(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
आधी उम्र
चली गयी‒यह बात
तो आप मानते हो, पर आधा मर
गये‒यह आपकी समझमें
नहीं आता । पर वास्तवमें
एक ही बात है । केवल
शब्दोंमें अन्तर
है, भावमें बिलकुल
अन्तर नहीं । सुननेमें
कड़ा इसलिये लगता
है कि जीनेकी इच्छा
है । पर बात सच्ची
है । आधी उम्र चली
गयी‒यह बात जँचती
है, तो जँची हुई
बातको ही मैं पक्का
करता हूँ । इतना
ही मेरा काम है
। मैं कोई नयी बात
नहीं सिखाता ।
तीन बातें होती
हैं‒सीखी हुई, मानी हुई और जानी
हुई । उसे पक्का
मान लो, पक्का जान लो‒इतना
ही मेरा कहना है
। फिर बात हमेशा
जाग्रत् रहेगी
। उसमें संदेह
नहीं होगा । तो
जितनी उम्र बीत
गयी, उसमें
संदेह होता है
क्या ? संदेह
नहीं होता तो उतना
मर गया‒इसमें
संदेह कैसे रह
गया ? शरीर
हरदम जा रहा है, यह बात बिलकुल
सच्ची है ।
मैं अपनी
बीती बात बताऊँ
कि जिस दिन मैंने
यह समझा कि यह दृश्य
अदृश्यमें जा
रहा है, मुझे इतनी
प्रसन्नता हुई
कि ओहो ! कितनी मार्मिक
बात है ! कितनी बढ़िया
बात है ! मैं ठगायी
नहीं करता हूँ, झूठ नहीं
बोलता हूँ । आप थोड़ा ध्यान
दो कि शरीर मरनेकी
तरफ जा रहा है कि
जीनेकी तरफ ? बिलकुल सच्ची
बात है कि यह तो
मरनेकी तरफ जा
रहा है । दृश्य
अदृश्यकी तरफ
जा रहा है, तो यह मरनेकी तरफ
जा रहा है । दृश्य
अदृश्यमें जा
रहा है तो वह भी
मरनेकी तरफ जा
रहा है । मेरे मनमें
बात आयी कि जैसे
बालक पाठ पढ़ता
है तो उसे क,ख,ग,घ, एक बार याद हो
गये, तो
फिर याद हो ही गये
। फिर उससे पूछो
तो वह तुरन्त बता
देगा । याद नहीं
करना पड़ेगा । तो
ऐसे आप भी चलते-फिरते
हरदम याद कर लो
कि यह सब जा रहा
है । दृश्य अदृश्यमें
जा रहा है । भाव
अभावमें जा रहा
है । जीवन मृत्युमें
जा रहा है । दर्शन
अदर्शनमें जा
रहा है । इस प्रकार
इसे हरदम याद रखो
तो अपने-आप इसका
प्रभाव पड़ जायेगा
और बड़ा भारी लाभ
होगा । बालककी
तरह इस पाठको सीख
लो । जितना सुखका
लोभ है, जितना जीनेका
लोभ है, उतना इस बातका
आदर नहीं है । लोभ
और आदर दो चीजें
हैं । इस बातका
आदर कम है, लोभका आदर ज्यादा
है । आदर कम
है, यही भूल है
। तो आजसे ही इस
बातका आदर करो
।
नारायण !
नारायण !!
नारायण !!!
‒
‘तात्त्विक
प्रवचन’
पुस्तकसे
किसी
बातको लेकर
अपनेमें कुछ
भी अपनी
विशेषता
दीखती है, यह
वास्तवमें
पराधीनता है ।
☼ ☼ ☼
अन्तमें
अकेला ही
जाना पड़ेगा,
इसलिये
पहलेसे ही
अकेला हो जाय
अर्थात्
वस्तु,
व्यक्ति और
क्रियासे
असंग हो जाय,
इनका आश्रय न
ले ।
☼ ☼ ☼
ग्रहण
करनेयोग्य
सर्वोपरि एक
नियम है‒भगवान्को
याद रखना और
त्याग
करनेयोग्य
सर्वोपरि एक नियम
है‒कामनाका
त्याग करना ।
☼ ☼ ☼
‘सन्तोष’
समाज-सुधारका
मूल मन्त्र
है ।
☼ ☼ ☼
‒
‘अमृतबिन्दु’
पुस्तकसे
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