।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७५, रविवार
षष्ठीश्राद्ध
     करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



जडके आश्रयसे तत्त्वकी प्राप्ति अथवा बोध नहीं होता, प्रत्युत संसारका कार्य होता है । जडका आश्रय सर्वथा मिटनेपर जडकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती और जडकी स्वतन्त्र सत्ता न रहनेपर विवेक ही तत्त्वबोधमें परिणत हो जाता है । इस प्रकार करणनिरपेक्ष-साधनमें विवेक मुख्य है ।

१.   सत्-असत्‌का विवेक

गीताके उपदेशका आरम्भ विवेकसे ही हुआ है; जैसे‒एक शरीर है और एक शरीरी (शरीरवाला) है । शरीर प्रकृतिका अंश और शरीरी परमात्माका अंश है । शरीर और शरीरी दोनों ही अशोच्य हैं । तात्पर्य है कि शरीरीका कभी नाश नहीं होता; अतः उसके लिये शोक करना नहीं बनता और शरीरका नाश निरन्तर होता है; अतः उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता । शरीर-शरीरीकी इस भिन्नताको जाननेवाले विवेकी पुरुष किसी भी मृत अथवा जीवित प्राणीके लिये कभी शोक-चिन्ता नहीं करते । उनकी दृष्टि नाशवान् शरीरकी तरफ न रहकर अविनाशी शरीरीकी तरफ ही रहती है । वे देखते हैं कि शरीर पहले भी नहीं थे और बादमें भी नहीं रहेंगे, पर उनमें रहनेवाला शरीरी पहले भी था और बादमें भी रहेगा । अतः शरीरोंके आने-जानेका उसपर कोई असर नहीं पड़ता । कारण कि जैसे शरीर बालकसे जवान और जवानसे बूढ़ा हो जाता है, पर स्वयं ज्यों-का-त्यों रहता है (इसीलिये हम कहते हैं कि जो मैं बचपनमें था, वही मैं आज हूँ), ऐसे ही एक शरीरसे दूसरे शरीरकी प्राप्ति होनेपर भी स्वयं ज्यों-का-त्यों रहता है । तात्पर्य है कि अवस्थाएँ बदलती हैं, स्वयं नहीं बदलता (२ । ११‒१३) ।

जैसे शरीर नाशवान् और परिवर्तनशील है, ऐसे ही सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थ नाशवान् और परिवर्तनशील हैं । उन पदार्थोंमें हमारी अनुकूलताकी भावना हो जाती है तो वे सुख देनेवाले हो जाते हैं और प्रतिकूलताकी भावना हो जाती है तो वे दुःख देनेवाले हो जाते हैं । शरीरादि सम्पूर्ण प्राकृत पदार्थ आने-जानेवाले, उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं । वे एक क्षण भी स्थिर नहीं रहते । जिस मनुष्यपर इन प्राकृत पदार्थोंके आने-जानेका किंचिन्मात्र भी असर नहीं पड़ता, वह परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है (२ । १४-१५) ।


नाशवान् शरीरादि पदार्थ ‘असत्‌’ हैं और अविनाशी शरीरी ‘सत्‌’ है । असत्‌की तो सत्ता नहीं है और सत्‌का अभाव नहीं है । असत्‌की जो सत्ता प्रतीत होती है, वह भी वास्तवमें सत्‌की सत्तासे ही है । अतः सत् और असत्‒दोनोंके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुष एक सत्-तत्त्वका ही अनुभव करते हैं अर्थात् उनकी दृष्टिमें एक सत्- तत्त्वके सिवाय और किसीकी भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती । यह सत्-तत्त्व सम्पूर्ण संसारमें व्यास है । संसारका नाश होनेपर भी इस सत्-तत्त्वका कभी नाश नहीं होता । परन्तु देखने और जाननेमें आनेवाले जितने शरीर हैं, वे सब-के-सब असत् हैं । उनका प्रतिक्षण ही नाश हो रहा है । उनको ‘नाशवान्’ कहते हैं; क्योंकि नाशके सिवाय उनमें और कुछ है ही नहीं । जैसे शरीरोंका विनाशीपना नित्य है, ऐसे ही उनमें रहनेवाले शरीरीका अविनाशीपना नित्य है (२ । १६‒१८) ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.–२०७५, शनिवार
पंचमीश्राद्ध
     करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



