।। श्रीहरिः ।।



 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण दशमी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
एकादशी-व्रत कल है
सब कुछ भगवान्‌ ही हैं
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’‒इस बातको सीख लेना और अनुभव करना‒इन दोनोंमें क्या भेद है ?
 
        उत्तर‒सीखनेपर मनुष्य ‘सब कुछ परमात्मा ही है’ इस बातको याद कर लेगा, इसका ठीक तरहसे वर्णन कर देगा, इस विषयमें पुस्तक लिख देगा, व्याख्यान दे देगा, पर उसके भीतर जगत्‌की सत्ता रहेगी । अनुभव होनेपर उसकी एक परमात्मतत्त्वमें ही समान स्थिति रहेगी । तात्पर्य है कि सीखनेमें जगत्‌की सत्ता रहती है और अनुभव करनेमें जगत्‌की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत सब समय तथा सब जगह एक परमात्मा ही रहते हैं ।
 
         सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒इसको सीख लेनेपर कभी तो ऐसा दीखेगा कि मैं परमात्माको प्राप्त हूँ और बड़ी शान्ति, बड़ा आनन्द मालूम देगा । परन्तु कभी यह मान्यता ढीली पड़ेगी और जगत्‌की सत्ता सामने आ जायगी, तब ऐसा दीखेगा कि मेरी वैसी स्थिति हुई ही नहीं । कभी-कभी ऐसा मालूम देगा कि जब हम इस बातको नहीं जानते थे, उस समय जैसी शान्ति थी, वैसी भी अब नहीं है और बड़ी हलचल हो रही है ! जगत्‌की सत्ता जितनी दृढ़ होगी, उतनी ही अशान्ति, हलचल, दुःख, सन्ताप पैदा होंगे और जब विचारपूर्वक जगत्‌की सत्ता हटेगी, तब सब कुछ परमात्मा ही हैं‒ऐसा दीखेगा । परन्तु जब ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒ऐसा अनुभव हो जायगा, तब इसमें कभी फर्क नहीं पड़ेगा । कारण कि भगवान्‌में जगत्‌ नहीं है ।
 
         प्रश्न‒‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒यह करणसापेक्ष है या करणनिरपेक्ष ?
 
      उत्तर‒यह करणनिरपेक्ष है । जैसे हम सीढ़ियोंसे छतपर चढ़ते हैं तो ऊपर जाते ही सीढ़ियाँ अपने-आप छूट जाती हैं, ऐसे ही भक्तिमें करण अपने-आप छूट जाता है, उसको छोड़ना नहीं पड़ता । विवेकमार्गका साधक विवेक-विचारपूर्वक सीढ़ियोंको छोड़कर ऊपर चढ़ता है; अतः छोड़नेवाला और छूटनेवाली वस्तुकी सत्ता रहनेसे अहंकार दूरतक साथ रहता है । परन्तु भक्त आरम्भसे ही भगवन्निष्ठ अर्थात्‌ भगवान्‌के परायण (आश्रित) रहता है । इसलिये भक्तिमें करणका भगवान्‌के साथ सम्बन्ध रहता है, जबकि ‘मैं साधन करता हूँ’‒इस प्रकार साधननिष्ठ होनेपर करणके साथ अपना सम्बन्ध रहता है । भक्तिमें साध्य भी भगवान्‌ हैं और साधन भी भगवान्‌का भरोसा है । अतः भक्तमें ‘मैं साधन करता हूँ’‒यह भाव नहीं होता, प्रत्युत यह भाव होता है कि भगवान्‌की कृपासे साधन हो रहा है अर्थात्‌ भगवान्‌ ही साधन करवा रहे हैं, मैं नहीं कर रहा हूँ‒‘करी गोपाल की सब होइ’ । इसलिये भक्तमें कर्तृत्व नहीं रहता । अगर कुछ कर्तृत्व रह भी जाय तो उसको भगवान्‌ नष्ट कर देते हैं *
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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* तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
                                                               (गीता १०/१०-११)

 

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।। श्रीहरिः ।।


 
आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण नवमी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
सब कुछ भगवान्‌ ही हैं
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
ज्ञानमार्गमें साधक असत्‌का त्याग करता है तो अहम्‌ (त्याग करनेवाला) रह सकता है । परन्तु भक्तिमार्गमें भगवान्‌ (प्रापणीय वस्तु) की मुख्यता रहनेसे प्रेम बढ़ जाता है और प्रेम बढ़नेसे अहम्‌ स्वतः छूट जाता है । तात्पर्य है कि ज्ञानमार्गमें अनुभविता (साधक) की मुख्यता रहती है भक्तिमार्गमें अनुभाव्य (भगवान्‌) की मुख्यता रहती है । इसलिये ज्ञानमार्गमें मैंपन बहुत दूरतक साथ रहता है, जबकि भक्तिमार्गमें मैंपन जल्दी मिट जाता है । जैसे, ‘में देखता हूँ’‒इसमें ‘मैं’ (देखनेवाले) की मुख्यता रहती है और ‘वह दीखता है’‒इसमें ‘वह’ (दीखनेवाले) की मुख्यता रहती है । ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒इसमें अनुभव, अनुभवी और अनुभविता तीनों ही नहीं रहते ।
 
