।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतामें भगवान्‌का आश्‍वासन



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सर्वेभ्यः साधकेभ्यश्‍चाश्‍वासनं दत्तवान् हरिः ।

जनः कल्याणकृत्कश्‍चिद् दुर्गतिं नैव गच्छति ॥

परमात्मप्राप्‍तिके मार्गमें कोई विघ्‍न-बाधा है ही नहीं । यह मार्ग सम्पूर्ण विघ्‍न-बाधाओंसे रहित है‒एष निष्कण्टकः पन्थाः ।’ इस मार्गमें आँखें मीचकर दौड़नेपर भी मनुष्य न तो ठोकर खाता है और न गिरता ही है ।

जिस साधकका अपने कल्याणका, परमात्म-प्राप्‍तिका ही उद्देश्य, लक्ष्य, ध्येय बन जाता है, उसका बहुत काम हो जाता है । स्वयं भगवान्‌ने साधकमात्रको आश्‍वासन देते हुए कहा है कि अपने कल्याणके लिये कर्म करनेवालेकी दुर्गति नहीं होती‒न हि कल्याणकृत्कश्‍चिद् दुर्गतिं तात गच्छति (६ । ४०) । जो केवल परमात्माके लिये ही सब काम करता है, उसके सम्पूर्ण कर्म सत्‌ हो जाते हैं (१७ । २७) और सत्‌का कभी अभाव (नाश) नहीं होता । समताका थोडा-सा भी अनुष्ठान जन्म-मरणरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है‒स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’ (२ । ४०) । वेदोंमें, यज्ञोंमें, तपोंमें और दानोंमें जो पुण्यफल कहे गये हैं, उन सबको योगी अतिक्रमण कर जाता है (८ । २८) । योगी ही नहीं, योग (समता)-का जिज्ञासु भी वेदोंमें कहे गये सकाम अनुष्ठानोंका अतिक्रमण कर जाता है‒जिज्ञासुरपि योग्यस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते’ (६ । ४४) ।

जिन्होंने अपनी कहलानेवाली वस्तुओंसहित अपने-आपको भगवान्‌के समर्पित कर दिया है, ऐसे अनन्य भक्तोंका उद्धार भगवान्‌ बहुत जल्दी कर देते हैं (१२ । ७) । ऐसे भक्तोंका योगक्षेम (अप्राप्‍तकी प्राप्‍ति कराना और प्राप्‍तकी रक्षा करना) भी भगवान्‌ स्वयं वहन करते हैं‒‘तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (९ । २२) ।

अपने अनन्य भक्तोंको भगवान्‌ अर्जुनके माध्यमसे आश्‍वासन देते हैं कि तुमलोग साधन और सिद्धि‒दोनोंके ही विषयमें चिन्ता मत करो । यदि साधक अपनेमें दैवी सम्पत्तिके गुणोंकी कमीको लेकर साधनके विषयमें हताश होता है तो उसके लिये भगवान्‌ आश्‍वासन देते हैं कि तुम दैवी सम्पत्तिके गुणोंको प्राप्‍त हो गये हो; अतः तुम चिन्ता मत करो‒मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव’ (१६ । ५) । अगर साधक अपने पापोंको लेकर सिद्धिके विषयमें हताश होता है तो उसके लिये भगवान्‌ आश्‍वासन देते हैं कि मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापोंसे मुक्‍त कर दूँगा; अतः तुम चिन्ता मत करो‒अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शचः’ (१८ । ६६) ।[*]

साधकमें साधन और सिद्धिके विषयमें चिन्ता तो नहीं होनी चाहिये, पर भगवान्‌की प्राप्‍तिके लिये व्याकुलता जरूर होनी चाहिये । कारण कि चिन्ता भगवान्‌से दूर करनेवाली है और व्याकुलता भगवान्‌की प्राप्‍ति करानेवाली है । चिन्तामें निराशा होती है और व्याकुलतामें भगवान्‌की आशा दृढ़ होती है । अतः साधकको चिन्ता कभी करनी ही नहीं चाहिये और अपने साधनमें तत्परतासे लगे रहना चाहिये ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] भगवान्‌के आश्वासनकी बात इन श्‍लोकोंमें भी आयी है‒दूसरे अध्यायका बहत्तरवाँ श्‍लोक, चौथे अध्यायका छत्तीसवाँ श्‍लोक, पाँचवें अध्यायका उन्‍नीसवाँ श्‍लोक, छठे अध्यायका इकतीसवाँ श्‍लोक, सातवें अध्यायका चौदहवाँ श्‍लोक, आठवें अध्यायका पाँचवाँ और चौदहवाँ श्‍लोक, नवें अध्यायका तीसवाँ और इकतीसवाँ श्‍लोक, दसवें अध्यायका नवाँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ श्‍लोक, ग्यारहवें अध्यायका पचपनवाँ श्‍लोक, बारहवें अध्यायका सातवाँ श्‍लोक, तेरहवें अध्यायका पचीसवाँ और चौतीसवाँ श्‍लोक, चौदहवें अध्यायका छब्बीसवाँ श्‍लोक, पंद्रहवें अध्यायका उन्‍नीसवाँ श्‍लोक और अठारहवें अध्यायका अट्ठावनवाँ श्‍लोक ।


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें आश्रयका वर्णन



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भगवान्‌की ओर चलनेवाले मनुष्य भगवान्‌का और उनके दया, क्षमा, समता आदि गुणोंका (दैवी सम्पत्तिका) आश्रय लेते हैं तथा परिणाममें भगवान्‌को प्राप्‍त कर लेते हैं । अतः गीतामें ‘मामुपाश्रिताः (४ । १०) ‘मदाश्रयः’ (७ । १); मामेव ये प्रपद्यन्ते (७ । १४); मामाश्रित्य यतन्ति ये (७ । २९); मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य (९ । ३२) ‘मद्‌व्यपाश्रयः (१८ । ५६) तमेव शरणं गच्छ (१८ । ६२); मामेकं शरणं ब्रज (१८ । ६६) आदि पदोंमें भगवान्‌के आश्रयकी बात कहा गयी है; और ‘देवीं प्रकृतिमाश्रिताः (९ । १३) तथा ‘बुद्धियोगमुपाश्रित्य (१८ । ५७) पदोंमें दैवी सम्पत्तिके आश्रयकी बात कही गयी है ।[*]

तात्पर्य है कि गीतामें जितने भी साधन बताये गये हैं, उन सबमें श्रेष्ठ और सुगम साधन भगवान्‌का आश्रय लेना ही है । जो भगवान्‌का आश्रय लेकर साधन करता है, उसके साधनकी सिद्धि बहुत शीघ्र और सुगमतापूर्वक हो जाती है । इस बातको भगवान्‌ने गीतामें स्पष्ट शब्दोंमें कहा है कि जो मेरे आश्रित होकर सम्पूर्ण कर्मोंको मेरेमें अर्पण करते हैं, उन भक्तोंका मैं मृत्युरूप संसार-समुद्रसे बहुत जल्दी उद्धार करनेवाला बन जाता हूँ (१२ । ६-७) । जो मेरा आश्रय लेकर यत्‍न करते हैं, वे ब्रह्म, अध्यात्म और सम्पूर्ण कर्म तथा अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ-सहित मेरेको जान जाते हैं अर्थात् मेरे समग्र रूपको जान जाते हैं (७ । २९-३०) । अपना आश्रय लेनेवाले भक्तोंको भगवान्‌ने सम्पूर्ण योगियोंमें श्रेष्ठ बताया है (६ । ४७) । अतः साधकोंको चाहिये कि वे जो भी साधन करें, भगवान्‌का आश्रय लेकर ही करें ।

यह स्वयं परमात्माका अंश है और स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण-शरीर प्रकृतिके अंश हैं । क्रिया और पदार्थका जो आश्रय है, वह स्थूलशरीरका आश्रय है (स्थूलशरीरसे भी दूर धन, मकान, बेटे-पोते, कुटुम्बी, जमीन-जायदाद आदिका जो आश्रय है, वह तो बहुत ही जड़ताका आश्रय है) । विद्याका, अपनी योग्यताका, अपने सद्गुणोंका, अपनी बुद्धिका जो आश्रय है तथा चिन्तनका, ध्यानका, मननका जो आश्रय है, वह सब सूक्ष्मशरीरका आश्रय है । जिसमें व्युत्थान होता है, उस समाधिका आश्रय लेना कारणशरीरका आश्रय है; और समाधि-अवस्थामें जो सिद्धियाँ प्राप्‍त होती हैं, अपनेमें जो महत्ता प्रतीत होती है, वह समाधिके कार्यका आश्रय है । ये सभी आश्रय नाशवान्‌के हैं ।

जप-ध्यान, कथा-कीर्तन आदिका आश्रय साधनका आश्रय है । मैं भगवान्‌का ही हूँ’‒इस प्रकार एकमात्र भगवान्‌से सम्बन्ध जोड़ना साध्य (भगवान्‌)-का आश्रय है । साधनका आश्रय लेनेसे साधन करना पड़ता है, पर साध्यका आश्रय लेनेसे साधन स्वतः-स्वाभाविक होता है, करना नहीं पड़ता । नाशवान्‌का आश्रय सर्वथा छूटते ही भगवत्प्राप्‍तिका अनुभव स्वतः हो जाता है । कारण कि भगवान्‌ तो नित्यप्राप्‍त ही हैं, केवल नाशवान्‌का आश्रय ही उनके अनुभवमें बाधक है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] दैवी सम्पत्ति (भगवान्‌के गुणों)-का आश्रय लेना भी भगवान्‌का ही आश्रय लेना है ।


