।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल तृतीयावि.सं.२०७१सोमवार
मुक्तिका उपाय



(गत ब्लॉगसे आगेका)
 वसिष्ठजीके द्वारा इस प्रकार समझाये जानेपर सोमशर्मा अपनी स्त्री सुमनाके साथ बड़ी तत्परतासे भगवान्‌के भजनमें लग गये । उठतेबैठतेचलतेसोते आदि सब समयमें उनकी दृष्टि भगवान्‌की तरफ ही रहने लगी । बड़े-बड़े विघ्न आनेपर भी वे अपने साधनसे विचलित नहीं हुए । इस प्रकार उनकी लगनको देखकर भगवान् उनके सामने प्रकट हो गये । भगवान्‌के वरदानसे उनको मनुष्यलोकके उत्तम भोगोंकी और भगवद्भक्त तथा धर्मात्मा पुत्रकी प्राप्ति हो गयी ।

सोमशर्माके पुत्रका नाम सुव्रत था । सुब्रत बचपनसे ही भगवान्‌का अनन्य भक्त था । खेल खेलते समय भी उसका मन भगवान् विष्णुके ध्यानमें लगा रहता था । जब माता सुमना उससे कहती कि ‘बेटा ! तुझे भूख लगी होगीकुछ खा ले’ तब वह कहता कि ‘माँ भगवान्‌का ध्यान महान् अमृतके समान हैमैं तो उसीसे तृप्त रहता हूँ !’ जब उसके सामने मिठाई आती तो वह उसको भगवान्‌के ही अर्पण कर देता और कहता कि ‘इस अन्नसे भगवान् तृप्त हों ।’ जब वह सोने लगतातब भगवान्‌का चिन्तन करते हुए कहता कि ‘मैं योगनिद्रापरायण भगवान् कृष्णकी शरण लेता हूँ ।’ इस प्रकार भोजन करतेवस्त्र पहनतेबैठते और सोते समय भी वह भगवान्‌के चिन्तनमें लगा रहता और सब वस्तुओंको भगवान्‌के अर्पण करता रहता । युवावस्था आनेपर भी वह भोगोंमें आसक्त नहीं हुआप्रत्युत भोगोंका त्याग-करके सर्वथा भगवान्‌के भजनमें ही लग गया । उसकी ऐसी भक्तिसे प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु उसके सामने प्रकट हो गये । भगवान्‌ने उससे वर माँगनेके लिये कहा तो वह बोला‒‘श्रीकृष्ण ! अगर आप मेरेपर प्रसन्न हैं तो मेरे माता-पिताको सशरीर अपने परम-धाममें पहुँचा दें और मेरे साथ मेरी पत्नीको भी अपने लोकमें ले चलें ।’ भगवान्‌ने सुब्रतकी भक्तिसे संतुष्ट होकर उसको उत्तम वरदान दे दिया । इस प्रकार पुत्रकी भक्तिके प्रभावसे सोमशर्मा और सुमना भी भगवद्धामको प्राप्त हो गये ।

इस कथामें विशेष बात यह आयी है कि संसारमें किसीका ऋण चुकानेके लिये और किसीसे ऋण वसूल करनेके लिये ही जन्म होता हैक्योंकि जीवने अनेक लोगोंसे लिया है और अनेक लोगोंको दिया है । लेन-देनका यह व्यवहार अनेक जन्मोंसे चला आ रहा है और इसको बंद किये बिना जन्म-मरणसे छुटकारा नहीं मिल सकता ।

