।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
       पौष शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७६ रविवार
       प्रतिकूल परिस्थितिसे लाभ


दुःखमें आदमी सावधान होता है । सुखमें वह सावधान नहीं होता । सुखमें आदमी हर्षित होता है तो उसमें घमण्ड आ जाता है और वह धर्मका अतिक्रमण कर जाता है‒‘हृष्टो दृप्यति दृप्तो धर्मादतिक्रामति ।’ परन्तु दुःखी आदमी धर्मका अतिक्रमण नहीं करता । जो बड़े-बड़े धनी आदमी हैं, उनके घरपर साधु जा नहीं सकता, कोई माँगनेवाला जा नहीं सकता; क्योंकि आदमी लाठी लिये बैठे हैं; आगे जाने नहीं देते ! परन्तु गरीब आदमीके घर हरेक साधु चला जायगा और उसको रोटी मिल जायगी । गरीब आदमीके मनमें आयेगा कि क्या पता, किस जगह हमारा भला हो जाय ! हमें कोई आशीर्वाद मिल जाय ! कैसे ही भावसे वह देगा । परन्तु धनी आदमीमें यह बात नहीं होगी । वह कह देगा कि नहीं-नहीं, हम नहीं देते, जाओ यहाँसे । अतः सुखी आदमीके द्वारा ज्यादा अच्छा काम नहीं होता; क्योंकि वह सुख भोगनेमें लगा रहता है । दुःखी व्यक्ति भोगोंमें नहीं फँसता, उपराम रहता है, इसलिये वह दूसरोंके लिये, अपने लिये और भगवान्‌के लिये ठीक होता है तथा भगवान्‌, जनता सब उसके लिये ठीक होते हैं । अतः दुःखदायी परिस्थितिमें साधकको प्रसनता होनी चाहिये, आनन्द होना चाहिये कि भगवान्‌ने बड़ी कृपा करके ऐसा मौका दिया है । इस बातको कुन्ती समझती थी, इसलिये उसने भगवान्‌से विपत्ति माँगी और कहा कि ‘हे नाथ ! हमारेको सदा विपत्ति मिलती रहे’‒‘विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो’ (श्रीमद्भागवत १/८/२५) । रन्तिदेवने कहा कि  ‘जितने भी दुःखी आदमी हैं, उन सबका सुख तो मैं भोगूँ और वे सभी दुःखसे रहित हो जायँ’‒‘आर्तिं  प्रपद्येऽखिलदेहभाजामन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुखाः’ (श्रीमद्भागवत ९/२१/१२) । कितनी विचित्र बात कही है ! सबका दुःख मैं भोगूँ‒यह मामूली बात नहीं है । यह बड़ी ऊँची दृष्टी है ।

सुख-सामग्री भोगनेके लिये नहीं है । सुख-सामग्री है दूसरोंके हित करनेके लिये, सहायता करनेके लिये । यह शरीर सुख-भोगके लिये दिया ही नहीं गया है‒‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस, उत्तरकाण्ड ४४/१) । यह तो आगे उन्नति करनेके लिये दिया गया है । मनुष्य सदाके लिये सुखी हो जाय, उसका दुःख सदाके लिये मिट जाय‒इसके लिये ही यह मनुष्य-शरीर दिया गया है ।

श्रोता‒सुखमें सब साथी रहते हैं, दुःखमें कोई नहीं रहता ।

स्वामीजी‒दुःखमें वे साथी नहीं रहते, जो भोगी होते हैं, जो सज्जन पुरुष होते हैं, वे दुःखी पर विशेष कृपा करते हैं, दुःखीका सहयोग करते हैं । जो केवल सुखके साथी होते हैं, वे भोगी होते हैं । वे उससे सुख चाहते हैं, उसका भला नहीं चाहते । सुखीका साथ देनेवाले ठग होते हैं, धोखेबाज होते हैं । वे खुद सुख लूटना चाहते हैं कि यह सुख हमें मिल जाय । सज्जन पुरुष दूसरेका हित करना चाहते हैं‒

गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः ।
हसन्ति दुर्जनास्तत्र  समादधति सज्जनाः ॥

‘चलते हुए कोई गिर जाय, उसको चोट लग जाय तो दुष्ट पुरुष हँसेंगे, पर सज्जन पुरुष कहेंगे कि ‘भाई ! कहाँ लगी है ? तुम्हें कहाँ जाना है ? हम तुम्हें पहुँचा दें ।’ अतः दुःखदायी परिस्थितिमें सज्जन पुरुषोंका विशेष सहयोग मिलता है और हमारा अधिक विकास होता है ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒ ‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे