।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
       पौष शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७६ मंगलवार
जगद्गुरु भगवान्‌की उदारता


भगवान्‌में अनन्त गुण हैं, जिनका कोई पार नहीं पा सकता । आजतक भगवान्‌के गुणोंका जितना शास्त्रमें वर्णन हुआ है, जितना महात्माओंने वर्णन किया है, वह सब-का-सब मिलकर भी अधूरा है । भगवान्‌के परम भक्त गोस्वामीजी महाराज भी कहते हैं‒‘रामु न सकहिं नाम गुन गाई’ (मानस, बालकाण्ड २६/४)सन्तोंकी वाणीमें भी आया है कि अपनी शक्तिको खुद भगवान्‌ भी नहीं जानते ! ऐसे अनन्त गुणोंवाले भगवान्‌में कम-से-कम तीन गुण मुख्य हैं‒सर्वज्ञता, सर्वसमर्थता और सर्वसुहृत्ता । तात्पर्य है कि भगवान्‌के समान कोई सर्वज्ञ नहीं है, कोई सर्वसमर्थ नहीं है और कोई सर्वसुहृद् (परम दयालु) नहीं है । ऐसे भगवान्‌के रहते हुए भी आप दुःख पा रहे हैं, आपकी मुक्ति नहीं हो रही है तो क्या गुरु आपको मुक्त कर देगा ? क्या गुरु भगवान्‌से भी अधिक सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और दयालु है ? कोरी ठगाईके सिवाय कुछ नहीं होगा ! जबतक आपके भीतर अपने कल्याणकी लालसा जाग्रत नहीं होगी, तबतक भगवान्‌ भी आपका कल्याण नहीं कर सकते, फिर गुरु कैसे कर देगा ?

आपको गुरुमें, सन्त-महात्मामें जो विशेषता दिखती है, वह भी उनकी अपनी विशेषता नहीं है, प्रत्युत भगवान्‌से आयी हुई और आपकी मानी हुई है । जैसे कोई भी मिठाई बनायें, उसमें मिठास चीनीकी ही होती है, ऐसे ही जहाँ भी विशेषता दीखती है, वह सब भगवान्‌की ही होती है । भगवान्‌ने गीतामें कहा भी है‒

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं    श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥
(१०/४१)

‘जो-जो ऐश्वर्ययुक्त, शोभायुक्त और बलयुक्त प्राणी तथा पदार्थ है, उस-उसको तुम मेरे ही तेज (योग अर्थात्‌ सामर्थ्य) के अंशसे उत्पन्न हुई समझो ।’


भगवान्‌का विरोध करनेवाले राक्षसोंको भी भगवान्‌से ही बल मिलता है तो क्या भगवान्‌का भजन करनेवालोंको भगवान्‌से बल नहीं मिलेगा ? आप भगवान्‌के सम्मुख हो जाओ तो करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जायँगे, पर आप सम्मुख ही नहीं होंगे तो पाप कैसे नष्ट होंगे ? भगवान्‌ अपने शत्रुओंको भी शक्ति देते हैं, प्रेमियोंको भी शक्ति देते हैं और उदासीनोंको भी शक्ति देते हैं । भगवान्‌की रची हुई पृथ्वी दुष्ट-सज्जन, आस्तिक-नास्तिक, पापी-पुण्यात्मा सबको रहनेका स्थान देती है । उनका बनाया हुआ अन्न सबकी भूख मिटाता है । उनका बनाया हुआ जल सबकी प्यास बुझाता है । उनका बनाया हुआ पवन सबको श्वास देता है । दुष्ट-से-दुष्ट, पापी-से-पापीके लिये भी भगवान्‌की दयालुता समान है । हम घरमें बिजलीका एक लट्टू भी लगाते हैं तो उसका किराया देना पड़ता है, पर भगवान्‌के बनाये सूर्य और चन्द्रने कभी किराया माँगा है ? पानीका एक नल लगा लें तो रुपया लगता है, पर भगवान्‌की बनायी नदियाँ रात-दिन बह रही हैं । क्या किसीने उसका रुपया माँगा है ? रहनेके लिये थोड़ी-सी जमीन भी लें तो उसका रुपया देना पड़ता है, पर भगवान्‌ने रहनेके लिये इतनी बड़ी पृथ्वी दे दी । क्या उसका किराया माँगा है ? अगर उसका किराया माँगा तो किसमें देनेकी ताकत है ? जिसकी बनायी हुई सृष्टि भी इतनी उदार है, वह खुद कितना उदार होगा !

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
       पौष शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७६ सोमवार
            भगवान्‌ सबके गुरु है


हम भगवान्‌के अंश हैं‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७); अतः हमारे गुरु, माता, पिता आदि सब वे ही हैं । वास्तवमें हमें गुरुसे सम्बन्ध नहीं जोड़ना है, प्रत्युत भगवान्‌से ही सम्बन्ध जोड़ना है । सच्चा गुरु वही होता है, जो भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जोड़ दे । भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जोड़नेके लिये किसीकी सलाह लेनेकी जरुरत नहीं है । भगवान्‌के साथ जीवमात्रका स्वतन्त्र सम्बन्ध है । उसमें किसी दलालकी जरुरत नहीं है । हम पहले गुरु बनायेंगे, फिर गुरु हमारा सम्बन्ध भगवान्‌के साथ जोड़े तो भगवान्‌ हमारेसे एक पीढ़ी दूर हो गये ! हम पहलेसे ही सीधे भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जोड़ लें तो बीचमें दलालकी जरूरत ही नहीं । मुक्ति हमारे न चाहनेपर भी जबर्दस्ती आयेगी‒

