।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७१, बुधवार

एकादशी-व्रत कल है
मानसमें नाम-वन्दना

                             
                   

 (गत ब्लॉगसे आगेका)

संसारका दुभाषिया एकके भावोंको दूसरेके प्रति समझा देता है और दूसरेके भावोंको उसके प्रति कह देता है‒इस तरहसे नाम महाराज नाम जपनेवालेको दोनोंका ज्ञान कर देते हैं कि निर्गुण तत्त्व क्या है और सगुण तत्त्व क्या है ! ऐसा चतुर दुभाषिया है, जो निर्गुण-सगुण दोनोंका ज्ञान करा दे । मानो भगवन्नाम जपनेसे सगुण और निर्गुण दोनोंकी प्राप्ति हो जाती है । गोस्वामीजी महाराजने और एक जगह लिखा है कि ‘हियँ निरगुन नयनन सगुन’ हृदयमें निर्गुणका ज्ञान हो जाता है और बाहर नेत्रोंसे सगुणका दर्शन हो जाता है ।

अब कहते हैं कि हम निर्गुण तत्त्वको ही जानना चाहते हैं तो निर्गुण तत्त्वको जनानेमें ‘राम’ नाम बहुत ही चतुर है । आपको निर्गुण तत्त्व ठीक समझा देगा । जिसकी ऐसी भावना है कि हम सगुणके दर्शन चाहते हैं, प्रेम चाहते हैं, भगवान्‌की कृपा, गुण, प्रभाव आदिको जानना चाहते हैं तो नाम महाराज सगुण भगवान्‌के दर्शन करा देंगे । जो दोनोंके ठीक तत्त्वको जानना चाहें कि सगुण तत्त्व क्या है और निर्गुण तत्त्व क्या है तो उनको दोनोंके तत्त्वको जना देंगे‒ऐसा विलक्षण नाम महाराज हैं ।

राम नाम  मनिदीप धरु  जीह  देहरीं  द्वार ।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजियार ॥
                                                       (मानस, बालकाण्ड, दोहा २१)

तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि भीतर और बाहर दोनों जगह उजाला चाहते हो तो ‘राम’ नामरूपी मणिदीपको जीभरूपी देहलीपर रख डो । तो क्या होगा कि नाम महाराज बाहर तो साक्षात् धनुषधारी सगुण भगवान्‌के स्वरूपका दर्शन करा देंगे और भीतरमें परमात्मतत्वका तथा अपने स्वरूपका बोध करा देंगे । इस प्रकार बाहर और भीतर दोनों जगह ज्ञानका उजाला करा देते हैं ।

हमारे बहुत-से विचित्र-विचित्र दर्शनशास्त्र हैं । न्याय, सांख्य, योग, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा‒ये छः आस्तिक दर्शन कहे जाते हैं, इनके सिवाय और भी बौद्ध, जैन, ईसाई, यवन आदिके अनेक दर्शन हैं, इनके अनेक सिद्धान्त हैं । इन दर्शनोंमें आपसमें कई मतभेद हैं । परमात्मतत्त्व क्या है ? प्रकृति क्या है ? कई दर्शन परमात्मा, जीवात्मा और जगत् इन तीनोंको लेकर चलते हैं । इनमें कई-कई परमात्माको छोड़कर जीवात्मा और जगत् दोको ही लेकर चलते हैं । चार्वाक शरीरको लेकर चलता है । ऐसे अनेक दार्शनिक भेद हैं, परंतु जो परमात्मतत्त्वको जानना चाहते हैं और आत्मतत्त्वको भी जानना चाहते हैं तो उनको नाम महाराज जना देते हैं । शबरीके प्रसंगमें भगवान्‌ने यह कहा है‒

मम दरसन फल परम अनूपा ।
जीव पाव निज सहज सरूपा ॥
                          (मानस, अरण्यकाण्ड, दोहा ३६ । ९)