         विवेकमार्गमें साधक असत्‌का निषेध करता है । निषेध करनेसे असत्‌की सत्ता बनी रहती है । साधक असत्‌के निषेधपर जितना जोर लगता है, उतनी ही असत्‌की सत्ता दृढ़ होती है । अतः असत्‌का निषेध करना उतना बढ़िया नहीं है, जितना उसकी उपेक्षा करना बढ़िया है । उपेक्षा करनेकी अपेक्षा ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’‒यह भाव और भी बढ़िया है । अतः भक्त न असत्‌को हटाता है, न असत्‌की उपेक्षा करता है, प्रत्युत सत्‌-असत्‌ सब कुछ परमात्मा ही हैं‒‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९/१९)‒ऐसा मान लेता है ।
 
          ज्ञानमार्गमें ‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ ‘गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’‒इसमें इन्द्रियाँ, विषय और क्रिया तीनों हैं, पर ‘वासुदेवः सर्वम्’ ‘सब कुछ वासुदेव ही है’‒इसमें इन्द्रियाँ, विषय (पदार्थ) और क्रिया तीनों ही नहीं है, प्रत्युत केवल भगवान्‌-ही-भगवान्‌ हैं ।
 
         जैसे ज्ञानमार्गमें अत्यन्त वैराग्यकी जरूरत है, ऐसे ही भक्तिमार्गमें दृढ़ मान्यताकी अर्थात्‌ अचल विश्वासकी जरूरत है । जैसे अत्यन्त वैराग्य होनेपर विवेक बोधमें परिणत हो जाता है, ऐसे ही अचल विश्वास होनेपर ‘वासुदेवः सर्वम्’ की मान्यता अनुभवमें परिणत हो जाती है ।
 
           वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो संसारकी मानी हुई सत्ताको हटानेके लिये ही ‘वासुदेवः सर्वम्’ की दृढ़ मान्यता करनेकी आवश्यकता है, अन्यथा ‘वासुदेवः सर्वम्’‒यह मान्यता नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है । मान्यता करनेमें मान्यता करनेवाला (अहम्‌) रहता है, जबकि ‘वासुदेवः सर्वम्’ में मान्यता करनेवाला अथवा अनुभव करनेवाला नहीं है, प्रत्युत वासुदेव ही है । कारण कि जबतक अहम्‌ है अर्थात्‌ मान्यता करनेवला अथवा अनुभव करनेवाला है तबतक संसारकी सत्ता है ।
 
           प्रश्न‒‘वासुदेवः सर्वम्’ का भाव विध्यात्मक साधन है या निषेधात्मक ?
 
        उत्तर‒विधि और निषेधकी बात कर्मयोग और ज्ञानयोगमें है । भक्तियोग कर्मयोग और ज्ञानयोग‒दोनोंसे अतीत है । कारण कि कर्मयोग और ज्ञानयोग तो लौकिक निष्ठाएँ हैं, पर भक्तियोग लौकिक निष्ठा नहीं है* । विधि-निषेध संसारमें हैं, भगवान्‌ संसारसे अतीत हैं । सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒इसमें निषिद्ध वस्तु (असत्‌) की सत्ता ही नहीं है । अतः कर्मयोग और ज्ञानयोगमें निषिद्धका त्याग मुख्य है और भक्तियोगमें विश्वासपूर्वक भगवान्‌का आश्रय लेना मुख्य है । भगवान्‌का आश्रय लेना निषिद्धके त्यागसे भी तेज है । आश्रय लेनेका तात्पर्य है‒‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’ ऐसा दृढ़तासे मानकर ‘मैं’ और ‘मेरा’ दोनोंको भगवान्‌में लीन कर देना ।
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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         *गीतामें आया है‒
लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां     कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
                                                        (३/३)
          कर्मयोग ‘क्षर’ (संसार) को लेकर चलता है और ज्ञानयोग ‘अक्षर’ (जीवात्मा) को लेकर चलता है । क्षर और अक्षर दोनों लोकमें हैं‒‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च’ (गीता १५/१६)। इसलिये कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों लौकिक निष्ठाएँ हैं । परन्तु भक्तियोग परमात्माको लेकर चलता है, जो क्षर और अक्षर दोनोंसे विलक्षण है‒‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः’ (गीता १५/१७) । इसलिये भक्तियोग लौकिक निष्ठा नहीं है ।
 
