।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण सप्तमी, वि.सं.–२०७५, बुधवार
                         अहोईव्रत
  करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य


मन-बुद्धि प्रकृतिके अंश हैं और स्वयं परमात्माका अंश है । अतः परमात्माके शरण होनेमें मन-बुद्धि आदि किसीकी किंचिन्मात्र भी जरूरत नहीं है, प्रत्युत स्वयंकी जरूरत है । परमात्माके शरण स्वयं होता है, मन-बुद्धि नहीं । तात्पर्य है कि परमात्माकी प्राप्तिमें बोध और भावकी अपेक्षा है, करणकी अपेक्षा नहीं है । जहाँ स्वयंसे काम होता है, वहाँ करणकी अपेक्षा नहीं होती ।

एक पर’ का आश्रय (पराश्रय) है और एक स्व’ का आश्रय (स्वाश्रय) है । आठ भेदोंवाली अपरा प्रकृति (पंचमहाभूत, मन, बुद्धि तथा अहंकार) अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म, तथा कारण-तीनों शरीर तथा संसार पर’ है और इनका आश्रय पराश्रय’ है । क्रिया और पदार्थका आश्रय स्थूल-शरीरका आश्रय है, मन-बुद्धिका अर्थात् चिन्तन, मनन, ध्यान, आदिका आश्रय सूक्ष्मशरीरका आश्रय है और अहंकारका, स्वभावका एवं समाधिका आश्रय कारण शरीरका आश्रय है ।

स्वरूपका आश्रय भी स्वाश्रय’ है और परमात्माका आश्रय भी स्वाश्रय’ है[1] कारण कि स्व’ के दो अर्थ होते हैं‒स्वयं (स्वरूप) और स्वकीय । परमात्मा स्वकीय हैं; क्योंकि उनका हमारे साथ अखण्ड सम्बन्ध है । तात्पर्य है कि जो किसी भी देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिमें हमारेसे अलग नहीं हो सकता और हम उससे अलग नहीं हो सकते, वही स्वकीय’ (अपना) हो सकता है । जो प्रत्येक देश, काल, क्रिया, वस्तु आदिमें निरन्तर हमारेसे अलग हो रहा है, उसका आश्रय (पराश्रय) लेनेके कारण ही स्वकीयका आश्रय (स्वाश्रय) अनुभवमें नहीं आ रहा है ।

जीवके बन्धनका मुख्य कारण है‒अहंकारका आश्रय (पराश्रय) । अहंकारका आश्रय ही ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण है‒कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३ । २१) । अहंकारका संग ही गुणोंका संग है; क्योंकि अहंकार भी सात्त्विक, राजस और तामस‒तीनों गुणोंवाला होता है‒वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिवृत्’ (श्रीमद्भा ११ । २४ । ७)



[1] आश्रय, अवलम्बन, अधीनता, प्रपत्ति और सहारा‒ये सभी शब्द शरणागति’ के पर्याय हैं; परन्तु इनमें थोड़ा भेद है; जैसे‒पृथ्वीके आधारके बिना हम रह नहीं सकते, ऐसे ही भगवान्‌के आधारके बिना हम रह न सकें‒यह भगवान्‌का आश्रय’ है । हाथकी हड्डी टूट जाय तो डाक्टरलोग उसपर पट्टी बाँधकर उसको गलेके सहारे लटका देते हैं, ऐसे ही भगवान्‌का सहारा लेने (पकड़ने) का नाम अवलम्बन’ है । भगवान्‌को मालिक मानकर उनका दास बन जाना अधीनता’ है । भगवान्‌के चरणोंमें गिर जाना प्रपत्ति’ है । जलमें डूबते हुएको किसी वृक्ष, शिला आदिका आधार मिल जाय, ऐसे ही संसार-समुद्रमें डूबनेके भयसे भगवान्‌का आधार लेना सहारा’ है ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण षष्ठी, वि.सं.–२०७५, मंगलवार
  करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य


तात्पर्य है कि वास्तविक सत्ता एक ही है । एकदेशीय, उत्पन्न होनेवाली, व्यावहारिक और प्रातिभासिक (प्रतीत होनेवाली) सत्ता वास्तवमें सत्ता नहीं है, प्रत्युत सत्ताका आभासमात्र है अर्थात् वह सत्ताकी तरह दीखती है, पर सत्ता नहीं है । वास्तविक सत्ता अनुभवमें आनेवाली वस्तु नहीं है, प्रत्युत अनुभवरूप है । हम उसको इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि (करण) के द्वारा देखना, अनुभव करना चाहते हैं‒यह हमारी भूल है । जो इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे देखा जायगा, वह सत् कैसे होगा ? जो सबको देखनेवाला (प्रकाशित करनेवाला) है, उसको कौन देख सकता है ? अतः उस वास्तविक सत्ताका अनुभव करना हो तो साधक बाहर-भीतरसे चुप हो जाय, कुछ भी चिन्तन न करे ।

१०. शरणागति

जिसमें विचारकी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत श्रद्धा-विश्वासकी प्रधानता है, ऐसा साधक ‘मैं संसारका नहीं हूँ और संसार मेरा नहीं है, प्रत्युत मैं परमात्माका हूँ और परमात्मा मेरे हैं’इस प्रकार संसारसे विमुख होकर परमात्माके सम्मुख हो जाय अर्थात् परमात्माके शरण हो जाय ।