मेरे दर्शनका परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने स्वरूपको प्राप्त हो जाता है । भगवान्‌के दर्शन होना और चीज है, निज-स्वरूपका ज्ञान और चीज है । ऐसे देखा जाय तो एक ही तत्त्व मिलता है, परंतु इसमें भी दार्शनिकोंने और भेद माना है । कोई द्वैत मानते हैं, कोई अद्वैत मानते हैं । द्वैतमें भी विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत और अचिन्त्यभेदाभेद‒ऐसे वैष्णवोंके मत हैं । सब मतोंका अगर कोई ज्ञान करना चाहे तो नामकी ठीक निष्ठापूर्वक शरण लेनेसे नाम महाराज सबका ज्ञान करा देते हैं । ऐसे देखा जाय तो सगुण और निर्गुणके अन्तर्गत सब सम्प्रदाय आ जाते हैं ।
   
   (अपूर्ण)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७१, मंगलवार
मानसमें नाम-वन्दना

                           
               


              



 
 (गत ब्लॉगसे आगेका)

आपत्ति आवे, चाहे सम्पत्ति आवे, हर समय भगवान्‌की कृपा समझें । भगवान्‌की कृपा है ही, हम मानें तो है, न मानें तो है, जानें तो है, न जानें तो है । पर नहीं जानेंगे, नहीं मानेंगे तो दुःख पायेंगे । भीतरसे प्रभु कृपा करते ही रहते हैं । बच्चा चाहे रोवे, चाहे हँसे, माँकी कृपा तो बनी ही रहती है, वह पालन करती ही है । बिना कारण जब छोटा बच्चा ज्यादा हँसता है तो माँके चिन्ता हो जाती है कि बिना कारण हँसता है तो कुछ-न-कुछ आफत आयेगी । ऐसे आप संसारकी खुशी ज्यादा लेते हो तो रामजीके विचार आता है कि यह ज्यादा हँसता है तो कोई आफत आयेगी । यह अपशकुन है ।

राम ! राम !! राम !!!

प्रवचन- ७

नाम  रूप  गति  अकथ कहानी ।
समुझत सुखद न परति बखानी ॥
                             (मानस, बालकाण्ड, दोहा २१ । ७)

नाम और रूप (नामी) की जो गति है, इसका जो वर्णन है, ज्ञान है, इसकी जो विशेष कहानी है, वह समझनेमें महान् सुख देनेवाली है; परंतु इसका विवेचन करना बड़ा कठिन है । जैसे नामकी विलक्षणता है, ऐसे ही रूपकी भी विलक्षणता है । अब दोनोंमें कौन बड़ा है, कौन छोटा है‒यह कहना कैसे हो सकता है ! भगवान्‌का नाम याद करो, चाहे भगवान्‌के स्वरूपको याद करो, दोनों विलक्षण हैं । भगवान्‌के नाम अनन्त हैं, भगवान्‌के रूप अनन्त हैं, भगवान्‌की महिमा अनन्त है और भगवान्‌के गुण अनन्त हैं । इनकी विलक्षणताका वाणी क्या वर्णन कर सकती है ! यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।’, ‘मन समेत जेहि जान न बानी’ मन भी वहाँ कल्पना नहीं कर सकता । बुद्धि भी वहाँ कुण्ठित हो जाती है तो वर्णन क्या होगा ?

नामीके दो स्वरूप

अब आगे नामीके दो स्वरूपोंका वर्णन करते हैं । पहले अन्वय-व्यतिरेकसे नामकी महिमा और नामको श्रेष्ठ बताया । अब कहते हैं‒

अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी ।
उभय  प्रबोधक  चतुर  दुभाषी ॥
                             (मानस, बालकाण्ड, दोहा २१ । ८)

