।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ पूर्णिमा, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
गुरुपूर्णिमा, श्रीव्यासपूजा
सन्त-चरण-रजका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)
सज्जनो ! मेरे मनमें बहुत बातें आती हैं आप विशेष ध्यान दें आप सब-के-सब योग्य हैं, बुद्धिमान् हैं, पात्र हैं मैं ऐसा नहीं मानता हूँ कि आप पापी हैं, अयोग्य हैं, अल्प-बुद्धि हैं, नीच हैंकिन्तु आप इधर ध्यान नहीं देते, लक्ष्य नहीं करतेयही कमी है आपकी केवल इस तरफ उत्कण्ठा नहीं है अन्यथा वह तत्त्व बहुत सुगमतासे प्राप्त हो जाय जो महान् विभूति, महान् गुण, महान् अवस्था है; जिसकी शास्त्रोंमें, वेदोंमें, पुराणोंमें बड़ी भारी महिमा गायी गयी है, ऐसे तत्त्वको आप सब-के-सब प्राप्त कर सकते हैं, कब ? केवल इतना लक्ष्य हो जाय कि ‘मैं उस तत्त्वको कैसे प्राप्त करूँ ?’ अर्थात् आप उस तत्त्वके लिये उत्कण्ठित हो जाओ अपनी जिद, अपनी बुद्धिमानीके अभिमानको छोड़ो, जिससे आपकी उत्कण्ठा देखकर सन्त-महात्मा द्रवित हो जायँ, खुश हो जायँ तथा सोचें कि यह तत्त्वको चाहता है सन्तोंकी खुशी और प्रसन्नतामें बहुत विलक्षणता भरी हुई रहती है इस प्रकारके कोई सन्त-महात्मा मिल जायँ तो उनके सामने हमें मेहनत नहीं करनी पड़ती

केवल शिष्य बननेसे इतना लाभ नहीं होता, जितना कि अधीन होनेसे, शरण होकर उत्कण्ठित होनेपर होता है । अर्जुनने भी भगवान्से‘शिष्यस्तेऽहम्’ ‘मैं आपका शिष्य हूँ’कहकर ‘शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’मैं आपकी शरण हूँ, मेरेको शिक्षा दीजियेऐसा कहा है अर्थात् शिष्य बननेसे भी अधिक विलक्षणता शरण होनेमें है उत्कण्ठा होनेपर ही वह विलक्षण चीज मिलती है

जैसे छोटा बच्चा केवल माँका ही दूध पीता है, जल-अन्न आदि कुछ नहीं लेता; अगर वह रोगी हो जाय तो माँको दवा लेनी पड़ती है; उससे बालक ठीक हो जाता है; क्योंकि वह केवल माँका ही दूध पीता है इस प्रकार केवल परमात्म-तत्त्वको जाननेकी उत्कण्ठावाले साधक सन्त-महात्माओंकी कृपाके आश्रित रहते हैं, अपनी कुछ भी बुद्धिमानी नहीं लगाते, अपना कुछ भी अभिमान नहीं रखते ‘मेरा क्या और कैसे होगा’ऐसी कुछ भी चिन्ता नहीं करते वे सन्त-महात्मा जो कुछ कहें, समझावें-उसीके अनुसार जीवन बनाना है, ऐसा जिनका भाव हो जाता है; उन साधकोंके उद्धारके लिये उन सन्त-महात्माओंको उद्योग करना पड़ता है अर्थात् उन साधकोंको मुफ्तमें वह तत्त्व प्राप्त हो जाता है जिस प्रकार केवल माँका दूध पीनेवाले बच्चेको भोजनकी और दवाईकी आवश्यकता है; उसी प्रकार केवल सन्त-महात्माओंकी कृपाके आश्रित रहना ही उनकी चरण-रज्जी लेना है । उनके चरणोंकी रज्जीका, धूलका माहात्म्य नहीं है; प्रत्युत उनके अनुकूल बननेका माहात्म्य है

‘हम धूलसे भी नीचे हैं’इस भावको लेकर उन (सन्त-महात्माओं) से हम बड़ी भारी (महान्) वस्तु ले सकते हैं हम छोटे बनकर, जिज्ञासु बनकर, अपनी बुद्धिमानी, हठ छोड़कर केवल सन्त-महात्माओंके अधीन हो जावें तो वे हमें सन्त बना देते हैं, कहा गया है

पारस में अरु सन्त में, बड़ो अन्तरो जान
वो लोहा कंचन करे, वो करे आप समान

पारस और सन्तमें बड़ा अन्तर है पारस लोहेको सोना तो बना सकता है किन्तु वह सोना दूसरे लोहेको सोना नहीं बना सकता; परन्तु सन्त-महापुरुषोंकी कृपा प्राप्त किये हुए पुरुष तो ऐसे सन्त बन जाते हैं कि वे दूसरे लोगोंको भी सन्त बना देते हैं वहाँ सोना ही नहीं, पारसकी खान खुल जाती है

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे

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