सत्संगमें जो रस आता है,
उस रसमें भजनको तीव्र बनानेकी विलक्षण शक्ति है । परन्तु ऐसा
सत्संग मिलना बड़ा दुर्लभ है ।
तात मिलै पुनि मात मिलै सुत, भ्रात
मिलै युवती सुखदाई ।
राज मिलै गज-बाजि मिलै सब, साज
मिलै मनवांछित पाई ॥
लोक मिलै सुरलोक मिलै, बिधिलोक मिलै बैकुंठहु जाई ।
‘सुन्दर’
और मिलै सब ही सुख, संत
समागम दुर्लभ भाई ॥
(सुन्दरविलास
२९ । १२)
सन्तोंका संग मिलना बड़ा दुर्लभ है ! असली सन्तोंका संग मिल जाय
तो पापी-से-पापीका भी उद्धार हो जाता है ! ऐसे कई उदाहरण भी मिलते हैं ।
श्रोता‒कहते
हैं कि अहम्की सत्ता नहीं है । जब अहम्की सत्ता ही नहीं है तो फिर जन्म-मरण क्यों
होता है ?
स्वामीजी‒अहम् और जन्म-मरण दोनों एक ही जातिके हैं । जैसे अहम्की सत्ता नहीं है,
ऐसे ही जन्म-मरणकी भी सत्ता नहीं है । आपने ही अहम्के साथ-साथ
जन्म-मरणकी सत्ता मान रखी है । जैसे, स्वप्नमें कोई सिर काटे तो जागे बिना वह दुःख दूर नहीं होता
। स्वप्नमें वह प्रत्यक्षकी तरह ही सच्चा मालूम देता है । जागनेपर ही मालूम होता
है कि सब झूठ है । ऐसे ही जन्म-मरण एक स्वप्न है ।
अहम् चीज एक कल्पना है । आप अहम्को मत मानो । ‘मैं
हूँ’‒ऐसा एक मनुष्य है । मनुष्य मानकर मनुष्यके कर्तव्यका
पालन करो ।
जिस धातुका अहम् है,
उसी धातुका जन्म है,
उसी धातुका मरण है । आप अहम्, जन्म और मरण‒तीनोंको सच्चा मानकर
भी साधन कर सकते हैं । यह आग्रह नहीं रहना चाहिये कि इनको असत् मानकर ही हम साधन करें
। अगर ये सच्चे दीखते हों तो स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंको सुख पहुँचाना,
दूसरोंकी सेवा करना शुरू कर दो । जन्म-मरणको
झूठा माननेसे ही कल्याण होगा,
ऐसी बात नहीं है । यह केवल एक शास्त्रकी बात है
। जन्म-मरणको सच्चा माननेपर भी आपका कल्याण हो जायगा, आप
घबराओ मत । संसारको सच्चा माननेवालोंके लिये ही कर्मयोग है । अगर दूसरोंके सुखके लिये आपको कष्ट पाना पड़े तो वह कष्ट आपकी तपस्या हो जायगी
।
संसारसे सुख लेनेकी इच्छा ही बाँधनेवाली है । आप संसारको सच्चा
मानो या झूठा मानो, सुखकी इच्छाका त्याग तो करना ही पड़ेगा । इसका त्याग किये बिना
कल्याण नहीं होगा । संसारको सच्चा मानते हुए भी यह भाव रखो कि सब सुखी हो जायँ, किसीको
किंचिन्मात्र भी दुःख न हो । दूसरेके सुखके लिये दुःखको स्वीकार कर लो । सुखभोगको स्वीकार
करना दोषी है ।
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