जब साधक अपनेको किसी साधनके योग्य नहीं मानता अर्थात् अपनी शक्तिसे कुछ कर नहीं सकता और परमात्माको प्राप्त किये बिना रह नहीं सकता, तब वह शरणागतिका अधिकारी होता है[1] । जैसे नींद स्वाभाविक आती है, उसके लिये कोई परिश्रम (अभ्यास) नहीं करना पड़ता, ऐसे ही जब साधक संसारसे निराश हो जाता है और परमात्माकी आशा छूटती नहीं, तब वह स्वाभाविक ही परमात्माके शरण हो जाता है । शरण होनेके लिये उसको कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता । कारण कि शरण होनेमें किसी करणकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत भावकी जरूरत है । भाव स्वयंका होता है, किसी करणका नहीं । जैसे, कन्याका विवाह होता है तो ‘अब मैं पतिकी हूँ’ ऐसा भाव होते ही उसका माँ-बापसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और पतिके साथ सम्बन्ध हो जाता है । पतिके साथ सम्बन्ध जोड़नेमें किस करणकी जरूरत है ? किस अभ्यासकी जरूरत है ? अर्थात् किसी भी करणकी, अभ्यासकी जरूरत नहीं है । ‘मैं पतिकी हूँ’यह मान्यता (स्वीकृति) स्वयंकी है, किसी करणकी नहीं[2]



[1] हौं हार्‌यौ करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै ।
   तुलसिदास  बस होइ  तबहिं    जब  प्रेरक  प्रभु बरजै ॥
                                                          (विनयपत्रिका ८९)

[2] मन-बुद्धिसे जो मान्यता होती है, उसकी विस्मृति हो जाती है, पर स्वयंसे होनेवाली मान्यताकी विस्मृति नहीं होती, उसको याद नहीं रखना पड़ता । जैसे, ‘मैं विवाहित हूँ’यह मान्यता स्वयंसे होती है; अतः याद न रखनेपर भी इसकी कभी भूल नहीं होती । विवाहमें तो नया सम्बन्ध होता है, पर परमात्माका सम्बन्ध अनादिकालसे स्वतः है । जब नये (बनावटी) सम्बन्धकी भी विस्मृति नहीं होती तो फिर स्वतःसिद्ध सम्बन्धकी विस्मृति हो ही कैसे सकती है ? ‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४ । ३५)

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७५, सोमवार
  करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य


हम मानी हुई एकदेशीय सत्ता ‘मैं हूँ’ को तो दृढ़तासे अनुभव करते हैं, पर तत्त्वकी अनन्त सत्ताको मानते हैं[1] इस विपरीतताका कारण अहंकार ही है । अहंकारको मिटानेके लिये एकदेशीय सत्ताको अनन्त सत्तामें मिला दें अर्थात् समर्पित कर दें, जो कि वास्तवमें है । ऐसा करनेसे मानी हुई एकदेशीय सत्ता नहीं रहेगी, प्रत्युत देश-कालादि भावोंसे अतीत अनन्त सत्ता रह जायगी । तात्पर्य है कि अनन्त सत्ताकी मान्यता मान्यतारूपसे नहीं रहेगी, प्रत्युत पहले जितनी दृढ़तासे एकदेशीय सत्ताका भान होता था, उससे भी अधिक दृढ़तासे अनन्त सत्ताका अनुभव स्वतः होने लगेगा ।

एक मार्मिक बात है कि अनन्त सत्ताको एकदेशीय सत्तामें मिलानेकी अपेक्षा एकदेशीय सत्ताको अनन्त सत्तामें मिलाना श्रेष्ठ है । कारण कि एकदेशीय सत्तामें अनादिकालसे माने हुए अहंकारके संस्कार रहते हैं; अतः जब उसमें अनन्त सत्ताकी स्थापना करेंगे, तब वह अहंकार जल्दी नष्ट नहीं होगा । परन्तु एकदेशीय सत्ताको अनन्त सत्तामें मिलानेसे अहंकार सर्वथा नहीं रहेगा । कारण कि अनन्त सत्ता मानी हुई नहीं है, प्रत्युत वास्तविक है ।

वास्तवमें जीव और ब्रह्मकी एकता करना ही भूल है । जीव और ब्रह्मकी एकता आजतक न कभी हुई है, न होगी और न हो ही सकती है । कारण कि जीवमें ब्रह्मभाव नहीं है और ब्रह्ममें जीवभाव नहीं है । अतः जीव और ब्रह्मकी एकता न करके जीवभाव अर्थात् अहम् (मैं-पन) को मिटाना है । अहम्‌के मिटते ही केवल ब्रह्म रह जाता है । इसीको गीताने ‘वासुदेवः सर्वम्’ (७ । १९) कहा है । इसीलिये यह कहा गया है कि जीवको ब्रह्मकी प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत जीवभाव मिटनेपर ब्रह्मको ही ब्रह्मकी प्राप्ति होती है‒

ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति (बृहदारण्यक ४ । ४ । ६)

ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति (मुण्डक ३ । २ । ९)

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः (गीता ५ । २०)

भगवान्‌ने अहम् मिटनेके बाद ही ब्राह्मी स्थिति होनेकी बात कही है‒

निर्ममो  निरहंकारः   स    शान्तिमधिगच्छति ॥
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
                                               (गीता २ । ७१-७२)

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होनेपर फिर कभी अहम्‌से मोहित (अहंकारविमूढात्मा) होनेकी सम्भावना नहीं रहती ।



[1] वास्तवमें ‘मैं हूँ’यह एकदेशीय सत्ता हमारी झूठी मान्यता है, अनुभव नहीं‒‘अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) । इस झूठी मान्यताके कारण ही अनन्त सत्ताका (जो कि पहलेसे ही ज्यों-की-त्यों विद्यमान है) अनुभव नहीं होता अर्थात् उसकी तरफ हमारी दृष्टि नहीं जाती । इसलिये ‘मैं हूँ’ इस झूठी मान्यताको मान्यताके द्वारा ही मिटानेकी बात गीतामें आयी है‒‘नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ (५ । ८)

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