।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
    वैशाख शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७५, रविवार
                           व्रत-पूर्णिमा
   अनन्तकी ओर     



संसारको असत् माननेसे ही कल्याण होगा‒यह कायदा नहीं है । सिनेमाको असत् माननेपर भी उसमें आसक्ति हो जाती है । सिनेमामें दीखनेवाला सच्‍चा नहीं हैं ‒ऐसा निर्णय पक्‍का है, फिर भी देखनेकी रुचि होती है । अतः अपनी स्वार्थबुद्धि, भोगबुद्धि, आरामबुद्धि बाधक है । संसार सच्‍चा दीखे तो इसका दुःख मत करो । दूसरोंको सुख पहुँचाओ, सेवा करो । हमारे द्वारा भूलमें भी किसीको कष्ट न पहुँचे‒ऐसा उद्देश्य रखो । संसार बाधक नहीं है, उसका सम्बन्ध बाधक है । संसार सच्‍चा हो या झूठा हो, उससे हमें क्या मतलब ?

जो व्याख्यान देते हैं, वे सम्बन्ध जोड़ लेते हैं कि ये हमारे चेला-चेली हैं, हमारे सत्संगी हैं, तो खेती, व्यापार करनेकी तरह व्याख्यान देना भी एक काम हुआ ! जहाँ सम्बन्ध जोड़ा कि बँधे ! हृदयसे अपने सम्बन्धका त्याग होना चाहिये । संसारको झूठा माननेमात्रसे कल्याण नहीं होता । कल्याण संसारके सम्बन्धका त्याग करनेसे होता है । सम्बन्धमें भी सुखबुद्धि बाधक है । संसारका सम्बन्ध केवल सुख पहुँचानेके लिये है, सुख लेनेके लिये नहीं ।

संसारका सम्बन्ध रखते हुए भले ही संसारको झूठा कहते रहो, कोई फायदा नहीं है । जड़तासे कुछ लेना चाहते हैं, यह दोष है; जड़ताका दोष नहीं है । जिसका संयोग और वियोग होता है, जो मिलती और बिछुडती है, वह चीज अपनी नहीं है‒केवल इतना माननेमात्रसे बहुत लाभ होगा । पहलेसे ही पक्‍का विचार कर लें कि जो मिला है, उसका वियोग होगा । वियोगको मुख्य मानें । संसारमात्रमें वियोग ही मुख्य है, संयोग मुख्य नहीं है । जो संयोगका सुख भोगते हैं, उनको वियोगका दुःख भोगना पड़ेगा ही, किसी तरहसे बच नहीं सकते !

संसारका सम्बन्ध पतन करनेवाला और भगवान्‌का सम्बन्ध उद्धार करनेवाला है‒यह छोटी-सी बात है, पर बहुत दामी है ! संसार पतन करनेवाला नहीं है, प्रत्युत उसका सम्बन्ध पतन करनेवाला है । सम्बन्ध सदा रहता है । जिससे हम अपना सम्बन्ध मान लेते हैं, उसको याद न करनेपर भी उसकी याद सदा बनी रहती है ।

नहीं रट्या तो का भया, घट्या न चाहिय हेत ।
जैसे नार सुहागणी,  पिव  को  नाम  न  लेत ॥


इसलिये अपना सम्बन्ध भगवान्‌के साथ रखो । संसारका काम करो, पर सम्बन्ध मत जोड़ो । एक शिवजीका भक्त था । वह वैष्णवोंके यहाँ भोजन करने गया तो उसके माथेपर खड़ा त्रिपुण्ड्र तिलक देखकर उसको उठा दिया, भोजन नहीं करने दिया । शैवोंमें आड़ा त्रिपुण्ड्र और वैष्णवोंमें खड़ा त्रिपुण्ड्र तिलक किया जाता है । उस शिवभक्तने पेटके ऊपर खड़ा त्रिपुण्ड्रका तिलक कर लिया और भोजनके लिये बैठ गया । वह बोला कि मस्तकपर तो हमारे इष्‍टका ही तिलक रहेगा, वह तो हट नहीं सकता, पर भूख लगी है, इसलिये भोजनके लिये पेटपर तिलक कर लिया । पेटको देखो तो हम वैष्णव हैं ! इस प्रकार व्यवहारके लिये तो संसारसे सम्बन्ध मानो, पर भीतरसे अपना सम्बन्ध भगवान्‌से ही रखो ।