।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७७ शुक्रवार
भगवद्भक्तिका रहस्य


(२) इस जीवको संसारके किसी भी उच्‍च-से-उच्‍च पद या पदार्थकी प्राप्ति क्यों न हो जाय, इसकी भूख तबतक नहीं मिटती, जबतक यह अपने परम आत्मीय भगवान्‌को प्राप्त नहीं कर लेता; क्योंकि भगवान्‌ ही ऐसे हैं, जिनसे सब तरहकी पूर्ति हो सकती है । उनके सिवा सभी अपूर्ण हैं । पूर्ण केवल एक वे ही हैं और वे पूर्ण होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति बिना कारण ही प्रेम और कृपा करनेवाले परम सुहृद् हैं, साथ ही वे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् भी हैं । कोई सर्वसुहृद् तो हो पर सब कुछ न जानता हो, वह हमारे दुःखको न जाननेके कारण उसे दूर नहीं कर सकता और यदि सब कुछ जानता हो पर सर्वसमर्थ न हो तो भी असमर्थताके कारण दुःख दूर नहीं कर सकता । एवं सब सब कुछ जानता भी हो और समर्थ भी हो, तब भी यदि सुहृद् न हो तो दुःख देखकर भी उसे दया नहीं आती, जिससे वह हमारा दुःख दूर नहीं कर सकता । इसी प्रकार सुहृद् भी हो अर्थात् दयालु भी हो और समर्थ भी हो, पर हमारे दुःखको न जानता हो, तो भी काम नहीं होता तथा सुहृद् और सर्वज्ञ हो, पर समर्थ न हो तो वह हमारे दुःखको जानकर भी दुःख दूर नहीं कर सकेगा; क्योंकि उसकी दुःखनिवारणकी सामर्थ्य ही नहीं । किन्तु भगवान्‌में उपर्युक्त तीनों बातें एक साथ हैं ।

उन सर्वसुहृद्, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् भगवान्‌पर ही निर्भर होकर जो उनकी भक्ति करता है, वही भक्त है । भगवान्‌की भक्तिके अधिकारी सभी तरहके मनुष्य हो सकते हैं । भगवान्‌ने गीताके नवें अध्यायके ३० वें, ३२ वें और ३३ वें श्लोकमें बतलाया है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री, पापयोनि और दुराचारी–ये सातों ही मेरी भक्तिके अधिकारी हैं ।

अपि चेत् सुदुराचारो    भजते   मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः     सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥
किं पुनर्ब्राह्मणाः  पुण्या   भक्ता  राजर्षयस्तथा ।

‘यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है–अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है ।’

‘हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि–चाण्डालादि जो कोई   भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परम गतिको ही प्राप्त होते हैं ।’

‘फिर इसमें तो कहना ही क्या है कि पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भक्तजन मेरे शरण होकर परम गतिको प्राप्त होते हैं ।’


यहाँ भगवान्‌ने जातिमें सबसे छोटे और आचरणोंमें भी सबसे गिरे हुए–दोनों तरहके मनुष्योंको ही भगवद्भक्तिका अधिकारी बतलाया । यद्यपि विधि-निषेधके अधिकारी मनुष्य ही होते हैं, तो भी ‘पापयोनि’ शब्द तो इतना व्यापक है कि इससे गौणीवृत्तिसे पशु-पक्षी आदि सभी प्राणी लिये जा सकते हैं । अब रहे भावके अधिकारी ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७७ गुरुवार
पुत्रदा एकादशी-व्रत
भगवद्भक्तिका रहस्य


भक्ति  भक्त भगवंत गुरु चतुर नाम बपु एक ।
इनके  पद  बंदन किएँ  नासत  बिघ्न  अनेक ॥

(१) भक्तिका मार्ग बतानेवाले संत ‘गुरु’, (२) भजनीय ‘भगवान्‌’, (३) भजन करनेवाले ‘भक्त’ तथा (४) संतोंके उपदेशके अनुसार भक्तकी भगवदाकार वृत्ति ‘भक्ति’ है । नामसे चार हैं, किन्तु तत्त्वतः एक ही हैं ।