अति दुर्लभ कैवल्य परम पद ।
संत पुरान निगम आगम बद ॥
राम भजत सोई मुकुति गोसाई ।
अनइच्छत   आवइ    बरिआईं ॥
                          (मानस, उत्तर ११९/२)

इसलिये भगवान्‌ गीतामें कहते हैं‒

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
(गीता ९/३४, १८/६५)

‘तू मेरा भक्त हो जा, मुझमें मनवाला हो जा, मेरा पूजन करनेवाला हो जा और मुझे नमस्कार कर ।’

सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
(गीता १८/६६)

‘सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा ।’ भगवान्‌ गुरु न बनकर अपनी शरणमें आनेके लिये कहते हैं ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
       पौष शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७६ रविवार
       प्रतिकूल परिस्थितिसे लाभ


दुःखमें आदमी सावधान होता है । सुखमें वह सावधान नहीं होता । सुखमें आदमी हर्षित होता है तो उसमें घमण्ड आ जाता है और वह धर्मका अतिक्रमण कर जाता है‒‘हृष्टो दृप्यति दृप्तो धर्मादतिक्रामति ।’ परन्तु दुःखी आदमी धर्मका अतिक्रमण नहीं करता । जो बड़े-बड़े धनी आदमी हैं, उनके घरपर साधु जा नहीं सकता, कोई माँगनेवाला जा नहीं सकता; क्योंकि आदमी लाठी लिये बैठे हैं; आगे जाने नहीं देते ! परन्तु गरीब आदमीके घर हरेक साधु चला जायगा और उसको रोटी मिल जायगी । गरीब आदमीके मनमें आयेगा कि क्या पता, किस जगह हमारा भला हो जाय ! हमें कोई आशीर्वाद मिल जाय ! कैसे ही भावसे वह देगा । परन्तु धनी आदमीमें यह बात नहीं होगी । वह कह देगा कि नहीं-नहीं, हम नहीं देते, जाओ यहाँसे । अतः सुखी आदमीके द्वारा ज्यादा अच्छा काम नहीं होता; क्योंकि वह सुख भोगनेमें लगा रहता है । दुःखी व्यक्ति भोगोंमें नहीं फँसता, उपराम रहता है, इसलिये वह दूसरोंके लिये, अपने लिये और भगवान्‌के लिये ठीक होता है तथा भगवान्‌, जनता सब उसके लिये ठीक होते हैं । अतः दुःखदायी परिस्थितिमें साधकको प्रसनता होनी चाहिये, आनन्द होना चाहिये कि भगवान्‌ने बड़ी कृपा करके ऐसा मौका दिया है । इस बातको कुन्ती समझती थी, इसलिये उसने भगवान्‌से विपत्ति माँगी और कहा कि ‘हे नाथ ! हमारेको सदा विपत्ति मिलती रहे’‒‘विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो’ (श्रीमद्भागवत १/८/२५) । रन्तिदेवने कहा कि  ‘जितने भी दुःखी आदमी हैं, उन सबका सुख तो मैं भोगूँ और वे सभी दुःखसे रहित हो जायँ’‒‘आर्तिं  प्रपद्येऽखिलदेहभाजामन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुखाः’ (श्रीमद्भागवत ९/२१/१२) । कितनी विचित्र बात कही है ! सबका दुःख मैं भोगूँ‒यह मामूली बात नहीं है । यह बड़ी ऊँची दृष्टी है ।

सुख-सामग्री भोगनेके लिये नहीं है । सुख-सामग्री है दूसरोंके हित करनेके लिये, सहायता करनेके लिये । यह शरीर सुख-भोगके लिये दिया ही नहीं गया है‒‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस, उत्तरकाण्ड ४४/१) । यह तो आगे उन्नति करनेके लिये दिया गया है । मनुष्य सदाके लिये सुखी हो जाय, उसका दुःख सदाके लिये मिट जाय‒इसके लिये ही यह मनुष्य-शरीर दिया गया है ।

श्रोता‒सुखमें सब साथी रहते हैं, दुःखमें कोई नहीं रहता ।

स्वामीजी‒दुःखमें वे साथी नहीं रहते, जो भोगी होते हैं, जो सज्जन पुरुष होते हैं, वे दुःखी पर विशेष कृपा करते हैं, दुःखीका सहयोग करते हैं । जो केवल सुखके साथी होते हैं, वे भोगी होते हैं । वे उससे सुख चाहते हैं, उसका भला नहीं चाहते । सुखीका साथ देनेवाले ठग होते हैं, धोखेबाज होते हैं । वे खुद सुख लूटना चाहते हैं कि यह सुख हमें मिल जाय । सज्जन पुरुष दूसरेका हित करना चाहते हैं‒

गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः ।
हसन्ति दुर्जनास्तत्र  समादधति सज्जनाः ॥

‘चलते हुए कोई गिर जाय, उसको चोट लग जाय तो दुष्ट पुरुष हँसेंगे, पर सज्जन पुरुष कहेंगे कि ‘भाई ! कहाँ लगी है ? तुम्हें कहाँ जाना है ? हम तुम्हें पहुँचा दें ।’ अतः दुःखदायी परिस्थितिमें सज्जन पुरुषोंका विशेष सहयोग मिलता है और हमारा अधिक विकास होता है ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒ ‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे

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