।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
        वैशाख पूर्णिमा, वि.सं.-२०७५, सोमवार
      बुद्ध-पूर्णिमा, बुद्ध-जयन्ती, श्रीवैशाख स्नान समाप्त
   अनन्तकी ओर     



श्रोतापरमात्मप्राप्ति अथवा मुक्तिका क्या मतलब है ? क्या जीते-जी मुक्ति, भगवान्‌की प्राप्ति, उनके दर्शन हो सकते हैं ? 

स्वामीजीहाँ, हो सकते हैं । मुक्ति अथवा मोक्षका अर्थ हैछूटना । मुक्ति होनेपर मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, दम्भ, पाखण्ड आदि जो संसारके बन्धन हैं, उनसे सर्वथा छूट जाता है । ऐसी मुक्ति जीते-जी, शरीरके रहते-रहते हो सकती है । राम, कृष्ण, विष्णु आदिके दर्शन भी जीते-जी हो सकते हैं । गोस्वामी तुलसीदासजी, सूरदासजी आदि कई सन्तोंको भगवान्‌के दर्शन हुए हैं ।

आप पूछ सकते हैं कि इसमें प्रमाण क्या है ? तो इसका प्रमाण आप सभी हैं । आप सत्संग करते हैं तो सत्संगसे शान्ति मिलती है कि नहीं ? काम-क्रोधादि दोष कम होते हैं कि नहीं ? सत्संग करनेवाले कई भाई-बहनोंसे मेरी बात हुई है, और उन्होंने कहा है कि उनके काम-क्रोधादि दोष कम हुए हैं । पहले जैसे दोष थे, वैसे अब नहीं रहे हैं । सत्संग करनेसे फर्क तो बहुत पड़ा है, पर दोष सर्वथा नष्ट नहीं हुए हैं । जब फर्क पड़ा है तो सर्वथा नष्ट भी हो सकते हैं । कारण कि यह नियम है कि जो चीज घटती है, वह मिटनेवाली होती है । जो मिटनेवाली नहीं होती, वह घटनेवाली भी नहीं होती । सच्‍चे हृदयसे सत्संग करनेवालोंमें काम-क्रोधादि विकार जरूर कम होते ही हैं, यह नियम है । अगर कम नहीं हुए हैं तो असली सत्संग मिला नहीं है अथवा हमने ठीक तरहसे सत्संग किया नहीं है । आप ठीक तरहसे देखें तो आपको अपने जीवनमें परिवर्तन मालूम होगा । अगर सत्संगसे कुछ लाभ नहीं होता तो सब लोग इतने बेसमझ थोड़े ही हैं कि घरका काम-धंधा छोड़कर, यहाँ आकर अपना समय खर्च करें !

आपको विकारोंके अभावका, आने-जानेका तो अनुभव होता है, पर अपने अभावका अनुभव कभी नहीं होता । जैसे, सुषुप्तिमें सबके अभावका और अपने भावका अनुभव सबको होता है । इस प्रकार विचार करनेसे भी सिद्ध होता है कि मुक्ति होती है ।

भगवान्‌के दर्शन किये हुए आदमी भी मिलते हैं । दर्शनोंके विषयमें कई मतभेद हैं । दर्शन सबको बराबर नहीं होते । दर्शन होनेपर भी कइयोंकी वृत्ति हरदम ठीक नहीं रहती, कइयोंकी वृत्ति हरदम ठीक रहती है ।

मनुष्य जीते-जी मुक्त हो सकता है । मरनेके बाद मुक्ति होगीइसका क्या पता ?

श्रोताविकार तो अन्तःकरणके धर्म हैं; अतः ये कैसे शान्त हो सकते हैं ?