जो साधक दृढ़ता और तत्परताके साथ भगवान्‌के नामका जप और स्वरूपका ध्यानरूप भक्ति करते हुए तेजीसे चलता है, वही भगवान्‌को शीघ्र प्राप्त कर लेता है ।

जो जिव चाहे मुक्तिको तो सुमरीजे राम ।
हरिया  गैलै  चालताँ   जैसे  आवे  गाम ॥

(१) इस भगवद्भक्तिकी प्राप्तिके अनेक साधन बताये गये हैं । उन साधनोंमें मुख्य हैसंत-महात्माओंकी कृपा और उनका संग । रामचरितमानसमें कहा है–

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी ।
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ॥
×     ×     ×
भक्ति तात अनुपम सुख मूला ।
मिलइ जो संत होइ अनुकूला ॥

उन संतोंका मिलन भगवत्कृपासे ही होता है । श्रीगोस्वामीजी कहते हैं

संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही ।
 चितवहिं राम कृपा करि जेही ॥
.......................... । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥
.................................. । सतसंगति संसृति कर अंता ॥

असली भगवत्प्रेमका नाम ही भक्ति है । कहा भी है

पन्नगारि  सुनु  प्रेम  सम    भजन  न  दूसर  आन ।
असि बिचारि पुनि पुनि मुनि करत राम गुन गान ॥

इस प्रकारके प्रेमकी प्राप्ति संतोंके संगसे अनायास ही हो जाती है; क्योंकि संत-महात्माओंके यहाँ परम प्रभु परमेश्वरके गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्यकी कथाएँ होती रहती हैं । उनके यहाँ यही प्रसंग चलता रहता है । भगवान्‌की कथा जीवोंके अनेक जन्मोंसे किये हुए अनन्त पापोंकी राशिका नाश करनेवाली एवं हृदय और कानोंको अतीव आनन्द देनेवाली होती है । जीवको यज्ञ, दान, तप, व्रत, तीर्थ आदि बहुत परिश्रम-साध्य पुण्य-साधनोंके द्वारा भी वह लाभ नहीं होता, जो सत्संगसे अनायास ही हो जाता है; क्योंकि प्रेमी संत-महात्माओंके द्वारा कथित भगवत्कथाके श्रवणसे जीवोंके पापोंका नाश हो जाता है । इससे अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल होकर भगवान्‌के चरणकमलोंमें सहज ही श्रद्धा और प्रीति उत्पन्न हो जाती है । भक्तिका मार्ग बतानेवाले संत-महात्मा ही भक्तिमार्गके गुरु हैं । इनके लक्षणोंका वर्णन करते हुए श्रीमद्भागवतमें कहा है–

कृपालुरकृतद्रोहस्तितिक्षुः           सर्वदेहिनाम् ।
सत्यसारोऽनवद्यात्मा      समः    सर्वोपकारकः ॥
कामैरहतधीर्दान्तो        मृदुः      शुचिरकिञ्चन ।
अनीहो मितभुक् शान्तः स्थिरो मच्छरणो मुनिः ॥
         अप्रमत्तो    गभीरात्मा     धृतिमाञ्जितषड्गुणः ।
अमानी मानदः कल्पो  मैत्रः  कारुणिकः  कविः ॥
                                                                (११/११/२९-३१)

‘भगवान्‌का भक्त कृपालु, सम्पूर्ण प्राणियोंमें वैरभावसे रहित, कष्टोंको प्रसन्नतापूर्वक सहन करनेवाला, सत्यजीवन, पापशून्य, समभाववाला, समस्त जीवोंका सुहृद्, कामनाओंसे कभी आक्रान्त न होनेवाली शुद्ध बुद्धिसे सम्पन्न, संयमी, कोमल-स्वभाव, पवित्र, पदार्थोंमें आसक्ति और ममतासे रहित, व्यर्थ और निषिद्ध चेष्टाओंसे शून्य, हित-मित-मेध्य-भोजी, शान्त, स्थिर, भगवत्परायण, मननशील, प्रमादरहित, गंभीर स्वभाव, धैर्यवान्, काम-क्रोध-लोभ-मोह-मत्सररूप छः विकारोंको जीता हुआ, मानरहित, सबको मान देनेवाला, भगवान्‌के ज्ञान-विज्ञानमें निपुण, सबके साथ मैत्रीभाव रखनेवाला, करुणाशील और तत्त्वज्ञ होता है ।’