असंप्रज्ञात-समाधि दो तरहकी होती है‒सबीज और निर्बीज । जब संसारकी सूक्ष्म वासना रहती है, तब सबीज समाधि होती है । सबीज समाधिमें अहम् (मैं-पन) के साथ सम्बन्ध रहता है । अहम्‌के सम्बन्धसे दो अवस्थाएँ होती हैं‒समाधि और व्युत्थान । सूक्ष्म वासनाके कारण इस सबीज समाधिमें अनेक प्रकारकी सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं । ये सिद्धियाँ सांसारिक दृष्टिसे तो ऐश्वर्य हैं, पर परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें विघ्न हैं[1] । जब योगी इन सिद्धियोंमें न फँसकर इनसे उपराम (वासनारहित) हो जाता है, तब निर्बीज समाधि होती है । निर्बीज समाधिमें अहम्‌से, कारणशरीरसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और योगी अपने सहज स्वरूपमें स्थित हो जाता है,[2]  जिससे फिर कभी व्युत्थान नहीं होता । इसको सहज समाधि, सहजावस्था अथवा गुणातीत-अवस्था भी कहते हैं ।

यद्यपि करणसापेक्ष साधनमें करण (क्रिया) की प्रधानता रहती है तथापि साधकका लक्ष्य परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेसे परिणाममें उसका करणसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और उसको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है ।

करणनिरपेक्ष साधन‒

करणनिरपेक्ष साधन गीताकी एक विलक्षण देन है, जिसमें मनुष्यमात्रका अधिकार है । इस साधनमें सत्-असत्‌के विवेककी प्रधानता है । विवेक अनादि और स्वतःसिद्ध है[3] । यह बुद्धिमें प्रकाशित होता है, पर बुद्धिका गुण नहीं है । यद्यपि सत्-असत्‌का विवेक सभी साधनोंमें रहता है तथापि करण-निरपेक्ष साधनमें साधक आरम्भसे ही इस विवेकको महत्त्व देता है, जिससे यह विवेक स्वयं उसका मार्गदर्शक हो जाता है । विवेकको महत्त्व देनेसे उसमें जडकी दासता अर्थात् क्रिया और पदार्थका आश्रय नहीं रहता, प्रत्युत उसकी निरपेक्षता रहती है ।



[1] ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः । (योगदर्शन ३ । ३७)

[2] यत्रोपरमते   चित्तं     निरुद्धं   योगसेवया ।
    यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
                                                   (गीता ६ । २०)

‘योगका सेवन करनेसे जिस अवस्थामें निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आपमें अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है ।’

[3] गीतामें आया है‒

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि  (१३ । ११)

‘प्रकृति और पुरुष‒दोनोंको ही तुम अनादि समझो ।’ अतः जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं, ऐसे ही इन दोनोंका भेद (विवेक) भी अनादि है ।


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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण तृतीया, वि.सं.–२०७५, शुक्रवार
चतुर्थीश्राद्ध
     करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



ग्यारहवें अध्यायके ही चौवनवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं‒

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं  द्रष्टुं  च  तत्त्वेन  प्रवेष्टुं   च   परन्तप ॥

‘हे शत्रुतापन अर्जुन ! इस प्रकार मैं अनन्यभक्तिसे ही तत्त्वसे जाननेमें, देखनेमें और प्रवेश (प्राप्त) करनेमें शक्य हूँ ।’

‒यहाँ भी भगवान्‌ने सगुणकी उपासनासे निर्गुणकी प्राप्ति बतायी है । जैसे, ‘ज्ञातुम्’ पद निर्गुण-निराकारके लिये, ‘द्रष्टुम्’ पद सगुण-साकारके लिये और ‘प्रवेष्टुम्’ पद सगुण-निराकार तथा निर्गुण-निराकार दोनोंके लिये आया है । तात्पर्य है कि सगुणकी उपासना करणसापेक्ष दीखते हुए भी परिणाममें करणनिरपेक्ष ही है ।

करणसापेक्ष साधन

चित्तवृत्तिकी पाँच अवस्थाएँ हैं‒मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । इनमें मूढ़ और क्षिप्त वृत्तिवाला मनुष्य ध्यानयोगका अधिकारी नहीं होता । जिसका चित्त कभी परमात्मामें लगता है कभी नहीं लगता‒ऐसा विक्षिप्त वृत्तिवाला मनुष्य ही ध्यानयोगका अधिकारी होता है ।