परमात्मतत्त्वके दो स्वरूप हैं‒एक अगुण स्वरूप है और एक सगुण स्वरूप है । नाम क्या चीज है ? तो कहते हैं‒अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी’ नाम महाराज निर्गुण और सगुण परमात्माके बीचमें सुन्दर साक्षी हैं और दोनोंका बोध करानेवाले चतुर दुभाषिया हैं । जैसे, कोई आदमी हिन्दी जानता हो, पर अंग्रेजी नहीं जानता और दूसरा अंग्रेजी जानता हो, पर हिन्दी नहीं जानता तो दोनोंके बीचमें एक आदमी ऐसा रख दिया जाय, जो दोनों भाषाओंको जानता हो, परस्परकी बात एक-दूसरेको समझा दे, वह दुभाषिया हैं । ‘चतुर दुभाषी’ इसका तात्पर्य हुआ कि केवल सगुणको निर्गुण और निर्गुणको सगुण बता दे‒यह बात नहीं है; किन्तु नाम महाराजका आश्रय लेनेवाला जो भक्त है, उसको ये नाम महाराज सगुण और निर्गुणका ज्ञान कर देते हैं, यह विशेषता है ।
   
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७१, सोमवार
मानसमें नाम-वन्दना

                                              
                 

              



 
 (गत ब्लॉगसे आगेका)

नारदजीने कहा‒‘इसका बेटा तेरा वैरी नहीं होगा ।’ नारदजीकी बात सब मानते थे । इन्द्रने मान ली । ठीक है महाराज ! कयाधूको छोड़ दिया । नारदजीने बड़े स्नेहसे उसको अपनी कुटियापर रखा और कहा कि बेटी ! तू चिन्ता मत कर । तेरे पति आयेंगे, तब पहुँचा दूँगा ।’ वह जैसे अपने बापके घर रहे, वैसे नारदजीके पास रहने लगी । नारदजीके मनमें एक लोभ था कि मौका पड़ जाय तो इसके गर्भमें जो बालक है, इसको भक्ति सिखा दें । यह संतोंकी कृपा होती है । कयाधूको बढ़िया-बढ़िया भगवान्‌की बातें सुनाते, पर लक्ष्य रखते उस बालकका । वह प्रसन्नतासे सुनती और गर्भमें बैठा बालक भी उन बातोंको सुनता था । नारदजीकी कृपासे गर्भमें ही उसे ज्ञान हो गया ।

माता  रह्यो   न   लेश  नारदके  उपदेशको ।
सो धार्‌यो हि अशेष गर्भ मांही ज्ञानी भयो ॥

प्रह्लादजीको कितना कष्ट दिया ! कितना भय दिखाया ! परंतु उन्होंने नामको छोड़ा नहीं । प्रह्लादजीको रस आ गया, ऐसे नामको कैसे छोड़ा जाय ? शुक्राचार्यजीके पुत्र प्रह्लादजीको पढ़ाते थे । राजाने उनको धमकाया कि तुम हमारे बेटेको बिगाड़ते हो । यह प्रह्लाद हमारे वैरीका नाम लेता है । यह कैसे सीख गया ? प्रह्लादसे पूछा‒‘तुम्हारे यह कुमति कहाँसे आयी ? दूसरोंका कहा हुआ करते हो कि स्वयं अपने मनसे ही ! किसने सिखा दिया ?’ प्रह्लादजी कहते हैं‒‘जिसको आप कुमति कहते हो, यह दूसरा कोई सिखा नहीं सकता, न स्वयं आती है । संत-महापुरुष, भगवान्‌के प्यारे भक्तोंकी जबतक कृपा नहीं हो जाती, तबतक इसे कोई सिखा नहीं सकता ।’

प्रेम बदौं प्रहलादहिको जिन पाहनतें परमेश्वरु काढ़े ॥

प्रेम तो प्रह्लादजीका है, जिन्होंने पत्थरमेंसे रामजीको निकाल लिया । जिस पत्थरमेंसे कोई-सा रस नहीं निकलता, ऐसे पत्थरमेंसे रसराज श्रीठाकुरजीको निकाल लिया । पाहनतें परमेश्वरु काढ़े’ थम्भेमेंसे भगवान् प्रकट हो गये । थम्भे अपने यहाँ भी बहुत-से खड़े हैं । थम्भा तो है ही, पर प्रह्लाद नहीं है । राक्षसके घरके थम्भोंसे ये अशुद्ध थोड़े ही हैं ? अपवित्र थोड़े ही हैं, पर जरूरत प्रह्लादकी है‒प्रकर्षेण आह्लादः यस्य स प्रह्लादः ।’ इधर तो मार पड़ रही है, पर भीतर खुशी हो रही है, प्रसन्नता हो रही है । भगवान्‌की कृपा देख-देखकर हर समय आनन्द हो रहा है । ऐसे हम भी प्रह्लाद हो जायँ ।
   