संसारमें जिनसे हमारा सम्बन्ध होता है वे माता,पितास्त्रीपुत्र तथा पशु-पक्षी आदि सब लेन-देनके लिये ही आये हैं । अतः मनुष्यको चाहिये कि वह उनमें मोह-ममता न करके अपने कर्तव्यका पालन करे अर्थात् उनकी सेवा करे,उन्हें यथाशक्ति सुख पहुँचाये । यहाँ यह शंका हो सकती है कि अगर हम दूसरेके साथ शत्रुताका बर्ताव करते हैं तो इसका दोष हमें क्यों लगता हैक्योंकि हम तो ऐसा व्यवहार पूर्वजन्मके ऋणानुबन्धसे ही करते हैं इसका समाधान यह है कि मनुष्य-शरीर विवेकप्रधान है । अतः अपने विवेकको महत्त्व देकर हमारे साथ बुरा व्यवहार करनेवालेको हम माफ कर सकते हैं और बदलेमें उससे अच्छा व्यवहार कर सकते हैं* । मनुष्य-शरीर बदला लेनेके लिये नहीं हैप्रत्युत जन्म-मरणसे सदाके लिये मुक्त होनेके लिये है । अगर हम पूर्वजन्मके ऋणानुबन्धसे लेन-देनका व्यवहार करते रहेंगे तो हम कभी जन्म-मरणसे मुक्त हो ही नहीं सकेंगे । लेन-देनके इस व्यवहारको बंद करनेका उपाय है‒निःस्वार्थभावसे दूसरोंके हितके लिये कर्म करना । दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और बदलेमें कुछ न चाहनेसे नया ऋण उत्पन्न नहीं होता । इस प्रकार ऋणसे मुक्त होनेपर मनुष्य जन्म-मरणसे छूट जाता है ।

अगर मनुष्य भक्त सुब्रतकी तरह सब प्रकारसे भगवान्‌के ही भजनमें लग जाय तो उसके सभी ऋण समाप्त हो जाते हैं अर्थात् वह किसीका भी ऋणी नहीं रहता ।भगवद्धजनके प्रभावसे वह सभी ऋणोंसे मुक्त होकर सदाके लिये जन्म-मरणके चक्रसे छूट जाता है और भगवान्‌के परमधामको प्राप्त हो जाता है ।

नारायण !     नारायण !!   नारायण !!!
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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* देवर्षिभूताप्तनृणां पितॄणां न किङ्करो नायमृणी च राजन् ।
     सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं   गतो  मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ॥
                                                                        (श्रीमद्भा ११। ५। ४१)

 उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥
                                                                                                      (मानस ५ । ४१ । ४)


।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल द्वितीयावि.सं.२०७१रविवार
श्रीजगदीश-रथयात्रा
मुक्तिका उपाय



(गत ब्लॉगसे आगेका)
 इस प्रकार जैसे पुत्र तीन प्रकारके होते हैंऐसे ही मातापितापत्नीपुत्रभाई आदि और नौकरपड़ोसी,मित्र तथा गायभैंसघोड़े आदि भी तीन प्रकारके (शत्रु,मित्र और उदासीन) होते हैं । इन सबके साथ हमारा सम्बन्ध ऋणानुबन्धसे ही होता है ।’

‘प्रियतम ! जिस मनुष्यको जितना धन मिलना है,उसको बिना परिश्रम किये ही उतना धन मिल जाता है और जब धन जानेका समय आता हैतब कितनी ही रक्षा करनेपर भी वह चला जाता है‒ऐसा समझकर आपको धनकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । वास्तवमें धर्मके पालनसे ही पुत्र और धनकी प्राप्ति होती है । धर्मका आचरण करनेवाले मनुष्य ही संसारमें सुख पाते हैं । इसलिये आप धर्मका अनुष्ठान करें । जो मनुष्य मन वाणीऔर शरीरसे धर्मका आचरण करता है,उसके लिये संसारमें कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रहती ।’

ऐसा कहनेके बाद सुमनाने विस्तारसे धर्मका स्वरूप तथा उसके अंगोंका वर्णन किया । उसको सुनकर सोमशर्माने प्रश्र किया कि ‘तुम्हें इन सब गहरी बातोंका ज्ञान कैसे हुआ ?’ सुमनाने कहा‒‘आप जानते ही हैं कि मेरे पिताजी धर्मात्मा और शास्त्रोंके तत्त्वको जाननेवाले थेजिससे साधुलोग भी उनका आदर किया करते थे । वे खुद भी अच्छे-अच्छे सन्तोंके पास जाया करते तथा सत्संग किया करते थे । मैं उनकी एक ही बेटी होनेके कारण वे मेरेपर बड़ा स्नेह रखा करते तथा अपने साथ मुझे भी सत्संगमें ले जाया करते थे । इस प्रकार सत्संगके प्रभावसे मुझे भी धर्मके तत्त्वका ज्ञान हो गया ।’

