत्वा = मारनेसे तो

नः = हमलोगोंको

अस्मान् = हमें

का = क्या

पापम् = पाप

प्रीतिः = प्रसन्‍नता

एव = ही

स्यात् = होगी ?

आश्रयेत् = लगेगा ।

व्याख्या‘निहत्य धृार्तराष्‍ट्रान्‍नः...............हत्वैता-नाततायिनः’धृतराष्‍ट्रके पुत्र और उनके सहयोगी दूसरे जितने भी सैनिक हैं, उनको मारकर विजय प्राप्‍त करनेसे हमें क्या प्रसन्‍नता होगी ? अगर हम क्रोध अथवा लोभके वेगमें आकर इनको मार भी दें, तो उनका वेग शान्त होनेपर हमें रोना ही पड़ेगा अर्थात् क्रोध और लोभमें आकर हम क्या अनर्थ कर बैठे‒ऐसा पश्‍चात्ताप ही करना पड़ेगा । कुटुम्बियोंकी याद आनेपर उनका अभाव बार-बार खटकेगा । चित्तमें उनकी मृत्युका शोक सताता रहेगा । ऐसी स्थितिमें हमें कभी प्रसन्‍नता हो सकती है क्या ? तात्पर्य है कि इनको मारनेसे हम इस लोकमें जबतक जीते रहेंगे, तबतक हमारे चित्तमें कभी प्रसन्‍नता नहीं होगी और इनको मारनेसे हमें जो पाप लगेगा, वह परलोकमें हमें भयंकर दुःख देनेवाला होगा ।

आततायी छ: प्रकारके होते हैं‒आग लगानेवाला, विष देनेवाला, हाथमें शस्‍त्र लेकर मारनेको तैयार हुआ, धनको हरनेवाला, जमीन (राज्य) छीननेवाला और स्‍त्रीका हरण करनेवाला

१.अग्‍निदो गरदश्‍चैव शस्‍त्रपाणिर्धनापह: ।

    क्षेत्रदारापहर्ता च षडेते  ह्याततायिनः ॥

(वसिष्‍ठस्मृति ३ । १९)

आग लगानेवाला, विष देनेवाला, हाथमें शस्‍त्र लेकर मारनेको उद्यत हुआ, धनका हरण करनेवाला, जमीन छीननेवाला और स्‍त्रीका हरण करनेवाला‒ये छहों ही आततायी हैं ।’

दुर्योधन आदिमें ये छहों ही लक्षण घटते थे । उन्होंने पाण्डवोंको लाक्षागृहमें आग लगाकर मारना चाहा था । भीमसेनको जहर खिलाकर जलमें फेंक दिया था । हाथमें शस्‍त्र लेकर वे पाण्डवोंको मारनेके लिये तैयार थे ही । द्यूतक्रीडामें छल-कपट करके उन्होंने पाण्डवोंका धन और राज्य हर लिया था । द्रौपदीको भरी सभामें लाकर दुर्योधनने ‘मैंने तेरेको जीत लिया है, तू मेरी दासी हो गयी है’ आदि शब्दोंसे बड़ा अपमान किया था और दुर्योधनादिकी प्रेरणासे जयद्रथ द्रौपदीको हरकर ले गया था ।

शास्‍त्रोंके वचनोंके अनुसार आततायीको मारनेसे मारनेवालेको कुछ भी दोष (पाप) नहीं लगता‒नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्‍चन’ (मनुस्मृति ८ । ३५१) । परन्तु आततायीको मारना उचित होते हुए भी मारनेकी क्रिया अच्छी नहीं है । शास्‍त्र भी कहता है कि मनुष्यको कभी किसीकी हिंसा नहीं करनी चाहिये‒न हिंस्यात्सर्वा भूतानि’; हिंसा न करना परमधर्म है‒अहिंसा परमो धर्मः ।’

२.आततायीको मार दे‒यह अर्थशास्‍त्र है और किसीकी भी हिंसा न करे‒यह धर्मशास्‍त्र है । जिसमें अपना कोई स्वार्थ (मतलब) रहता है, वह अर्थशास्‍त्र’ कहलाता है; और जिसमें अपना कोई स्वार्थ नहीं रहता, वह धर्मशास्‍त्र’ कहलाता है । अर्थशास्‍त्रकी अपेक्षा धर्मशास्‍त्र बलवान् होता है । अतः शास्‍त्रोंमें जहाँ अर्थशास्‍त्र और धर्मशास्‍त्र‒दोनोंमें विरोध आये, वहाँ अर्थशास्‍त्रका त्याग करके धर्मशास्‍त्रको ही ग्रहण करना चाहिये‒

