।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७३, सोमवार
अन्नकूट, गोवर्धनपूजा
स्त्री-सम्बन्धी बातें


(गत ब्लॉगसे आगेका)

जिन्होंने आत्महत्याका प्रयास किया और बच गये, उनसे यह बात सुनी है कि आत्महत्या करनेमें बड़ा भारी कष्ट होता है और पश्चात्ताप होता है कि मैं ऐसा नहीं करता तो अच्छा रहता, अब क्या करूँ ? आत्महत्या करनेवाले प्रायः भूत-प्रेत बनते हैं और वहाँ भूखे-प्यासे रहते हैं, दुःख पाते हैं । तात्पर्य है कि आत्महत्या करनेवालोंकी बड़ी भारी दुर्गति होती है ।

प्रश्न‒ अगर पति त्याग कर दे तो स्त्रीको क्या करना चाहिये ?

उत्तर‒वह अपने पिताके घरपर रहे । पिताके घरपर रहना न हो सके तो ससुराल अथवा पीहरवालोके नजदीक किरायेका कमरा लेकर उसमें रहे और मर्यादा, संयम, ब्रह्मचर्यपूर्वक अपने धर्मका पालन करे, भगवान्‌का भजन-स्मरण करे । पितासे या ससुरालसे जो कुछ मिला है, उससे अपना जीवन-निर्वाह करे । अगर धन पासमें न हो तो घरमें ही रहकर अपने हाथोंसे कातना-गूँथना, सीना-पिरोना आदि काम करके अपना जीवन-निर्वाह करे । यद्यपि इसमें कठिनता होती है, पर तपमें कठिनता ही होती है, आराम नहीं होता । इस तपसे उसमें आध्यात्मिक तेज बढ़ेगा, उसका अन्तःकरण शुद्ध होगा ।

माता-पिता, भाई-भौजाई आदिको विशेष ध्यान देना चाहिये कि बहन-बेटी धर्मकी मूर्ति होती है; अतः उसका पालन-पोषण करनेका बहुत पुण्य होता है । उनको यह उक्ति अक्षरशः चरितार्थ कर लेनी चाहिये‒बिपति काल कर सतगुन नेहा’ (मानस, किष्किन्धा ७ । ३) अर्थात् विपत्तिके समय बहन-बेटी आदिसे सौगुना स्नेह करे । यदि वे ऐसा न कर सकें तो लड़कीको विचार करना चाहिये कि जंगलमें रहनेवाले प्राणियोंका भी भगवान् पालन-पोषण करते हैं, तो क्या वे मेरा पालन-पोषण नहीं करेंगे ! सबके मालिक भगवान्‌के रहते हुए मैं अनाथ कैसे हो सकती हूँ ! इस बातको दृढ़तासे धारण करके भगवान्‌के भरोसे निधड़क रहना चाहिये, निर्भय, निःशोक, निश्चिन्त और निःशंक रहना चाहिये । एक विधवा बहन थी । उसके पास कुछ नहीं था । ससुरालवालोंने उसके गहने भी दबा लिये । वह कहती थी कि मुझे चिन्ता है ही नहीं ! दो हाथोंके पीछे एक पेट है फिर चिन्ता किस बातकी !

लड़कियोंको बचपनसे ही कातना-गूँथना, सीना-पिरोना, पढ़ना-पढ़ाना आदि सीख लेना चाहिये । विवाह होनेपर पतिकी सेवामें कमी नहीं रखनी चाहिये, पर भीतरमें भरोसा भगवान्‌का ही रखना चाहिये । असली सहारा भगवान्‌का ही है । ऐसा सहारा न पतिका है, न पुत्रका है और न शरीरका ही है‒यह बिलकुल सच्ची बात है । अतः यदि पति त्याग कर दे तो घबराना नहीं चाहिये । इस विषयमें अपनी कोई त्रुटि हो तो तत्काल सुधार कर लेना चाहिये और अपनी कोई त्रुटि न हो तो बिलकुल निधड़क रहना चाहिये । हृदयमें कमजोरी तो अपने भाव और आचरण ठीक न रहनेसे ही आती है । अपने भाव और आचरण ठीक रहनेसे हृदयमें कमजोरी कभी आती ही नहीं । अतः अपने भावों और आचरणोंको सदा शुद्ध, पवित्र रखते हुए भगवान्‌का भजन-स्मरण करते रहना चाहिये । भगवान्‌के भरोसे किसी बातकी परवाह नहीं करनी चाहिये ।

