(गत ब्लॉगसे आगेका)
संसारका दुभाषिया एकके भावोंको दूसरेके प्रति समझा देता है
और दूसरेके भावोंको उसके प्रति कह देता है‒इस तरहसे नाम महाराज नाम जपनेवालेको
दोनोंका ज्ञान कर देते हैं कि निर्गुण तत्त्व क्या है और सगुण तत्त्व क्या है !
ऐसा चतुर दुभाषिया है, जो निर्गुण-सगुण दोनोंका ज्ञान करा दे । मानो भगवन्नाम
जपनेसे सगुण और निर्गुण दोनोंकी प्राप्ति हो जाती है । गोस्वामीजी महाराजने और एक
जगह लिखा है कि ‘हियँ निरगुन नयनन सगुन’ हृदयमें
निर्गुणका ज्ञान हो जाता है और बाहर नेत्रोंसे सगुणका दर्शन हो जाता है ।
अब कहते हैं कि हम निर्गुण तत्त्वको ही जानना चाहते हैं तो
निर्गुण तत्त्वको जनानेमें ‘राम’ नाम बहुत ही चतुर है । आपको निर्गुण तत्त्व ठीक
समझा देगा । जिसकी ऐसी भावना है कि हम सगुणके दर्शन चाहते हैं, प्रेम चाहते हैं,
भगवान्की कृपा, गुण, प्रभाव आदिको जानना चाहते हैं तो नाम महाराज सगुण भगवान्के
दर्शन करा देंगे । जो दोनोंके ठीक तत्त्वको जानना चाहें कि सगुण तत्त्व क्या है और
निर्गुण तत्त्व क्या है तो उनको दोनोंके तत्त्वको जना देंगे‒ऐसा विलक्षण नाम
महाराज हैं ।
राम नाम मनिदीप
धरु जीह
देहरीं द्वार ।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजियार ॥
(मानस, बालकाण्ड, दोहा
२१)
तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि भीतर और बाहर दोनों जगह
उजाला चाहते हो तो ‘राम’ नामरूपी मणिदीपको जीभरूपी देहलीपर रख डो । तो क्या होगा
कि नाम महाराज बाहर तो साक्षात् धनुषधारी सगुण भगवान्के स्वरूपका दर्शन करा देंगे
और भीतरमें परमात्मतत्वका तथा अपने स्वरूपका बोध करा देंगे । इस प्रकार बाहर और
भीतर दोनों जगह ज्ञानका उजाला करा देते हैं ।
हमारे बहुत-से विचित्र-विचित्र दर्शनशास्त्र हैं । न्याय,
सांख्य, योग, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा‒ये छः आस्तिक दर्शन कहे
जाते हैं, इनके सिवाय और भी बौद्ध, जैन, ईसाई, यवन आदिके अनेक दर्शन हैं, इनके
अनेक सिद्धान्त हैं । इन दर्शनोंमें आपसमें कई मतभेद हैं । परमात्मतत्त्व क्या है ?
प्रकृति क्या है ? कई दर्शन परमात्मा,
जीवात्मा और जगत् इन तीनोंको लेकर चलते हैं । इनमें कई-कई परमात्माको
छोड़कर जीवात्मा और जगत् दोको ही लेकर चलते हैं । चार्वाक शरीरको लेकर चलता है । ऐसे
अनेक दार्शनिक भेद हैं, परंतु जो परमात्मतत्त्वको जानना चाहते हैं और आत्मतत्त्वको भी
जानना चाहते हैं तो उनको नाम महाराज जना देते हैं । शबरीके प्रसंगमें भगवान्ने यह
कहा है‒
मम दरसन फल परम अनूपा ।
जीव पाव निज सहज सरूपा ॥
(मानस, अरण्यकाण्ड,
दोहा ३६ । ९)
मेरे दर्शनका परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने स्वरूपको प्राप्त
हो जाता है । भगवान्के दर्शन होना और चीज है,
निज-स्वरूपका ज्ञान और चीज है । ऐसे देखा जाय तो एक ही तत्त्व
मिलता है, परंतु इसमें भी दार्शनिकोंने और भेद माना है । कोई द्वैत मानते
हैं, कोई अद्वैत मानते हैं । द्वैतमें भी विशिष्टाद्वैत,
शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत और अचिन्त्यभेदाभेद‒ऐसे वैष्णवोंके मत हैं । सब
मतोंका अगर कोई ज्ञान करना चाहे तो नामकी ठीक निष्ठापूर्वक शरण लेनेसे नाम महाराज सबका
ज्ञान करा देते हैं । ऐसे देखा जाय तो सगुण और निर्गुणके अन्तर्गत सब सम्प्रदाय आ जाते
हैं ।
(अपूर्ण)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे |
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