स्वामीजीविकार अन्तःकरणके धर्म नहीं हैं । धर्म हरदम रहता है, जबकि विकार आते-जाते रहते हैं । यदि विकार अन्तःकरणके धर्म होते तो जबतक अन्तःकरण रहता, तबतक विकार भी रहते । 

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।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
    वैशाख शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७५, रविवार
                           व्रत-पूर्णिमा
   अनन्तकी ओर     



संसारको असत् माननेसे ही कल्याण होगा‒यह कायदा नहीं है । सिनेमाको असत् माननेपर भी उसमें आसक्ति हो जाती है । सिनेमामें दीखनेवाला सच्‍चा नहीं हैं ‒ऐसा निर्णय पक्‍का है, फिर भी देखनेकी रुचि होती है । अतः अपनी स्वार्थबुद्धि, भोगबुद्धि, आरामबुद्धि बाधक है । संसार सच्‍चा दीखे तो इसका दुःख मत करो । दूसरोंको सुख पहुँचाओ, सेवा करो । हमारे द्वारा भूलमें भी किसीको कष्ट न पहुँचे‒ऐसा उद्देश्य रखो । संसार बाधक नहीं है, उसका सम्बन्ध बाधक है । संसार सच्‍चा हो या झूठा हो, उससे हमें क्या मतलब ?

जो व्याख्यान देते हैं, वे सम्बन्ध जोड़ लेते हैं कि ये हमारे चेला-चेली हैं, हमारे सत्संगी हैं, तो खेती, व्यापार करनेकी तरह व्याख्यान देना भी एक काम हुआ ! जहाँ सम्बन्ध जोड़ा कि बँधे ! हृदयसे अपने सम्बन्धका त्याग होना चाहिये । संसारको झूठा माननेमात्रसे कल्याण नहीं होता । कल्याण संसारके सम्बन्धका त्याग करनेसे होता है । सम्बन्धमें भी सुखबुद्धि बाधक है । संसारका सम्बन्ध केवल सुख पहुँचानेके लिये है, सुख लेनेके लिये नहीं ।

संसारका सम्बन्ध रखते हुए भले ही संसारको झूठा कहते रहो, कोई फायदा नहीं है । जड़तासे कुछ लेना चाहते हैं, यह दोष है; जड़ताका दोष नहीं है । जिसका संयोग और वियोग होता है, जो मिलती और बिछुडती है, वह चीज अपनी नहीं है‒केवल इतना माननेमात्रसे बहुत लाभ होगा । पहलेसे ही पक्‍का विचार कर लें कि जो मिला है, उसका वियोग होगा । वियोगको मुख्य मानें । संसारमात्रमें वियोग ही मुख्य है, संयोग मुख्य नहीं है । जो संयोगका सुख भोगते हैं, उनको वियोगका दुःख भोगना पड़ेगा ही, किसी तरहसे बच नहीं सकते !

संसारका सम्बन्ध पतन करनेवाला और भगवान्‌का सम्बन्ध उद्धार करनेवाला है‒यह छोटी-सी बात है, पर बहुत दामी है ! संसार पतन करनेवाला नहीं है, प्रत्युत उसका सम्बन्ध पतन करनेवाला है । सम्बन्ध सदा रहता है । जिससे हम अपना सम्बन्ध मान लेते हैं, उसको याद न करनेपर भी उसकी याद सदा बनी रहती है ।

नहीं रट्या तो का भया, घट्या न चाहिय हेत ।
जैसे नार सुहागणी,  पिव  को  नाम  न  लेत ॥


इसलिये अपना सम्बन्ध भगवान्‌के साथ रखो । संसारका काम करो, पर सम्बन्ध मत जोड़ो । एक शिवजीका भक्त था । वह वैष्णवोंके यहाँ भोजन करने गया तो उसके माथेपर खड़ा त्रिपुण्ड्र तिलक देखकर उसको उठा दिया, भोजन नहीं करने दिया । शैवोंमें आड़ा त्रिपुण्ड्र और वैष्णवोंमें खड़ा त्रिपुण्ड्र तिलक किया जाता है । उस शिवभक्तने पेटके ऊपर खड़ा त्रिपुण्ड्रका तिलक कर लिया और भोजनके लिये बैठ गया । वह बोला कि मस्तकपर तो हमारे इष्‍टका ही तिलक रहेगा, वह तो हट नहीं सकता, पर भूख लगी है, इसलिये भोजनके लिये पेटपर तिलक कर लिया । पेटको देखो तो हम वैष्णव हैं ! इस प्रकार व्यवहारके लिये तो संसारसे सम्बन्ध मानो, पर भीतरसे अपना सम्बन्ध भगवान्‌से ही रखो ।