आजके युवकोंको चाहिये कि वे स्त्रियोंको छोड़ें नहीं । स्त्रीका त्याग करना महापाप है, बड़ा भारी अन्याय है । ऐसा करनेवाले भयंकर नरकोंमें जाते हैं ।   

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक अमावस्या, वि.सं.२०७३, रविवार
दीपावली
स्त्री-सम्बन्धी बातें


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒ अगर पति मांस-मदिरा आदिका सेवन करता हो तो पत्नीको क्या करना चाहिये ?

उत्तर‒पतिको समझाना चाहिये, निषिद्ध आचरणसे छुड़ाना चाहिये । अगर पति न माने तो लाचारी है, पर पतिको समझाना स्त्रीका धर्म है, अधिकार है । पत्नीको तो अपना खान-पान शुद्ध ही रखना चाहिये ।

प्रश्न‒पति मार-पीट करे, दुःख दे तो पत्नीको क्या करना चाहिये ?

उत्तर‒पत्नीको तो यही समझना चाहिये कि मेरे पूर्वजन्मका कोई बदला है, ऋण है, जो इस रूपमें चुकाया जा रहा है; अतः मेरे पाप ही कट रहे हैं और मैं शुद्ध हो रही हूँ । पीहरवालोंको पता लगनेपर वे उसको अपने घर ले जा सकते हैं; क्योंकि उन्होंने मार-पीटके लिये अपनी कन्या थोड़े ही दी थी !

प्रश्न‒अगर पीहरवाले भी उसको अपने घर न ले जायँ तो वह क्या करे ?

उत्तर‒फिर तो उसको अपने पुराने कर्मोंका फल भोग लेना चाहिये, इसके सिवाय बेचारी क्या कर सकती है ! उसको पतिकी मार-पीट धैर्यपूर्वक सह लेनी चाहिये । सहनेसे पाप कट जायँगे और आगे सम्भव है कि पति स्नेह भी करने लग जाय । यदि वह पतिकी मार-पीट न सह सके तो पतिसे कहकर उसको अलग हो जाना चाहिये और अलग रहकर अपनी जीविका-सम्बन्धी काम करते हुए एवं भगवान्‌का भजन-स्मरण करते हुए निधड़क रहना चाहिये ।

पुरुषको कभी भी स्त्रीपर हाथ नहीं चलाना चाहिये । शिखण्डी भीष्मजीको मारनेके लिये ही पैदा हुआ था; परन्तु वह जब युद्धमें भीष्मजीके सामने आता है, तब भीष्मजी बाण चलाना बन्द कर देते हैं । कारण कि शिखण्डी पूर्वजन्ममें स्त्री था और इस जन्ममें भी स्त्रीरूपसे ही जन्मा था, पीछे उसको पुरुषत्व प्राप्त हुआ था । अतः भीष्मजी उसको स्त्री ही मानते हैं और उसपर बाण नहीं चलाते ।

विपत्तिके दिन किसी पापके कारण ही आते हैं । उसमें उत्साहपूर्वक भगवान्‌का भजन-स्मरण करनेसे दुगुना लाभ होता है । एक तो पापोंका नाश होता है और दूसरा भगवान्‌को पुकारनेसे भगवद्विश्वास बढ़ता है । अतः विपत्ति आनेपर स्त्रियोंको हिम्मत नहीं हारनी चाहिये ।

विपत्ति आनेपर आत्महत्या करनेका विचार भी मनमें नहीं लाना चाहिये; क्योंकि आत्महत्या करनेका बड़ा भारी पाप लगता है । किसी मनुष्यकी हत्याका जो पाप लगता है, वही पाप आत्महत्याका लगता है । मनुष्य सोचता है कि आत्महत्या करनेसे मेरा दुःख मिट जायगा, मैं सुखी हो जाऊँगा । यह बिलकुल मूर्खताकी बात है; क्योंकि पहलेके पाप तो कटे नहीं, नया पाप और कर लिया !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.२०७३, शनिवार
श्रीहनुमज्जयन्ति
स्त्री-सम्बन्धी बातें


(गत ब्लॉगसे आगेका)