विक्षिप्त वृत्तिवाला साधक अपने चित्तको संसारसे हटाकर परमात्मामें लगानेका अभ्यास करता है[1] । जब उसका चित्त परमात्मामें लग जाता है तब ध्यान-अवस्था होती है । ध्यानावस्थामें ध्याता, ध्यान और ध्येय‒यह त्रिपुटी रहती है । ध्यान करते-करते जब ध्याता और ध्यान नहीं रहते, प्रत्युत एक ध्येय रह जाता है, तब चित्तवृत्ति एकाग्र हो जाती है[2] । चित्तवृत्ति एकाग्र होनेपर संप्रज्ञात (सविकल्प) समाधि होती है[3] । ध्येयमें तीन बातें रहती हैं‒ध्येय, ध्येयका नाम और नाम-नामीका सम्बन्ध । सप्रंज्ञात-समाधिका दीर्घकालतक अभ्यास करनेपर जब नामकी स्मृति न रहकर केवल नामी (ध्येय) रह जाता है, तब चित्तवृत्ति निरुद्ध हो जाती है । चित्तवृत्ति निरुद्ध होनेपर असंप्रज्ञात (निर्विकल्प) समाधि होती है ।



[1] यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
   ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥
                                                 (गीता ६ । २६)

[2] यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
    योगिनो यतचित्तस्य   युञ्जतो   योगमात्मनः ॥
                                                             (गीता ६ । १९)

‘जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है ।’

[3] स्थूलशरीरसे क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे चिन्तन और कारणशरीरसे समाधि होती है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीर ‘करण’ हैं ।


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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण द्वितीया, वि.सं.–२०७५, गुरुवार
तृतीयाश्राद्ध
     करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



तात्पर्य है कि सगुण होते हुए भी परमात्मा वास्तवमें निर्गुण ही हैं[1] । इसलिये सगुणकी उपासना करनेवाला साधक भी तीनों गुणोंका अतिक्रमण कर जाता है‒

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स  गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय  कल्पते ॥
                                                (गीता १४ । २६)

‘जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणोंका अतिक्रमण करके ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है ।’

सगुणकी उपासना करनेवाला निर्गुण ब्रह्मकी प्राप्तिका पात्र कैसे होता है ? इसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं‒

ब्रह्मणो  हि   प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य   च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥
                                              (गीता १४ । २७)

‘ब्रह्म, अविनाशी अमृत, शाश्वतधर्म और ऐकान्तिक सुखकी प्रतिष्ठा (आश्रय) मैं ही हूँ ।’

उपर्युक्त श्लोकमें ‘ब्रह्म तथा अविनाशी अमृतकी प्रतिष्ठा मैं हूँ’‒यह निर्गुण-निराकारकी बात है [ भगवान्‌ने ‘ब्रह्मण्याधाय कर्माणि’ (गीता ५ । १०) और ‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’ (गीता ९ । ४) पदोंमें भी अपनेको (सगुण-साकारको) ब्रह्म तथा अव्यक्तमूर्ति कहा है । ] ‘शाश्वतधर्मकी प्रतिष्ठा मैं हूँ’‒यह सगुण-साकारकी बात है [ अर्जुनने भी भगवान्‌को ‘शाश्वतधर्मगोप्ता’ (गीता ११ । १८) कहा है । ] ‘ऐकान्तिक सुखकी प्रतिष्ठा मैं हूँ’‒यह सगुण-निराकारकी बात है [ ध्यानयोगके प्रकरणमें इसी ऐकान्तिक सुखको ‘आत्यन्तिक सुख’ कहा गया है (६ । २१) । ]

इसी प्रकार ग्यारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें भी ‘त्वमक्षरं परमं वेदितव्यम्’ पदोंसे निर्गुण-निराकारकी बात आयी है; ‘त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्’ पदोंसे सगुण-निराकारकी बात आयी है; और ‘त्वं शाश्वतधर्मगोप्ता’ पदोंसे सगुण-साकारकी बात आयी है ।



[1] भागवतमें सगुणको निर्गुण भी माना गया है; जैसे‒

वनं तु सात्त्विको वासो ग्रामो राजस उच्यते ।
तामसं   द्यूतसदनं   मन्निकेतं   तु  निर्गुणम् ॥
                                                   (११ । २५ । २५)

‘वनमें रहना सात्त्विक है, गाँवमें रहना राजस है, जुआघरमें रहना तामस है और मन्दिरमें रहना निर्गुण है ।’

सात्त्विक्याध्यात्मिकी श्रद्धा कर्मश्रद्धा तु राजसी ।
तामस्यधर्मे  या  श्रद्धा    मत्सेवायां  तु  निर्गुणा ॥
                                                   (११ । २५ । २७)

‘आत्मज्ञानमें श्रद्धा सात्त्विक है, कर्ममें श्रद्धा राजस है, अधर्ममें श्रद्धा तामस है और मेरी सेवामें श्रद्धा निर्गुण है ।’

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