।। श्रीहरिः ।।

                        


आजकी शुभ तिथि–
       वैशाख कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७८ शुक्रवार
          सब कुछ परमात्माका है


गीतामें भगवान्‌ने कहा है‒

भूमिरापोऽनलो वायु  खं मनो बुद्धिरेव च ।

अहंकार  इतीयं मे    भिन्ना  प्रकृतिरष्टधा ॥

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।

जीवभूतां  महाबाहो  ययेदं  धार्यते जगत्‌ ॥

(७/४-५)

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाशये पंचमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकारयह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी अपरा प्रकृति है । हे महाबाहो ! इस अपरा प्रकृतिसे भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी परा प्रकृतिको जान, जिसके द्वारा यह जगत्‌ धारण किया जाता है ।

सृष्टिमात्रमें इन आठ चीजोंके सिवाय कुछ नहीं है । ये आठों परमात्माकी प्रकृति (स्वभाव) होनेसे परमात्माका ही स्वरूप हैं । पंचमहाभूतोंसे बना हुआ शरीर और मन, बुद्धि तथा अहंकार भी भगवान्‌के ही हुए । इनको हम अपना मान लेते हैं‒यही गलती है । जीव भी परमात्माकी प्रकृति होनेसे परमात्माका ही स्वरूप हुआ । आप विचार करें, आठ प्रकारकी अपरा प्रकृति, जीव और परमात्मा‒इन दसके सिवाय और क्या है ? सब कुछ परमात्मा ही हुए‒‘सब जग ईश्वररूप है’, ‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७/१९) ।

शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि सब-के-सब परमात्माके हैं । इनको अपना मानकर ही हम बन्धनमें पड़े हैं । इनको अपना मत मानो तो आपको बन्धन बिलकुल नहीं होगा । आप मनको सर्वथा भगवान्‌का ही मान लो तो मनके विकार आपको नहीं लगेंगे । मनके सुख-दुःख आपको नहीं लगेंगे । जब सब कुछ भगवान्‌का ही है, आपका कुछ है ही नहीं, फिर आपका किससे क्या लेना-देना ? आपका काम यही है कि भगवान्‌की प्रकृतिको अपना मत मानो । मनको अपना मत मानो, बुद्धिको अपना मत मानो, अहंकारको अपना मत मानो । यह काम आप चाहे अभी करो, चाहे वर्षोंके बाद अथवा जन्मोंके बाद करो ! इन वस्तुओंको अपना मानते ही आपपर आफत आयेगी ! नहीं तो कुत्तेके मनका विकार आपको लगता है क्या ? मनको अपना मानते ही विकार लगता है । इतनी ही बात आपको समझनी है ! मैं आपको यही बात कहना चाहता हूँ कि सम्पूर्ण जगत्‌ परमात्माका स्वरूप है । इसलिये शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकारको आप अपना मत मानो । इनको भगवान्‌को अर्पित करनेमें क्या बाधा है ? किंचिन्मात्र भी बाधा नहीं है; क्योंकि सब वस्तुएँ हैं ही भगवान्‌की । उनको अपना मानना ही गलती है, जिसके फलस्वरूप पाप-पुण्य तथा जन्म-मरण होते हैं । उनको अपना मत मानो तो कोई बन्धन नहीं रहेगा, कल्याण हो जायगा ।

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।। श्रीहरिः ।।

                       


आजकी शुभ तिथि–
       वैशाख कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७८ गुरुवार
   करनेमें सावधानी, होनेमें प्रसन्नता


इस वास्ते अर्जुनने पूछा‒‘अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः । अनिच्छन्नपि....’ न चाहता हुआ भी पुरुष पापका आचरण क्यों करता है ? तो भगवान्‌ने उत्तर दिया‒ ‘काम एष’‒यह जो कामना है कि यह मिलना चाहिये, यह नहीं मिलना चाहिये, यह होना चाहिये, यह नहीं होना चाहिये‒यह सम्पूर्ण पापोंकी, अनर्थोंकी जड़ है । यह भी कामना है कि कामिनी, कंचन, कीर्ति मिले । परन्तु कामनाका मूल है कि मेरे मनके अनुकूल बात हो जाय और मेरे मनके प्रतिकूल न हो ।

जबतक कामना रहेगी, तबतक मनुष्य परतन्त्र रहेगा, परवश रहेगा । और इस कामनाके रखने-मिटानेमें हम बिलकुल स्वतन्त्र हैं ।

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।

तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥

(गीता ३/३४)

इन्द्रियोंमें राग-द्वेष छिपे हैं, उन दोनोंके वशमें न होवे । यदि राग-द्वेषके कहनेमें चलेगा तो राग-द्वेषको पुष्टि मिलेगी परन्तु राग-द्वेषके वशीभूत न होनेसे राग-द्वेष मिट जायँगे । अतः राग-द्वेषके वशीभूत न होनेकी बात बतायी । तो राग-द्वेषको मिटाकर यन्त्रको शुद्ध कर लो ।