यह सब सुनकर सोमशर्माने पुत्रकी प्राप्तिका उपाय पूछा । सुमनाने कहा कि ‘आप महामुनि वसिष्ठजीके पास जायँ और उनसे प्रार्थना करें । उनकी कृपासे आपको गुणवान् पुत्रकी प्राप्ति हो सकती है ।’ पत्नीके ऐसा कहनेपर सोमशर्मा वसिष्ठजीके पास गये । उन्होंने वसिष्ठजीसे पूछा कि ‘किस पापके कारण मुझे पुत्र और धनके अभावका कष्ट भोगना पड़ रहा है ?’ वसिष्ठजीने कहा‒‘पूर्वजन्ममें तुम बड़े लोभी थे तथा दूसरोंके साथ सदा द्वेष रखते थे । तुमने कभी तीर्थयात्रा,देवपूजनदान आदि शुभकर्म नहीं किये । श्राद्धका दिन आनेपर तुम घरसे बाहर चले जाते थे । धन ही तुम्हारा सब कुछ था । तुमने धर्मको छोड़कर धनका ही आश्रय ले रखा था । तुम रात-दिन धनकी ही चिन्तामें लगे रहते थे । तुम्हें अरबों-खरबों स्वर्णमुद्राएँ प्राप्त हो गयींफिर भी तुम्हारी तृष्णा कम नहीं हुईप्रत्युत बढ़ती ही रही । तुमने जीवनमें जितना धन कमायावह सब जमीनमें गाड़ दिया । स्त्री और पुत्र पूछते ही रह गयेकिंतु तुमने उनको न तो धन दिया और न धनका पता ही बताया । धनके लोभमें आकर तुमने पुत्रका स्नेह भी छोड़ दिया । इन्हीं कर्मोंके कारण तुम इस जन्ममें दरिद्र और पुत्रहीन हुए हो । हाँ, एक बार तुमने घरपर अतिथिरूपसे आये एक विष्णुभक्त और धर्मात्मा ब्राह्मणकी प्रसन्नतापूर्वक सेवा की । उनके साथ तुमने अपनी स्त्रीसहित एकादशीव्रत रखा और भगवान् विष्णुका पूजन भी किया । इस कारण तुम्हें उत्तम ब्राह्मण-वशमें जन्म मिला है । विप्रवर ! उत्तम स्त्रीपुत्रकुलराज्यसुखमोक्ष आदि दुर्लभ वस्तुओंकी प्राप्ति भगवान् विष्णुकी कृपासे ही होती है । अतः तुम भगवान् विष्णुकी ही शरणमें जाओ और उन्हींका भजन करो ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे


।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदावि.सं.२०७१शनिवार
मुक्तिका उपाय



पुराण भारतीय संस्कृतिकी अमूल्य निधि है । पुराणोंमें मानव-जीवनको ऊँचा उठानेवाली अनेक सरल,सरससुन्दर और विचित्र-विचित्र कथाएँ भरी पड़ी हैं । उन कथाओंका तात्पर्य राग-द्वेषरहित होकर अपने कर्तव्यका पालन करने और भगवान्‌को प्राप्त करनेमें ही है ।पद्मपुराणके भूमिखण्डमें ऐसी ही एक कथा आती है ।

अमरकण्टक तीर्थमें सोमशर्मा नामके एक ब्राह्मण रहते थे । उनकी पत्नीका नाम था सुमना । वह बड़ी साध्वी और पतिव्रता थी । उनके कोई पुत्र नहीं था और धनका भी उनके पास अभाव था । पुत्र और धनका अभाव होनेके कारण सोमशर्मा बहुत दुःखी रहने लगे । एक दिन अपने पतिको अत्यन्त चिन्तित देखकर सुमनाने कहा कि ‘प्राणनाथ ! आप चिन्ताको छोड़ दीजियेक्योंकि चिन्ताके समान दूसरा कोई दुःख नहीं है । स्त्रीपुत्र और धनकी चिन्ता तो कभी करनी ही नहीं चाहिये । इस संसारमें ऋणानुबन्धसे अर्थात् किसीका ऋण चुकानेके लिये और किसीसे ऋण वसूल करनेके लिये ही जीवका जन्म होता है । मातापितास्त्रीपुत्रभाईमित्र,सेवक आदि सब लोग अपने-अपने ऋणानुबन्धसे ही इस पृथ्वीपर जन्म लेकर हमें प्राप्त होते हैं । केवल मनुष्य ही नहीं,पशु-पक्षी भी ऋणानुबन्धसे ही प्राप्त होते हैं ।’