 


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।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण नवमी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
श्रीकृष्णजन्माष्टमीव्रत (वैष्णव)
सब कुछ भगवान्‌ ही हैं
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
 तात्पर्य है कि जाननेवाले भी भगवान्‌ ही हैं, जाननेमें आनेवाले भी भगवान्‌ ही हैं और जानना भी भगवान्‌ ही हैं अर्थात्‌ सब कुछ भगवान्‌ ही हैं । भगवान्‌के सिवाय कुछ भी नहीं है । भगवान्‌ने भी कहा है‒
मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
                                             (गीता ७/७)
          ‘हे धनञ्जय ! मेरेसे बढ़कर इस जगत्‌का दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी कारण तथा कार्य नहीं है । जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही सम्पूर्ण जगत्‌ मेरेमें ही ओतप्रोत है ।’
 
         तात्पर्य है कि सूत भी भगवान्‌ ही हैं, मणियाँ भी भगवान्‌ ही हैं, माला फेरनेवाले भी भगवान्‌ ही हैं अर्थात्‌ सब कुछ भगवान्‌ ही हैं । प्रह्लादजी भगवान्‌से कहते हैं‒
                                   त्वं वायुरग्निरवनिर्वियदम्बुमात्राः
                                           प्राणेन्दियाणि      हृदयं     चिदनुग्रहश्च ।
                             सर्वं त्वमेव सगुणो विगृणश्च भूमन्
                                          नान्यत् त्वदस्त्यपि मनोवचसा निरुक्तम् ॥
                                                                         (श्रीमद्भा ७/९/४८)
         ‘अनन्त प्रभो ! वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, पञ्चतन्मात्राएँ, प्राण, इन्द्रिय, मन चित्त, अहंकार, सम्पूर्ण जगत्‌ एवं सगुण और निर्गुण‒सब कुछ केवल आप ही हैं । अधिक क्या कहूँ, मन और वाणीके द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है, वह सब आपसे अलग नहीं है ।’
 
       सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒यह भाव विवेकसे भी तेज है । ज्ञानमार्गमें जड़ और चेतन, सत्‌ और असत्‌का विवेक मुख्य होनेसे यह द्वैतमार्ग है; परन्तु भक्तिमार्गमें एक भगवान्‌का ही भाव मुख्य होनेसे यह अद्वैतमार्ग है । ज्ञानयोगके आरम्भमें विवेक है, पर भक्तियोगमें आरम्भसे ही भगवान्‌के साथ सम्बन्ध है । अतः भक्ति ज्ञानसे श्रेष्ठ है ।
 
         ज्ञानयोग उन साधकोंके लिये है, जो अत्यन्त वैराग्यवान् हैं‒‘निर्विण्णानां ज्ञानयोगः’ (श्रीमद्भा ११/२०/७) । जो न अत्यन्त वैराग्यवान् हैं और न अत्यन्त आसक्त हैं, उनके लिये भक्तियोग ही सिद्धि देनेवाला है‒‘न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः’ (श्रीमद्भा ११/२०/८) । ज्ञानयोग विवेक-मार्ग है । जबतक विवेक है, तबतक तत्त्वज्ञान नहीं है, प्रत्युत तत्त्वज्ञानका साधन है । अत्यन्त वैराग्य न होनेसे विवेकमार्गमें असत्‌की सत्ताका भाव रहता है । असत्‌की सत्ताका भाव रहनेसे विवेकप्रधान साधकमें निरन्तर आनन्द नहीं रहता । कारण कि संसार दुःखालय है, इसलिये संसारकी सत्ताका किंचिन्मात्र भी संस्कार रहेगा तो विवेक होते हुए भी दुःख आ जायगा । इस असत्‌की सत्ताके संस्कार भीतर रहनेके कारण ही साधककी यह शिकायत रहती है कि बात तो ठीक समझमें आती है, पर वैसी स्थिति नहीं होती ! उसको कभी तो अपने साधनमें अच्छी स्थिति दीखती है और कभी राग-द्वेष अधिक होनेपर ग्लानि, व्याकुलता होती है कि साधन करते हुए इतने वर्ष बीत गये, पर अभीतक अनुभव नहीं हुआ ! भावमें सत्‌ और असत्‌ दोनों रहनेसे ही ऐसी दुविधा होती है । यदि भावमें एक भगवान्‌ ही रहें‒‘वासुदेवः सर्वम्’ तो ऐसी दुविधा रह ही नहीं सकती ।
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
 
 
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