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें आश्रयका वर्णन



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यावज्जीवो न गृह्‌णीयाद्धरेश्‍च चरणाश्रयम् ।

तावन्‍न च तरेत् कश्‍चिन्मृत्युसंसारसागरात् ॥

जीवमात्रका यह स्वभाव है कि वह किसी-न-किसीका आश्रय लेना चाहता है और लेता भी है । मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, लता आदि सभी किसी-न-किसीका आश्रय लेते ही हैं; क्योंकि जीवमात्र साक्षात् परमात्माका अंश है । अतः जबतक यह जीव अपने अंशी परमात्माका आश्रय नहीं लेगा, तबतक यह दूसरोंका आश्रय लेता ही रहेगा, पराधीन होता ही रहेगा, दुःख पाता ही रहेगा ।

मनुष्य तो विवेकप्रधान प्राणी है पर अपने विवेकको महत्त्व न देकर यह स्वयं साक्षात् अविनाशी परमात्माका चेतन अंश होता हुआ भी नाशवान् जड़का आश्रय ले लेता है अर्थात् शरीर, बल, बुद्धि, योग्यता, कुटुम्ब-परिवार, धन-सम्पत्ति आदिका आश्रय ले लेता है‒यह इसकी बड़ी भारी गलती है ।

गीतामें अर्जुनने भगवान्‌का आश्रय लेकर ही अपने कल्याणकी बात पूछी है (२ । ७) । अर्जुनने जबतक भगवान्‌का आश्रय नहीं लिया, तबतक गीताके उपदेशका आरम्भ ही नहीं हुआ । उपदेशके अन्तमें भी भगवान्‌ने अपना आश्रय लेनेकी ही बात कही है (१८ । ६६) । इस प्रकार गीताके उपदेशका आरम्भ और उपसंहार भगवदाश्रयमें ही हुआ है ।

भगवान्‌से मिली हुई स्वतन्त्रताके कारण मनुष्य किसीका भी आश्रय ले सकता है । अतः कई मनुष्य अपनी कामनाओंकी पूर्तिके लिये देवताओंका आश्रय लेते हैं (७ । २०), पर परिणाममें उनको नाशवान् फल ही मिलता है (७ । २३) । कई मनुष्य भोगोंकी कामनासे वेदोंमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानोंका आश्रय लेते हैं, पर परिणाममें वे आवागमनको प्राप्‍त होते हैं (९ । २१) ।

कई मनुष्य न तो भगवान्‌का आश्रय लेते हैं और न भगवान्‌को भगवान्‌रूपसे ही जानते हैं । अतः ऐसे मनुष्योंमेंसे कई तो आसुरभावका आश्रय लेते हैं (७ । १५); कई आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृतिका आश्रय लेते हैं (९ । १२); कई कभी पूरी न होनेवाली कामनाओंका आश्रय लेते हैं (१६ । १०); कई मृत्युपर्यन्त रहनेवाली अपार चिन्ताओंका आश्रय लेते हैं (१६ । ११); कई अहंकार, दुराग्रह, घमंड, कामना और क्रोधका आश्रय लेते हैं ( १६ । १८) । इन आश्रयोंके फलस्वरूप उनको बार-बार चौरासी लाख योनियों और नरकोंमें जाना पड़ता है (१६ । १९-२०) ।


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीताका आरम्भ और 

पर्यवसान शरणागतिमें



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आदावन्ते च गीतायां प्रोक्ता वै शरणागतिः ।

आदौ  शाधि  प्रपन्नं मामन्ते  मां शरणं व्रज ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुन साथ-साथ ही रहते थे । साथ-साथ रहनेपर भी जबतक अर्जुनने भगवान्‌की शरण होकर अपने कल्याणकी बात नहीं पूछी, तबतक भगवान्‌ने उपदेश नहीं दिया । मनुष्य शरण कब होता है ? जब मनुष्य सच्‍चे हदयसे अपना कल्याण चाहता है, पर उसको अपने कल्याणका कोई रास्ता नहीं दीखता और उसका बल, बुद्धि, योग्यता आदि काम नहीं करते, तब वह गुरु, ग्रन्थ अथवा भगवान्‌की शरण होता है । अर्जुनकी भी ऐसी ही दशा थी । उनको क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे तो युद्ध करना ठीक मालूम देता है, पर कुलनाशकी दृष्टिसे युद्ध न करना ही ठीक जँचता है । इसलिये युद्ध करना ठीक है अथवा न करना ठीक है‒इसका वे निर्णय नहीं कर पाये । अगर भगवान्‌की सम्मतिसे युद्ध किया भी जाय तो हमारी विजय होगी अथवा पराजय होगी‒इसका भी उन्हें पता नहीं और युद्धमें कुटुम्बियोंको मारकर वे जीना भी नहीं चाहते (२ । ६) । ऐसी अवस्थामें अर्जुन भगवान्‌की शरण होते हैं (२ । ७) ।