‘संसारमें शत्रु, मित्र और उदासीन‒ऐसे तीन प्रकारके पुत्र होते हैं । शत्रु-स्वभाववाले पुत्रके दो भेद हैं । पहला,किसीने पूर्वजन्ममें दूसरेसे ऋण लियापर उसको चुकाया नहीं तो दूसरे जन्ममें ऋण देनेवाला उस ऋणीका पुत्र बनता है । दूसराकिसीने पूर्वजन्ममें दूसरेके पास अपनी धरोहर रखीपर जब धरोहर देनेका समय आयातब उसने धरोहर लौटायी नहींहड़प ली तो दूसरे जन्ममें धरोहरका स्वामी उस धरोहर हड़पनेवालेका पुत्र बनता है । ये दोनों ही प्रकारके पुत्र बचपनसे माता-पिताके साथ वैर रखते हैं और उसके साथ शत्रुकी तरह बर्ताव करते हैं । बड़े होनेपर वे माता-पिताकी सम्पत्तिको व्यर्थ ही नष्ट कर देते हैं । जब उनका विवाह हो जाता हैतब वे माता-पितासे कहते हैं कि यह घरखेत आदि सब मेरा हैतुमलोग मुझे मना करनेवाले कौन हो इस तरह वे कई प्रकारसे माता-पिताको कष्ट देते हैं । माता-पिताकी मृत्युके बाद वे उनके लिये श्राद्ध-तर्पण आदि भी नहीं करते । मित्र-स्वभाववाला पुत्र बचपनसे ही माता-पिताका हितैषी होता है । वह माता-पिताको सदा संतुष्ट रखता है और स्नेहसेमीठी वाणीसे उनको सदा प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करता है । माता-पिताकी मृत्युके बाद वह उनके लिये श्राद्ध-तर्पणतीर्थयात्रादान आदि भी करता है । उदासीन-स्वभाववाला पुत्र सदा उदासीनभावसे रहता है । वह न कुछ देता है और न कुछ लेता है । वह न रुष्ट होता है,न संतुष्टन सुख देता हैन दुःख*   

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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कोई व्यक्ति किसी सन्तकी खूब लगनसे सेवा करता है । अन्तसमयमें किसी कारणसे सन्तको उस सेवककी याद आ जाय तो वह उस सेवकके घरमें पुत्ररूपसे जन्म लेता है और उदासीनभावसे रहता है ।


।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ अमावस्यावि.सं.२०७१शुक्रवार
आहार-शुद्धि



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
 जैसे प्राणियोंकी वृत्तियोंका पदार्थोंपर असर पड़ता हैऐसे ही प्राणियोंकी दृष्टिका भी असर पड़ता है । बुरे व्यक्तिकी अथवा भूखे कुत्तेकी दृष्टि भोजनपर पड़ जाती है तो वह भोजन अपवित्र हो जाता है । अब वह भोजन पवित्र कैसे हो भोजनपर उसकी दृष्टि पड़ जाय तो उसे देखकर मनमें प्रसन्न हो जाना चाहिये कि भगवान् पधारे हैं ! अतः उसको सबसे पहले थोड़ा अन्न देकर भोजन करा दे । उसके देनेके बाद बचे हुए शुद्ध अन्नको स्वयं ग्रहण करे तो दृष्टिदोष मिट जानेसे वह अन्न पवित्र हो जाता है । दूसरी बातलोग बछड़ेको पेटभर दूध न पिलाकर सारा दूध स्वयं दुह लेते हैं । वह दूध पवित्र नहीं होताक्योंकि उसमें बछड़ेका हक आ जाता है । बछड़ेको पेटभर दूध पिला दे और इसके बाद जो दूध निकलेवह चाहे पावभर ही क्यों न होबहुत पवित्र होता है ।