ऐसे भगवद्भक्त ही वास्तवमें भक्तिमार्गके प्रदर्शक हो सकते हैं ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७७ बुधवार
शरणागतिका रहस्य


वह जो काला-काला नंग-धड़ंग बालक खड़ा है न ? उससे तुम लुट जाओगे ! वह ऐसा चोर है कि सब खत्म कर देगा । उधर जाना ही मत, पहले ही खयाल रखना । अगर चले गये तो फिर सदाके लिये ही चले गये । इस वास्ते कोई अच्छी तरहसे जीना चाहे तो उधर मत जाय । उसका नाम कृष्ण है न ? कृष्ण कहते हैं खींचनेवालेको । एक बार खींच ले तो फिर छोड़े ही नहीं । उससे पहचान न हो, तबतक तो ठीक है । अगर उससे पहचान हो गयी तो फिर मामला खत्म । फिर किसी कामके नहीं रहोगे, त्रिलोकीभरमें निकम्मे हो जाओगे !

‘नारायण’ बौरी भई डोलै, रही न काहू काम की ॥
जाहि लगन लगी घनस्याम की ।

हाँ, जो किसी कामका नहीं होता, वह सबके लिये सब कामका होता है । परन्तु उसको किसी कामसे कोई मतलब नहीं होता ।

शरणागत भक्तको भजन भी करना नहीं पड़ता । उसके द्वारा स्वतः स्वाभाविक भजन होता है । भगवान्‌का नाम उसे स्वाभाविक ही बड़ा मीठा, प्यारा लगता है । अगर कोई पूछे कि तुम श्वास क्यों लेते हो ? यह हवाको भीतर-बाहर करनेका क्या धंधा शुरू कर रखा है ? तो यही कहेंगे कि भाई ! यह धंधा नहीं है, इसके बिना हम जी ही नहीं सकते । ऐसे ही शरणागत भक्त भजनके बिना रह ही नहीं सकता । जिसको सब कुछ अर्पित कर दिया, उसके विस्मरणमें परम व्याकुलता, महान् छटपटाहट होने लगती है‘तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति’ (नारदभक्तिसूत्र १९) । ऐसे भक्तसे अगर कोई कहे कि आधे क्षणके लिये भगवान्‌को भूल जाओ तो त्रिलोकीका राज्य मिलेगा तो वह इसे भी ठुकरा देगा । भागवतमें आया है

         त्रिभुवनविभवहेतवेऽप्यकुण्ठस्मृति-
                            रजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात् ।
         न चलति भगवत्पदारविन्दा-
                     ल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः
                                                         (११/२/५३)

‘तीनों लोकोंके समस्त ऐश्वर्यके लिये भी उन देवदुर्लभ भगवच्‍चरणकमलोंको जो आधे निमेषके लिये भी नहीं त्याग सकते, वे ही श्रेष्ठ भगवद्भक्त हैं ।’

न पार्मेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा मय्यर्पितात्मेच्छति मद्विनान्यत् ॥

‘भगवान्‌ कहते हैं कि स्वयंको मेरे अर्पित करनेवाला भक्त मुझे छोड़कर ब्रह्माका पद, सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य, पातालादि लोकोंका राज्य, योगकी समस्त सिद्धियाँ और मोक्षको भी नहीं चाहता ।’

भरतजी कहते हैं

अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान ।
जनम जनम रति राम       पद यह बरदानु न आन ॥
                                                                  (मानस २/२०४)

नारायण !   नारायण !!   नारायण !!!


—‘शरणागति’ पुस्तकसे

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