(गत ब्लॉगसे आगेका)
मनुष्यको अपनी सीमा,
मर्यादामें रहना चाहिये । अगर जनसंख्या-नियन्त्रणका काम मनुष्य
अपने हाथमें लेगा तो इससे प्रकृति कुपित होगी,
जिसका नतीजा बड़ा भयंकर होगा ! मनुष्यपर केवल अपने कर्तव्यका
पालन करनेकी, दूसरोंकी सेवा करनेकी,
भगवान्का स्मरण करनेकी,
भोगोंका त्याग करनेकी,
संयम करनेकी जिम्मेवारी है । भोगोंका त्याग और संयम मनुष्य ही
कर सकता है । अगर सन्तानकी इच्छा न हो तो संयम रखना चाहिये । हल तो चलाये,
पर बीज डाले ही नहीं‒यह बुद्धिमानीका काम नहीं है । पशु भी स्वतः
मर्यादा, संयममें रहते हैं; जैसे‒गधा श्रावण मासमें,
कुत्ता कार्तिक मासमें,
बिल्ली माघ मासमें ही ब्रह्मचर्य-भंग करते हैं,
बाकी समय वे संयमसे रहते हैं । मनुष्य अगर चाहे तो सदा संयमसे
रह सकता है । एक सत्संगी बहनकी दो सन्ताने हैं । मैंने उससे पूछा कि तुमने कृत्रिम
उपायोंसे सन्तति-निरोध तो नहीं किया ? वह बोली कि जब आप इनका निषेध करते हैं तो फिर यह काम हम क्यों
करें ? आप संयमकी बात कहते हैं,
इसलिये हम संयमसे रहते हैं । इस प्रकार और भी न जाने कितने स्त्री-पुरुष
संयमसे रहते होंगे ! संयम रखनेसे शारीरिक,
पारमार्थिक सब तरहकी उन्नति होती है । ज्यादा रोग असंयमसे ही
पैदा होते हैं । संयमसे स्वास्थ्य ठीक रहता है और उम्र बढ़ती है ।
हमारे देशमें सदासे संयमकी प्रधानता रही है । ब्रह्मचर्य,
गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास‒चारों आश्रमोंमें केवल गृहस्थाश्रममें
ही सन्तानोत्पत्तिका विधान है, पर संयमकी प्रधानता चारों ही आश्रमोंमें है,
परन्तु सरकार आश्रम-व्यवस्थाको मानती नहीं,
साधुओंका तिरस्कार करती है,
सत्संग, सदाचार, संयमके प्रचारसे परहेज रखती है और कृत्रिम सन्तति-निरोधके उपायोंद्वारा
लोगोंको भोगी, असंयमी बननेकी प्रेरणा करती है !
शासक पिताके समान होता है और प्रजा पुत्रके समान । सरकारका काम
अपने देशके नागरिकोंको पापोंसे बचाकर कर्तव्य-पालनमें,
धर्म-पालनमें लगाना है । परन्तु आज सरकार उलटे लोगोंको पापोंमें
लगा रही है, विभिन्न प्रचार-माध्यमोंसे उनको गर्भपात,
मांस-मछली-अण्डा- भक्षण आदि पाप करनेके लिये प्रेरित कर रही
है ! उनको भय और प्रलोभन देकर गर्भपात; नसबन्दी आदि पाप करनेके लिये बाध्य कर रही है । गर्भपात,
नसबन्दीके इतने केस लाओ तो पुरस्कार देंगे,
नहीं तो नौकरीसे निकाल देंगे,
वेतन नहीं देंगे अर्थात् पाप करो तो पुरस्कार देंगे,
नहीं तो दण्ड देंगे‒यह सरकारकी कितनी अन्यायपूर्ण नीति है !
इतना ही नहीं, सरकारको पापोंसे सन्तोष भी नहीं हो रहा है और वह गर्भपातके,
सन्तति-निरोधके नये-नये उपाय ढूँढ रही है,
पशुओंका वध करनेके लिये नये-नये कसाइखाने खोल रही है । रामायणमें
आया है‒
ईस भजनु सारथी सुजाना
।
बिरति चर्म संतोष कृपाना ॥
(मानस, लंका॰ ८० । ४)
कृपाणकी तीन तरफ धार होती है‒बायें,
दायें और आगे । अंतः वह तीनों तरफसे शत्रुओंका नाश करती है ।
सन्तोषको कृपाण कहनेका तात्पर्य है कि वह काम,
क्रोध और लोभ‒तीनों शत्रुओंका नाश कर देती है[*]
। सरकार सन्तोष न करके,
काम, क्रोध और लोभ‒तीनों शत्रुओंकी वृद्धि कर रही है,
फिर देशमें सुख-शान्ति कैसे होंगे ?
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘देशकी वर्तमान दशा तथा उसका परिणाम’ पुस्तकसे
(मानस, उत्तर॰ ९० । १)
नहिं संतोष त पुनि कछु कहहू । जनि रिस
रोकि दुसह दुख सहहू ॥
(मानस, बाल॰ २७४ । ४)
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा । जिमि लोभहि
सोषइ संतोषा ॥
(मानस, किष्किंधा॰ १६ । २)
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