।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७७ बुधवार
शरणागतिका रहस्य


वह जो काला-काला नंग-धड़ंग बालक खड़ा है न ? उससे तुम लुट जाओगे ! वह ऐसा चोर है कि सब खत्म कर देगा । उधर जाना ही मत, पहले ही खयाल रखना । अगर चले गये तो फिर सदाके लिये ही चले गये । इस वास्ते कोई अच्छी तरहसे जीना चाहे तो उधर मत जाय । उसका नाम कृष्ण है न ? कृष्ण कहते हैं खींचनेवालेको । एक बार खींच ले तो फिर छोड़े ही नहीं । उससे पहचान न हो, तबतक तो ठीक है । अगर उससे पहचान हो गयी तो फिर मामला खत्म । फिर किसी कामके नहीं रहोगे, त्रिलोकीभरमें निकम्मे हो जाओगे !

‘नारायण’ बौरी भई डोलै, रही न काहू काम की ॥
जाहि लगन लगी घनस्याम की ।

हाँ, जो किसी कामका नहीं होता, वह सबके लिये सब कामका होता है । परन्तु उसको किसी कामसे कोई मतलब नहीं होता ।

शरणागत भक्तको भजन भी करना नहीं पड़ता । उसके द्वारा स्वतः स्वाभाविक भजन होता है । भगवान्‌का नाम उसे स्वाभाविक ही बड़ा मीठा, प्यारा लगता है । अगर कोई पूछे कि तुम श्वास क्यों लेते हो ? यह हवाको भीतर-बाहर करनेका क्या धंधा शुरू कर रखा है ? तो यही कहेंगे कि भाई ! यह धंधा नहीं है, इसके बिना हम जी ही नहीं सकते । ऐसे ही शरणागत भक्त भजनके बिना रह ही नहीं सकता । जिसको सब कुछ अर्पित कर दिया, उसके विस्मरणमें परम व्याकुलता, महान् छटपटाहट होने लगती है‘तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति’ (नारदभक्तिसूत्र १९) । ऐसे भक्तसे अगर कोई कहे कि आधे क्षणके लिये भगवान्‌को भूल जाओ तो त्रिलोकीका राज्य मिलेगा तो वह इसे भी ठुकरा देगा । भागवतमें आया है

         त्रिभुवनविभवहेतवेऽप्यकुण्ठस्मृति-
                            रजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात् ।
         न चलति भगवत्पदारविन्दा-
                     ल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः
                                                         (११/२/५३)

‘तीनों लोकोंके समस्त ऐश्वर्यके लिये भी उन देवदुर्लभ भगवच्‍चरणकमलोंको जो आधे निमेषके लिये भी नहीं त्याग सकते, वे ही श्रेष्ठ भगवद्भक्त हैं ।’

न पार्मेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा मय्यर्पितात्मेच्छति मद्विनान्यत् ॥

‘भगवान्‌ कहते हैं कि स्वयंको मेरे अर्पित करनेवाला भक्त मुझे छोड़कर ब्रह्माका पद, सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य, पातालादि लोकोंका राज्य, योगकी समस्त सिद्धियाँ और मोक्षको भी नहीं चाहता ।’

भरतजी कहते हैं

अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान ।
जनम जनम रति राम       पद यह बरदानु न आन ॥
                                                                  (मानस २/२०४)

नारायण !   नारायण !!   नारायण !!!


—‘शरणागति’ पुस्तकसे