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।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
    वैशाख शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७५, शनिवार
श्रीनृसिंह-चतुर्दशी
   अनन्तकी ओर     



सत्संगमें जो रस आता है, उस रसमें भजनको तीव्र बनानेकी विलक्षण शक्ति है । परन्तु ऐसा सत्संग मिलना बड़ा दुर्लभ है ।

तात मिलै पुनि मात मिलै सुत, भ्रात मिलै युवती सुखदाई ।
राज मिलै गज-बाजि मिलै सब, साज मिलै मनवांछित पाई ॥
लोक मिलै सुरलोक मिलै,  बिधिलोक मिलै बैकुंठहु जाई ।
सुन्दर’ और मिलै सब ही सुख, संत समागम दुर्लभ भाई ॥
                                         (सुन्दरविलास २९ । १२)

सन्तोंका संग मिलना बड़ा दुर्लभ है ! असली सन्तोंका संग मिल जाय तो पापी-से-पापीका भी उद्धार हो जाता है ! ऐसे कई उदाहरण भी मिलते हैं ।

श्रोता‒कहते हैं कि अहम्‌की सत्ता नहीं है । जब अहम्‌की सत्ता ही नहीं है तो फिर जन्म-मरण क्यों होता है ?

स्वामीजी‒अहम् और जन्म-मरण दोनों एक ही जातिके हैं । जैसे अहम्‌की सत्ता नहीं है, ऐसे ही जन्म-मरणकी भी सत्ता नहीं है । आपने ही अहम्‌के साथ-साथ जन्म-मरणकी सत्ता मान रखी है । जैसे, स्वप्‍नमें कोई सिर काटे तो जागे बिना वह दुःख दूर नहीं होता । स्वप्‍नमें वह प्रत्यक्षकी तरह ही सच्‍चा मालूम देता है । जागनेपर ही मालूम होता है कि सब झूठ है । ऐसे ही जन्म-मरण एक स्वप्‍न है ।

अहम् चीज एक कल्पना है । आप अहम्‌को मत मानो । मैं हूँ’ऐसा एक मनुष्य है । मनुष्य मानकर मनुष्यके कर्तव्यका पालन करो ।

जिस धातुका अहम् है, उसी धातुका जन्म है, उसी धातुका मरण है । आप अहम्‌, जन्म और मरण‒तीनोंको सच्‍चा मानकर भी साधन कर सकते हैं । यह आग्रह नहीं रहना चाहिये कि इनको असत् मानकर ही हम साधन करें । अगर ये सच्‍चे दीखते हों तो स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंको सुख पहुँचाना, दूसरोंकी सेवा करना शुरू कर दो । जन्म-मरणको झूठा माननेसे ही कल्याण होगा, ऐसी बात नहीं है । यह केवल एक शास्‍त्रकी बात है । जन्म-मरणको सच्‍चा माननेपर भी आपका कल्याण हो जायगा, आप घबराओ मत । संसारको सच्‍चा माननेवालोंके लिये ही कर्मयोग है । अगर दूसरोंके सुखके लिये आपको कष्ट पाना पड़े तो वह कष्ट आपकी तपस्या हो जायगी ।


संसारसे सुख लेनेकी इच्छा ही बाँधनेवाली है । आप संसारको सच्‍चा मानो या झूठा मानो, सुखकी इच्छाका त्याग तो करना ही पड़ेगा । इसका त्याग किये बिना कल्याण नहीं होगा । संसारको सच्‍चा मानते हुए भी यह भाव रखो कि सब सुखी हो जायँ, किसीको किंचिन्मात्र भी दुःख न हो । दूसरेके सुखके लिये दुःखको स्वीकार कर लो । सुखभोगको स्वीकार करना दोषी है ।

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