।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल द्वितीयावि.सं.२०७१रविवार
श्रीजगदीश-रथयात्रा
मुक्तिका उपाय



(गत ब्लॉगसे आगेका)
 इस प्रकार जैसे पुत्र तीन प्रकारके होते हैंऐसे ही मातापितापत्नीपुत्रभाई आदि और नौकरपड़ोसी,मित्र तथा गायभैंसघोड़े आदि भी तीन प्रकारके (शत्रु,मित्र और उदासीन) होते हैं । इन सबके साथ हमारा सम्बन्ध ऋणानुबन्धसे ही होता है ।’

‘प्रियतम ! जिस मनुष्यको जितना धन मिलना है,उसको बिना परिश्रम किये ही उतना धन मिल जाता है और जब धन जानेका समय आता हैतब कितनी ही रक्षा करनेपर भी वह चला जाता है‒ऐसा समझकर आपको धनकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । वास्तवमें धर्मके पालनसे ही पुत्र और धनकी प्राप्ति होती है । धर्मका आचरण करनेवाले मनुष्य ही संसारमें सुख पाते हैं । इसलिये आप धर्मका अनुष्ठान करें । जो मनुष्य मन वाणीऔर शरीरसे धर्मका आचरण करता है,उसके लिये संसारमें कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रहती ।’

ऐसा कहनेके बाद सुमनाने विस्तारसे धर्मका स्वरूप तथा उसके अंगोंका वर्णन किया । उसको सुनकर सोमशर्माने प्रश्र किया कि ‘तुम्हें इन सब गहरी बातोंका ज्ञान कैसे हुआ ?’ सुमनाने कहा‒‘आप जानते ही हैं कि मेरे पिताजी धर्मात्मा और शास्त्रोंके तत्त्वको जाननेवाले थेजिससे साधुलोग भी उनका आदर किया करते थे । वे खुद भी अच्छे-अच्छे सन्तोंके पास जाया करते तथा सत्संग किया करते थे । मैं उनकी एक ही बेटी होनेके कारण वे मेरेपर बड़ा स्नेह रखा करते तथा अपने साथ मुझे भी सत्संगमें ले जाया करते थे । इस प्रकार सत्संगके प्रभावसे मुझे भी धर्मके तत्त्वका ज्ञान हो गया ।’

यह सब सुनकर सोमशर्माने पुत्रकी प्राप्तिका उपाय पूछा । सुमनाने कहा कि ‘आप महामुनि वसिष्ठजीके पास जायँ और उनसे प्रार्थना करें । उनकी कृपासे आपको गुणवान् पुत्रकी प्राप्ति हो सकती है ।’ पत्नीके ऐसा कहनेपर सोमशर्मा वसिष्ठजीके पास गये । उन्होंने वसिष्ठजीसे पूछा कि ‘किस पापके कारण मुझे पुत्र और धनके अभावका कष्ट भोगना पड़ रहा है ?’ वसिष्ठजीने कहा‒‘पूर्वजन्ममें तुम बड़े लोभी थे तथा दूसरोंके साथ सदा द्वेष रखते थे । तुमने कभी तीर्थयात्रा,देवपूजनदान आदि शुभकर्म नहीं किये । श्राद्धका दिन आनेपर तुम घरसे बाहर चले जाते थे । धन ही तुम्हारा सब कुछ था । तुमने धर्मको छोड़कर धनका ही आश्रय ले रखा था । तुम रात-दिन धनकी ही चिन्तामें लगे रहते थे । तुम्हें अरबों-खरबों स्वर्णमुद्राएँ प्राप्त हो गयींफिर भी तुम्हारी तृष्णा कम नहीं हुईप्रत्युत बढ़ती ही रही । तुमने जीवनमें जितना धन कमायावह सब जमीनमें गाड़ दिया । स्त्री और पुत्र पूछते ही रह गयेकिंतु तुमने उनको न तो धन दिया और न धनका पता ही बताया । धनके लोभमें आकर तुमने पुत्रका स्नेह भी छोड़ दिया । इन्हीं कर्मोंके कारण तुम इस जन्ममें दरिद्र और पुत्रहीन हुए हो । हाँ, एक बार तुमने घरपर अतिथिरूपसे आये एक विष्णुभक्त और धर्मात्मा ब्राह्मणकी प्रसन्नतापूर्वक सेवा की । उनके साथ तुमने अपनी स्त्रीसहित एकादशीव्रत रखा और भगवान् विष्णुका पूजन भी किया । इस कारण तुम्हें उत्तम ब्राह्मण-वशमें जन्म मिला है । विप्रवर ! उत्तम स्त्रीपुत्रकुलराज्यसुखमोक्ष आदि दुर्लभ वस्तुओंकी प्राप्ति भगवान् विष्णुकी कृपासे ही होती है । अतः तुम भगवान् विष्णुकी ही शरणमें जाओ और उन्हींका भजन करो ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे