।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७७ मंगलवार
शरणागतिका रहस्य


यशोदा मैया दाऊजीसे कहती हैं‘देख दाऊ ! यह कन्हैया बहुत भोला-भला है, तू इसका खयाल रखा कर कि कहीं यह जंगलमें दूर न चला जाय ।’ दाऊजी कहते हैं‘मैया ! यह कन्हैया बड़ा चंचल है । जंगलमें मेरे साथ चलता है तो चलते-चलते कोई साँपका बिल देखता है तो उसमें हाथ डाल देता है, अब इसे कोई साँप काट ले तो ?’ मैया कहती है‘बेटा ! अभी यह छोटा-सा अबोध बालक है, तू बड़ा है, इस वास्ते तू इसकी निगाह रखा कर ।’ अब दाऊ भैया और सब ग्वाल-बाल कन्हैयाकी निगाह रखते हैं । ग्वाल-बाल और यशोदा मैयासे कोई कहे कि कन्हैया तो सब दुनियाका पालन करता है तो वे यही कहेंगे कि तुम्हारा ऐसा भगवान्‌ होगा जो दुनियाका पालन करता होगा । हमारा तो ऐसा नहीं है । हमारा छोटा-सा कन्हैया क्या पालन करेगा ?

एक बाबाजीकी गोपियोंसे बात चली । वे बाबाजी बात करते-करते कहने लगे कि कृष्ण इतने ऐश्वर्यशाली हैं, उनका इतना माधुर्य है, उनके पास ऐश्वर्यका इतना खजाना है आदि, तो गोपियाँ कहने लगीं‘महाराज ! उस खजानेकी चाबी तो हमारे पास है ! कन्हैयाके पास क्या है ? उसके पास तो कुछ भी नहीं है । कोई उससे माँगेगा तो वह कहाँसे देगा ?’ इस वास्ते किसीको कुछ चाहिये तो कन्हैयाके पास न जाये । कन्हैयाके पास, उसकी शरणमें तो वही जाये, जिसको  कभी कुछ भी नहीं चाहिये । अर्थात् विपत्ति, मौत आदिकी अवस्थामें भी ‘मेरी थोड़ी सहायता कर दो, रक्षा कर दो’ ऐसा भाव नहीं हो ।

भगवान्‌ श्रीरामसे वाल्मीकिजीकहते हैं

जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहु  निरंतर  तासु  मन   सो  राउर  निज  गेहु ॥
                                                   (मानस २/१३१)

कुछ भी चाहनेका भाव न होनेसे भगवान्‌ स्वाभाविक ही प्यारे लगते हैं, मीठे लगते हैं‘तुम्ह सन सहज सनेहु’ जिसमें चाह नहीं है, वह भगवान्‌का खास घर है‘सो राउर निज गेहु ।’ यदि चाहना भी साथमें रखें और भगवान्‌को भी साथमें रखें तो वह भगवान्‌का खास घर नहीं है । भगवान्‌के साथ ‘सहज’ स्नेह हो, स्नेहमें कोई मिलावट न हो अर्थात् कुछ भी चाहना न हो । जहाँ कुछ भी चाहना हो जाय, वहाँ प्रेम कैसा ? वहाँ तो आसक्ति, वासना, मोह, ममता ही होते हैं । इस वास्ते गोपियाँ सावधान करती हुई कहती हैं

        मा यात पान्थाः पथि भीमरथ्या
                     दिगम्बरः कोऽपि तमालनीलः ।
        विन्यस्तहस्तोऽपि नितम्बविम्बे
                      धूतः  समाकर्षति चित्तवित्तम् ॥


‘अरे पथिको ! उस गलीसे मत जाना, वह बड़ी भयावनी है ! वहाँ अपने नितम्बविम्बपर दोनों हाथ रखे जो तमालके समान नीले रंगका एक नंग-धड़ंग बालक खड़ा है, वह केवल देखनेमात्रका अवधूत है । वास्तवमें तो वह अपने पासमेंसे होकर निकलनेवाले किसी भी पथिकके चित्तरूपी धनको लूटे बिना नहीं रहता ।’