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे

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आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७१, रविवार
मानसमें नाम-वन्दना

                                                     
                     
              



 
 (गत ब्लॉगसे आगेका)

यह अपने हृदयकी बात है । मेरे निर्धनका धन यही है । कैसा बढ़िया धन है यह ! अन्तमें कहते हैं यह जो रत्न-मणि, सोना आदि है, इनसे मेरे मतलब नहीं है । ये पत्थरके टुकड़े हैं । इनसे क्या काम ! निर्धनका असली धन तो रामनाम है ।

धनवन्ता सोइ जानिये जाके रामनाम धन होय ।

यह धन जिसके पास है, वही धनी है । उसके बिना कंगले हैं सभी ।

सम्मीलने नयनयोर्न हि किञ्चिदस्ति ।

करोड़ों रुपये आज पासमें हैं, पर ये दोनों आँखें सदाके लिये जिस दिन बन्द हो गयीं, उस दिन कुछ नहीं है । सब यहाँका यहीं रह जायगा ।

सुपना सो हो जावसी सुत कुटुम्ब धन धाम ।

यह स्वप्नकी तरह हो जायगा । आँख खुलते ही स्वप्न कुछ नहीं और आँख मिचते ही यहाँका धन कुछ नहीं ।

स्थूल बुद्धिवाले बिना समझे कह देते हैं कि रामनामसे क्या होता है ? वे बेचारे इस बातको जानते नहीं, उन्हें पता ही नहीं है । इस विद्याको जाननेवाले ही जानते हैं भाई ! सच्ची लगन जिसके लगी है वह जानता है । दूसरोंको क्या पता ? जिसके लागी है सोई जाने दूजा क्या जाने रे भाई’ भगवान्‌का नाम लेनेवालोंका बड़े-बड़े लोकोंमें जहाँ जाते हैं, वहाँ आदर होता है कि भगवान्‌के भक्त पधारे हैं । हमारा लोक पवित्र हो जाय । भगवन्नामसे रोम-रोम, कण-कण पवित्र हो जाता है, महान् पवित्रता छा जाती है । ऐसा भगवान्‌का नाम है । जिसके हृदयमें नामके प्रति प्रेम जाग्रत् हो गया, वह असली धनी है । इससे भगवान् प्रकट हो जाते हैं । वह खुद ऐसा विलक्षण हो जाता है कि उसके दर्शन, स्पर्श, भाषणसे दूसरोंपर असर पड़ता है । नाम लेनेवाले सन्त-महात्माओंके दर्शनसे शान्ति मिलती है । अशान्ति दूर हो जाती है, शोक-चिन्ता दूर हो जाते हैं और पापोंका नाश हो जाता है । जहाँ वे रहते हैं, वे धाम पवित्र हो जाते हैं और जहाँ वे चलते हैं वहाँका वायुमण्डल पवित्र हो जाता है ।

प्रह्लादपर संत-कृपा

प्रह्लादजी महाराजपर नारदजीकी कृपा हो गयी । इन्द्रको हिरण्यकशिपुसे भय लगता था । हिरण्यकशिपु तपस्या करने गया हुआ था । पीछेसे इन्द्र उसकी स्त्री कयाधूको पकड़कर ले गया । बीचमें नारदजी मिल गये । उन्होंने कहा‒‘बेचारी अबलाका कोई कसूर नहीं है, इसको क्यों दुःख देता है भाई ! इन्द्रने कहा‒‘इसको दुःख नहीं देना है ! इसके गर्भमें बालक है । अकेले हिरण्यकशिपुने हमारेको इतना तंग कर दिया है, अगर यह बालक पैदा हो जायगा तो बाप और बेटा दो होनेपर हमारी क्या दशा करेंगे । इसलिये बालक जन्मेगा, तब उसे मार दूँगा, फिर काम ठीक हो जायगा ।’
   