भोजन करनेवाले और करानेवालेके भावका भी भोजनपर असर पड़ता हैजैसे‒(१) भोजन करनेवालेकी अपेक्षा भोजन करानेवालेकी जितनी अधिक प्रसन्नता होगी,वह भोजन उतने ही उत्तम दर्जेका माना जायगा । (२) भोजन करानेवाला तो बड़ी प्रसन्नतासे भोजन कराता हैपरन्तु भोजन करनेवाला ‘मुफ्तमें भोजन मिल गयाअपने इतने पैसे बच गयेइससे मेरेमें बल आ जायगा’ आदि स्वार्थका भाव रख लेता है तो वह भोजन मध्यम दर्जेका हो जाता है और (३) भोजन करानेवालेका यह भाव है कि ‘यह घरपर आ गया तो खर्चा करना पड़ेगाभोजन बनाना पड़ेगाभोजन कराना ही पड़ेगा’ आदि और भोजन करनेवालेमें भी स्वार्थभाव है तो वह भोजन निकृष्ट दर्जेका हो जायगा ।

इस विषयमें गीताने सिद्धान्तरूपसे कह दिया है‒‘सर्वभूतहिते रताः’ (५ । २५१२ । ४) । तात्पर्य यह है किजिसका सम्पूर्ण प्राणियोंमें हितका भाव जितना अधिक होगाउसके पदार्थक्रियाएँ आदि उतनी ही पवित्र हो जायँगी ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘आहार-शुद्धि’ पुस्तकसे


।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशीवि.सं.२०७१गुरुवार
श्राद्धकी अमावस्या
आहार-शुद्धि



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
 भोजनके पहले दोनों हाथदोनों पैर और मुख‒ये पाँचों शुद्धपवित्र जलसे धो ले । फिर पूर्व या उत्तरकी ओर मुख करके शुद्ध आसनपर बैठकर भोजनकी सब चीजोंको‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥’ (गीता ९ । २६)‒यह श्लोक पढ़कर भगवान्‌के अर्पण कर दे । अर्पणके बाद दायें हाथमें जल लेकर ‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मैव तेन गन्तव्य ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥’ (गीता ४ । २४)‒यह श्लोक पढ़कर आचमन करे और भोजनका पहला ग्रास भगवान्‌का नाम लेकर ही मुखमें डाले । प्रत्येक ग्रासको चबाते समय ‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥’इस मन्त्रको मनसे दो बार पढ़ते हुए या अपने इष्टका नाम लेते हुए ग्रासको चबाये और निगले । इस मन्त्रमें कुल सोलह नाम हैं और दो बार मन्त्र पढ़नेसे बत्तीस नाम हो जाते हैं । हमारे मुखमें भी बत्तीस ही दाँत हैं । अतः (मन्त्रके प्रत्येक नामके साथ बत्तीस बार चबानेसे वह भोजन सुपाच्य और आरोग्यदायक होता है एवं थोड़े अन्नसे ही तृप्ति हो जाती है तथा उसका रस भी अच्छा बनता है और इसके साथ ही भोजन भी भजन बन जाता है ।

भोजन करते समय ग्रास-ग्रासमें भगवन्नाम-जप करते रहनेसे अन्नदोष भी दूर हो जाता है ।

जो लोग ईर्ष्याभय और क्रोधसे युक्त हैं तथा लोभी हैंऔर रोग तथा दीनतासे पीड़ित और द्वेषयुक्त हैंवे जिस भोजनको करते हैंवह अच्छी तरह पचता नहीं अर्थात् उससे अजीर्ण हो जाता है । इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह भोजन करते समय मनको शान्त तथा प्रसन्न रखे । मनमें कामक्रोधलोभमोह आदि दोषोंकी वृत्तियोंको न आने दे । यदि कभी आ जायँ तो उस समय भोजन न करेक्योंकि वृत्तियोंका असर भोजनपर पड़ता है और उसीके अनुसार अन्तःकरण बनता है । ऐसा भी सुननेमें आया है कि फौजी लोग जब गायको दुहते हैंतब दुहनेसे पहले बछड़ा छोड़ते हैं और उस बछड़ेके पीछे कुत्ता छोड़ते हैं । अपने बछड़ेके पीछे कुत्तेको देखकर जब गाय गुस्सेमें आ जाती हैतब बछड़ेको लाकर बाँध देते हैं और फिर गायको दुहते हैं । वह दूध फौजियोंको पिलाते हैंजिससे वे लोग खूँखार बनते हैं ।