और एक दूसरा उपाय बताया‒‘तमेव शरणं गच्छ’‒कि जो ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंको घुमाता है, उसकी शरण जा । शरण जानेपर क्या होगा ? भगवान्‌ कहते हैं‒

मन्मना भव मद्‌भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।

मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥

(गीता १८/६५)

ऐसे भगवान्‌की शरण होनेपर सब कुछ ठीक हो जायगा और भगवान्‌को ही प्राप्त होगा । अतः उपाय हुआ कि चाहे तो राग-द्वेषको मिटाकर यन्त्रको शुद्ध कर लो या भगवान्‌की शरण हो जाओ ।

अतः जीव जबतक कर्तृत्व-अभिमानपूर्वक अपने मनके अनुसार कार्य करेगा तो उसका फल उसे भोगना पड़ेगा और दुःख पाना पड़ेगा ।

इस वास्ते यह सोचना है कि हम जो करते हैं ईश्वर-प्रेरणासे करते हैं, गलत है । हम जैसा कर्म करते हैं, हमें उसके अनुसार फल भोगना पड़ेगा । यह भगवान्‌का विधान है कि ऐसा करोगे तो ऐसा फल होगा । अतः करनेमें सदा सावधान रहें और जो होता है, उसमें प्रसन्न रहें कि सब हमारे प्रभुके विधानके अनुसार होता है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

                      


आजकी शुभ तिथि–
       वैशाख कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७८ बुधवार
   करनेमें सावधानी, होनेमें प्रसन्नता


तो आपका प्रश्न था‒

ईश्वरः सर्वभूतानां     हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥

(गीता १८/६१)

सबके हृदयमें ईश्वर विराजमान है और गाड़ीके ड्राइवरकी तरह सम्पूर्ण प्राणियोंको वही घुमा रहा है । अर्थात्‌ मनुष्य स्वयं कुछ नहीं करता, सम्पूर्ण प्राणियोंके द्वारा क्रिया करनेमें भगवान्‌का हाथ है ।

तो भगवान्‌का हाथ कितना है ? कि ‘यन्त्रारूढानि मायया’‒अर्थात्‌ भगवान्‌ अपनी मायासे मनुष्योंके कर्मोंके अनुसार उनके यन्त्रको प्रेरित करते हैं । स्फुरणा देते हैं । भगवान्‌ मनुष्यके संचित व प्रारब्ध कर्मोंके अनुसार क्रिया करनेकी प्रेरणा करते हैं । ईश्वर केवल स्फुरणा देते हैं‒

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।

न कर्मफलसंयोगं     स्वभावस्तु    प्रवर्तते ॥

(गीता ५/१४)

भगवान्‌ ‘यह काम तुम करो’, ‘इस काममें लग जाओ’‒ऐसी प्ररणा नहीं करते । और यह फल तुम्हें भोगना पड़ेगा, न ही ऐसी प्रेरणा करते हैं । और तुम कर्ता बन जाओ, यह प्रेरणा भी भगवान्‌ नहीं करते ।

भगवान्‌ क्या करते हैं ? भगवान्‌ केवल स्फुरणा करते हैं, जिससे सब क्रियाएँ होती हैं । जैसे बिजलीका दृष्टान्त है कि बिजलीका माइकके साथ सम्बन्ध कर दिया तो आवाज फैलने लगी । हीटरके साथ सम्बन्ध कर दिया तो गर्मी हो गयी, और बर्फकी मशीनके साथ सम्बन्ध कर दिया तो बर्फ जम गयी । बिजली यन्त्रोंको प्रेरणा देती है; परन्तु अमुक यन्त्रसे अमुक काम करा लूँ, बिजलीका आग्रह नहीं । बिजली निरपेक्ष रहती है, उसकी सत्ता-स्फुरणासे सब क्रियाएँ होती हैं ।

ऐसे ही भगवान्‌की सत्ता-स्फूर्तिसे मनुष्यकी अपने अन्तःकरणके संस्कारोंके अनुसार, स्वभावके अनुसार क्रियाएँ होती हैं । उसके स्वभावमें कर्तृत्व-अभिमान तथा फलासक्ति मुख्य हैं । यह कर्तृत्व-अभिमान और फलासक्ति मनुष्य रखे, न रखे, इसमें वह स्वतन्त्र है । कामना रखने, न रखनेमें, राग-द्वेष रखने और न रखने (अर्थात्‌ मिटाने)-में मनुष्य स्वतन्त्र है । परन्तु जब यह कर्तृत्व-अभिमान, फलासक्ति, कामना, राग-द्वेष आदि रखता है तो यह उनमें यन्त्रारूढ हो जाता है तो करनेमें परतन्त्र हो जाता है ।

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