स्मृत्योर्विरोधे न्यायस्तु बलवान्व्यवहारतः ।

अर्थशास्‍त्रात्तु बलवद्धर्मशास्‍त्रमिति स्थितिः ॥

(याज्ञवल्क्‍यस्मृति २ । २१)

अतः क्रोध-लोभके वशीभूत होकर कुटुम्बियोंकी हिंसाका कार्य हम क्यों करें ?

आततायी होनेसे ये दुर्योधन आदि मारनेके लायक हैं ही; परन्तु अपने कुटुम्बी होनेसे इनको मारनेसे हमें पाप ही लगेगा; क्योंकि शास्‍त्रोंमें कहा गया है कि जो अपने कुलका नाश करता है, वह अत्यन्त पापी होता है‒स एव पापिष्‍ठतमो यः कुर्यात्कुलनाशनम् । अतः जो आततायी अपने खास कुटुम्बी हैं, उन्हें कैसे मारा जाय ? उनसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लेना, उनसे अलग हो जाना तो ठीक है, पर उन्हें मारना ठीक नहीं है । जैसे, अपना बेटा ही आततायी हो जाय तो उससे अपना सम्बन्ध हटाया जा सकता है, पर उसे मारा थोड़े ही जा सकता है !

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सम्बन्ध‒पूर्वश्‍लोकमें युद्धका दुष्परिणाम बताकर अब अर्जुन युद्ध करनेका सर्वथा अनौचित्य बताते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒युद्ध करनेका सर्वथा अनौचित्य बताना ।

     तस्मान्‍नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्‍ट्रान्‍स्वबान्धवान् ।

    स्वजनं  हि  कथं  हत्वा  सुखिनः स्याम माधव ॥ ३७ ॥

तस्मात् = इसलिये

माधव = हे माधव !

स्वबान्धवान् = अपने बान्धव (इन)

स्वजनम् = अपने कुटुम्बियोंको

धार्तराष्‍ट्रान् = धृतराष्‍ट्र-सम्बन्धियोंको

हत्वा = मारकर (हम)

हन्तुम् = मारनेके लिये

कथम् = कैसे

वयम् = हम

सुखिनः = सुखी

न अर्हाः = योग्य नहीं हैं;

स्याम = होंगे ?

हि = क्योंकि

 

व्याख्यातस्मान्‍नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्‍ट्रान् स्वबान्धवान्’अभीतक (पहले अध्यायके अट्ठाईसवें श्‍लोकसे लेकर यहाँतक) मैंने कुटुम्बियोंको न मारनेमें जितनी युक्तियाँ, दलीलें दी हैं, जितने विचार प्रकट किये हैं, उनके रहते हुए हम ऐसे अनर्थकारी कार्यमें कैसे प्रवृत हो सकते हैं ? अपने बान्धव इन धृतराष्‍ट्र-सम्बन्धियोंको मारनेका कार्य हमारे लिये सर्वथा ही अयोग्य है, अनुचित है । हम-जैसे अच्छे पुरुष ऐसा अनुचित कार्य कर ही कैसे सकते हैं ?

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव’हे माधव ! इन कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे ही बड़ा दुःख हो रहा है, संताप हो रहा है, तो फिर क्रोध तथा लोभके वशीभूत होकर हम उनको मार दें तो कितना दुःख होगा ! उनको मारकर हम कैसे सुखी होंगे ?

यहाँ ये हमारे घनिष्‍ठ सम्बन्धी हैं’इस ममताजनित मोहके कारण अपने क्षत्रियोचित कर्तव्यकी तरफ अर्जुनकी दृष्‍टि ही नहीं जा रही है । कारण कि जहाँ मोह होता है, वहाँ मनुष्यका विवेक दब जाता है । विवेक दबनेसे मोहकी प्रबलता हो जाती है । मोहके प्रबल होनेसे अपने कर्तव्यका स्पष्‍ट भान नहीं होता ।

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