(शेष आगेके ब्लॉगमें)
द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि जितने भी मत-मतान्तर हैं, उन सबसे परिणाममें एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होती है‒
पहुँचे पहुँचे एक मत, अनपहुँचे मत और ।
संतदास घड़ी अरठ की, ढुरे एक ही ठौर ॥
अरहटकी घड़ियाँ अलग-अलग, ऊँची-नीची रहती हैं । जब वे नीचे जाकर पानीसे भरकर ऊपर आती हैं, तब अलग-अलग होनेपर भी वे ढुलती एक ही जगह हैं ।
नारायण अरु नगर के, रज्जब राह अनेक ।
भावे आवो किधर से, आगे अस्थल एक ॥
एक ही नगरमें जानेके कई मार्ग होते हैं । कोई पूर्वसे आता है, कोई पश्चिमसे आता है, कोई उत्तरसे आता है, कोई दक्षिणसे आता है । उनसे कोई पूछे कि नगर किस दिशामें है तो पूर्वसे आनेवाला कहेगा कि नगर पश्चिममें है । पश्चिमसे आनेवाला नगरको पूर्वमें बतायेगा । उत्तरसे आनेवाला नगरको दक्षिणमें बतायेगा । दक्षिणसे आनेवाला कहेगा कि नगर उत्तरमें है । सभी अपने-अपने अनुभवको सच्चा बतायेंगे और दूसरेके अनुभवको झूठा बतायेंगे कि तुम झूठ कहते हो,हमने तो खुद वहाँ जाकर देखा है । वास्तवमें सभी सच्चे होते हुए भी झूठे हैं ! पूर्व, पश्चिम आदिका भेद तो अपने दृष्टिकोण, आग्रहके कारण है । नगर न तो पूर्वमें है, न पश्रिममें है, न उत्तरमें है और न दक्षिणमें है । वह तो अपनी जगहपर ही है । अलग-अलग दिशाओंमें बैठे होनेसे ही वे नगरको अलग-अलग जगहपर बताते हैं ।
हम किसी महात्माके विषयमें पहले कल्पना करते हैं कि वह ऐसा होगा, ऐसी उसकी दाढ़ी होगी, ऐसा उसका शरीर होगा आदि-आदि । परन्तु वहाँ जाकर उस महात्माको देखते हैं तो वह वैसा नहीं मिलता । ऐसे ही किसी शहरके विषयमें जैसी धारणा करते हैं, वहाँ जाकर देखनेपर वह वैसा नहीं मिलता । जब लौकिक विषयमें भी हम जो धारणा करते हैं, वह सही नहीं निकलती, फिर जो सर्वथा असीम,अनन्त, अपार, अलौकिक, गुणातीत परमात्मा हैं, उनके विषयमें धारणा सही कैसे निकलेगी ?
उपासना करनेवालोंके लिये ‘भगवान्का स्वरूप क्या है’‒इस विषयमें दो ही बातें हो सकती हैं, एक तो भगवान् पहले अपना स्वरूप दिखा दें, फिर उसके अनुसार उपासना करें और दूसरी, हम पहले भगवान्का कोई भी स्वरूप मान लें, फिर उपासना करें । इन दोनोंमें दूसरी बात ही ठीक बैठती है । कारण कि भगवान् पहले अपना स्वरूप दिखा दें,फिर हम साधन करें तो उस स्वरूपका ध्यान, वर्णन आदि करनेमें हमारेसे कहीं-न-कहीं गलती हो ही जायगी, जिसका हमें दोष लगेगा । भगवान् भी कह सकते हैं कि तुमने भूल क्यों की ? इसलिये भगवान्ने कृपा करके यह नियम बनाया है कि साधक उनके जिस रूपका ध्यान करें, जिस नामका जप करें, उसको वे अपना ही मान लेते हैं; क्योंकि भगवान् सब कुछ हैं ।
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‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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