भगवान्‌की शरण होनेपर भी अर्जुनके मनमें यह बात जँची हुई है कि युद्ध करनेसे हमें अधिक-से-अधिक पृथ्वीका धन-धान्यसम्पन्‍न राज्य ही मिल सकता है । अगर इससे भी अधिक माना जाय तो देवताओंका आधिपत्य मिल सकता है; परन्तु इससे इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा शोक दूर नहीं हो सकता (२ । ८) । दूसरी बात, मैं भगवान्‌की शरण हो गया हूँ; अतः अब भगवान्‌ चट कह देंगे कि तू युद्ध कर, जबकि युद्धसे मेरेको कोई लाभ नहीं दीखता । अतः अर्जुन भगवान्‌के कुछ बोले बिना अपनी तरफसे साफ-साफ कह देते हैं कि मैं युद्ध नहीं करूँगा’न योत्स्ये (२ । ९) ।

मनुष्य जिसके शरण हो जाय, उसकी बात यदि समझमें न भी आये, तो भी उसमें यह दृढ़ विश्‍वास रहना चाहिये कि इनकी बात माननेसे मेरा भला ही होगा । अर्जुनका भी भगवान्‌पर दृढ़ विश्‍वास था कि यद्यपि मेरेको अपनी दृष्टिसे युद्ध करनेमें किसी तरहका लाभ नहीं दीखता, तथापि भगवान्‌ जो भी कह रहे है, वह ठीक ही है । इसलिये गीतामें अर्जुन तरह-तरहकी शंकाएँ तो करते रहे, पर वे भगवान्‌से विमुख नहीं हुए ।

अर्जुनके पूछनेपर तथा अपनी तरफसे भी भगवान्‌ने बहुत मार्मिक बातें कहीं और अपनी शरणागतिकी बातें भी कहीं, पर अर्जुनको वे बातें पूरी तरह जँची नहीं । अन्तमें भगवान्‌ने कहा कि तू सबके हृदयमें विराजमान सर्वव्यापी ईश्‍वरकी शरणमें चला जा; उसकी कृपासे तेरेको संसारसे सर्वथा उपरति और अविनाशी पदकी प्राप्‍ति होगी (१८ । ६२) । मैंने तो यह गोपनीय-से-गोपनीय बात तेरेसे कह दी, अब जैसी तेरी मरजी हो, वैसा कर‒यथेच्छसि तथा कुरु’ (१८ । ६३) ।

अर्जुनमें यह एक बहुत बड़ी विलक्षणता थी कि वे भगवान्‌को छोड़ना नहीं चाहते थे । अतः जब भगवान्‌ने कहा कि जैसी तेरी मरजी हो, वैसा करतब अर्जुन बहुत घबरा गये, व्याकुल हो गये । अतः भगवान्‌ने सर्वगुह्यतम उपदेश देते हुए कहा कि तू सम्पूर्ण धर्मोंके आश्रयको छोड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जा, मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्‍त कर दूंगा, तू चिन्ता-शोक मत कर[*] ।’ भगवान्‌की इस बातको सुनकर अर्जुन सर्वथा भगवान्‌की शरण हो गये और उनको अपनी बुद्धिका भरोसा नहीं रहा । अर्जुन बोले कि हे अच्युत ! केवल आपकी कृपासे मेरा मोह सर्वथा नष्ट हो गयाअब मैं केवल आपकी आज्ञाका ही पालन करूँगा’‒करिष्ये वचनं तव (१८ । ७३) । ऐसा कहकर अर्जुन चुप हो गये और भगवान्‌ भी कुछ नहीं बोले अर्थात् अपनी सर्वथा शरण हो जानेपर भगवान्‌को अर्जुनके लिये कोई विषय कहना बाकी नहीं रहा ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] सर्वधर्मान्   परित्यज्य   मामेकं   शरणं   व्रज ।

    अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुवः ॥

(गीता १८ । ६६)

‒यह शरणागतिका मुख्य श्‍लोक है ।


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