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे

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आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल षष्ठीवि.सं.२०७१शनिवार
मानसमें नाम-वन्दना

                  
                                                 



 (गत ब्लॉगसे आगेका)

एक राजा भगवान्‌के बड़े भक्त थे, वे गुप्त रीतिसे भगवान्‌का भजन करते थे । उनकी रानी भी बड़ी भक्त थी । बचपनसे ही वह भजनमें लगी हुई थी । इस राजाके यहाँ ब्याहकर आयी तो यहाँ भी ठाकुरजीका खूब उत्सव मनाती, ब्राह्मणोंकी सेवा, दीन-दुःखियोंकी सेवा करती; भजन-ध्यानमें, उत्सवमें लगी रहती । राजा साहब उसे मना नहीं करते । वह रानी कभी-कभी कहती कि महाराज ! आप भी कभी-कभी राम-राम‒ऐसे भगवान्‌का नाम तो लिया करो ।’ वे हँस दिया करते । रानीके मनमें इस बातका बड़ा दुःख रहता कि क्या करें, और सब बड़ा अच्छा है । मेरेको सत्संग, भजन, ध्यान करते हुए मना नहीं करते; परन्तु राजा साहब स्वयं भजन नहीं करते ।

ऐसे होते-होते एक बार रानीने देखा कि राजासाहब गहरी नींदमें सोये हैं । करवट बदली तो नींदमें ही रामनाम कह दिया । अब सुबह होते ही रानीने उत्सव मनाया । बहुत ब्राह्मणोंको निमन्त्रण दिया; बच्चोंको, कन्याओंको भोजन कराया, उत्सव मनाया । राजासाहबने पूछा‒‘आज उत्सव किसका मना रही हो ? आज तो ठाकुरजीका भी कोई दिन विशेष नहीं है ।’ रानीने कहा‒‘आज हमारे बहुत ही खुशीकी बात है ।’ क्या खुशीकी बात है ? ‘महाराज ! बरसोंसे मेरे मनमें था कि आप भगवान्‌का नाम उच्चारण करें । रातमें आपके मुखसे नींदमें भगवान्‌का नाम निकला ।’ निकल गया ? ‘हाँ’ इतना कहते ही राजाके प्राण निकल गये । अरे मैंने उमरभर जिसे छिपाकर रखा था, आज निकल गया तो अब क्या जीना ?

गुप्त अकाम निरन्तर ध्यान सहित सानन्द ।
आदर जुत जपसे तुरत पावत  परमानन्द ॥

ये छः बातें जिस जपमें होती हैं, उस जपका तुरन्त और विशेष माहात्म्य होता है । भगवान्‌का नाम गुप्त रीतिसे लिया जाय, वह बढ़िया है । लोग देखें ही नहीं, पता ही न लगे‒यह बढ़िया बात है परंतु कम-से-कम दिखावटीपन तो होना ही नहीं चाहिये । इससे असली नाम-जप नहीं होता । नामका निरादर होता है । नामके बदले मान-बड़ाई खरीदते हैं, आदर खरीदते हैं, लोगोंको अपनी तरफ खींचते हैं‒यह नाम महाराजकी बिक्री करना है । यह बिक्रीकी चीज थोड़े ही है ! नाम जैसा धन, बतानेके लिये है क्या ? लौकिक धन भी लोग नहीं बताते, खूब छिपाकर रखते हैं । यह तो भीतर रखनेका है, असली धन है ।

                  माई मेरे निरधनको धन राम ।
                  रामनाम मेरे हृदयमें राखूं  ज्यूं  लोभी राखे दाम ॥
                  दिन दिन सूरज सवायो उगे, घटत न एक छदाम ।
                  सूरदास के इतनी पूँजी,  रतन मणि से नहीं काम ॥
   
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे

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