विवाहके समय स्त्री-पुरुष दोनों ही परस्पर वचनबद्ध होते हैं । उसके अनुसार पतिको सलाह देनेका, पतिसे अपने मनकी बात कहनेका पत्नीको अधिकार है । गान्धारी कितने ऊँचे दर्जेकी पतिव्रता थी कि जब उसने सुना कि जिससे मेरा विवाह होनेवाला है, उसके नेत्र नहीं हैं, तो उसने भी अपने नेत्रोंपर पट्टी बाँध ली; क्योंकि नेत्रोंका जो सुख पतिको नहीं है, वह सुख मुझे भी नहीं लेना है! परन्तु समय आनेपर उसने भी पति (धृतराष्ट्र)-को समझाया कि आपको दुर्योधनकी बात नहीं माननी चाहिये, नहीं तो कुलका नाश हो जायगा । ऐसी सलाह उसने कई बार दी, पर धृतराष्ट्रने उसकी सलाह नहीं मानी, जिससे कुलका नाश हो गया । तात्पर्य है कि पतिको अच्छी सलाह देनेका पत्नीको पूरा अधिकार है ।

शास्त्रोंमें आया है कि जो पतिव्रता स्त्री तन-मनसे पतिकी सेवा करती है, अपने धर्मका पालन करती है, वह मृत्युके बाद पतिलोकमे (पतिके पास) जाती है । अगर पति दुश्चरित्र है तो पतिका लोक नरक होगा; अतः पतिव्रता स्त्रीका लोक भी नरक ही होना चाहिये ! परन्तु पतिव्रता स्त्री नरकोंमें नहीं जा सकती; क्योंकि उसने शास्त्रकी, भगवान्‌की, सन्त-महात्माओंकी आज्ञाका पालन किया है, पातिव्रतधर्मका पालन किया है । अतः वह अपने पातिव्रत-धर्मके प्रभावसे पतिका उद्धार कर देगी अर्थात् जो लोक पत्नीका होगा, वही लोक पतिका हो जायगा । तात्पर्य है कि अपने कर्तव्यका पालन करनेवाला मनुष्य दूसरोंका उद्धार करनेवाला बन जाता है ।

प्रश्न‒अगर पति पत्नीको व्यभिचारके लिये प्रेरित करे तो पत्नीको क्या करना चाहिये ?

उत्तर‒पतिको यह अधिकार नहीं है कि वह अपनी स्त्री दूसरोंको दे; क्योंकि पत्नीके पिताने पतिको ही दान दिया है । अन्न, वस्त्र आदिका दान लेनेवाला तो अन्न आदि दूसरोंको दे सकता है, पर कन्यादान लेनेवाला पति दूसरोंको अपनी पत्नी नहीं दे सकता । अगर वह ऐसा करता है तो वह महापापका भागी होता है । ऐसी स्थितिमें पत्नीको पतिकी बात बिलकुल नहीं माननी चाहिये । उसको अपने पतिसे साफ कह देना चाहिये कि मेरे पिताने आपको ही कन्यादान किया है; अतः दूसरोंको देनेका आपका अधिकार नहीं है । इस विषयमें वह पतिकी आज्ञा भंग करती है तो उसको कोई दोष नहीं लगता; क्योंकि पतिकी यह आज्ञा अन्याय है और अन्यायको स्वीकार करना अन्यायको प्रोत्साहित करना है जो कि सबके लिये अनुचित है । दूसरी बात, अगर पत्नी पतिकी धर्मविरुद्ध आज्ञाका पालन करेगी तो इस पापके कारण पतिको नरकोंकी प्राप्ति होगी । अतः पत्नीको ऐसी आज्ञाका पालन नहीं करना चाहिये, जिससे पतिको नरकोंमें जाना पड़े ।

अगर पति स्वयं भी शास्त्रनियमके विरुद्ध स्त्रीसंग करता है तो वह अन्याय, पाप करता है । धर्मयुक्त काम भगवान्‌का स्वरूप है‒‘धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥’ (गीता ७ । ११); अतः इसमें दोष, पाप नहीं है । परन्तु धर्मसे विरुद्ध स्त्रीको मनमाना काममें लेना अन्याय है । मनुष्यको सदा शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार ही प्रत्येक कार्य करना चाहिये (गीता १६ । २४) ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे

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