ऐसे ही दूधका भी असर प्राणियोंपर पड़ता है । एक बार किसीने परीक्षाके लिये कुछ घोड़ोंको भैंसका दूध और कुछ घोड़ोंको गायका दूध पिलाकर उन्हें तैयार किया । एक दिन सभी घोड़े कहीं जा रहे थे । रास्तेमें नदीका जल था । भैंसका दूध पीनेवाले घोड़े उस जलमें बैठ गये और गायका दूध पीनेवाले घोड़े उस जलको पार कर गये । इसी प्रकार बैल और भैंसेका परस्पर युद्ध कराया जाय तो भैंसा बैलको मार देगापरन्तु यदि दोनोंको गाड़ीमें जोता जाय तो भैंसा धूपमें जीभ निकाल देगाजबकि बैल धूपमें भी चलता रहेगा । कारण कि भैंसके दूधमें सात्त्विक बल नहीं होताजबकि गायके दूधमें सात्त्विक बल होता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘आहार-शुद्धि’ पुस्तकसे


।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशीवि.सं.२०७१बुधवार
आहार-शुद्धि



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒शरीरमें शक्ति कम होनेपर ज्यादा रोग होते हैं‒यह बात कहाँतक ठीक है ?

उत्तर‒इस विषयमें दो मत हैं‒आयुर्वेदका मत और धर्मशास्त्रका मत । आयुर्वेदकी दृष्टि शरीरपर ही रहती है;अतः वह ‘शरीरमें शक्ति कम होनेपर रोग ज्यादा पैदा होते हैं’ऐसा मानता है । परन्तु धर्मशास्त्रकी दृष्टि शुभ-अशुभ कर्मोंपर रहती हैअतः वह रोगोंके होनेमें पाप-कर्मोंको ही कारण मानता है ।

जब मनुष्योंके क्रियमाण- (कुपथ्यजन्य-) कर्म अथवा प्रारब्ध- (पाप-) कर्म अपना फल देनेके लिये आ जाते हैंतब कफवात और पित्त‒यें तीनों विकृत होकर रोगोंको पैदा करनेमें हेतु बन जाते हैं और तभी भूत-प्रेत भी शरीरमें प्रविष्ट होकर रोग पैदा कर सकते हैंकहा भी है‒

                 वैद्या वदन्ति कफपित्तमरुद्विकारान्
                         ज्योतिर्विदो  ग्रहगतिं  परिवर्तयन्ति ।
                 भूता विशन्तीति  भूतविदो  वदन्ति
                         प्रारब्धकर्म   बलवन्मुनयो   वदन्ति ॥

‘रोगोंके पैदा होनेमें वैद्यलोग कफपित्त और वातको कारण मानते हैं, ज्योतिषीलोग ग्रहोंकी गतिको कारण मानते हैंप्रेतविद्यावाले भूत-प्रेतोंके प्रविष्ट होनेको कारण मानते हैं;परन्तु मुनिलोग प्रारब्धकर्मको ही बलवान् (कारण) मानते हैं ।’

भोजनके लिये आवश्यक विचार

उपनिषदोंमें आता है कि जैसा अन्न होता हैवैसा ही मन बनता है‒‘अन्नमय हि सोम्य मनः ।’ (छान्दोग्य ६ । ५ । ४) अर्थात् अन्नका असर मनपर पड़ता है । अन्नके सूक्ष्म सारभागसे मन (अन्तःकरण) बनता हैदूसरे नम्बरके भागसे वीर्यतीसरे नम्बरके भागसे मल बनता है जो कि बाहर निकल जाता है । अतः मनको शुद्ध बनानेके लिये भोजन शुद्धपवित्र होना चाहिये । भोजनकी शुद्धिसे मन (अन्तःकरण-) की शुद्धि होती है‒‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः’(छान्दोग्य २ । २६ । २) । जहाँ भोजन करते हैंवहाँका स्थानवायुमण्डलदृश्य तथा जिसपर बैठकर भोजन करते हैंवह आसन भी शुद्धपवित्र होना चाहिये । कारण कि भोजन करते समय प्राण जब अन्न ग्रहण करते हैंतब वे शरीरके सभी रोमकूपोंसे आसपासके परमाणुओंको भी खींचते‒ग्रहण करते हैं । अतः वहाँका स्थानवायुमण्डल आदि जैसे होंगेप्राण वैसे ही परमाणु खींचेंगे और उन्हींके अनुसार मन बनेगा । भोजन बनानेवालेके भावविचार भी शुद्ध सात्त्विक हों ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘आहार-शुद्धि’ पुस्तकसे