पुराण भारतीय संस्कृतिकी अमूल्य निधि है । पुराणोंमें मानव-जीवनको ऊँचा उठानेवाली अनेक सरल,सरस, सुन्दर और विचित्र-विचित्र कथाएँ भरी पड़ी हैं । उन कथाओंका तात्पर्य राग-द्वेषरहित होकर अपने कर्तव्यका पालन करने और भगवान्को प्राप्त करनेमें ही है ।पद्मपुराणके भूमिखण्डमें ऐसी ही एक कथा आती है ।
अमरकण्टक तीर्थमें सोमशर्मा नामके एक ब्राह्मण रहते थे । उनकी पत्नीका नाम था सुमना । वह बड़ी साध्वी और पतिव्रता थी । उनके कोई पुत्र नहीं था और धनका भी उनके पास अभाव था । पुत्र और धनका अभाव होनेके कारण सोमशर्मा बहुत दुःखी रहने लगे । एक दिन अपने पतिको अत्यन्त चिन्तित देखकर सुमनाने कहा कि ‘प्राणनाथ ! आप चिन्ताको छोड़ दीजिये; क्योंकि चिन्ताके समान दूसरा कोई दुःख नहीं है । स्त्री, पुत्र और धनकी चिन्ता तो कभी करनी ही नहीं चाहिये । इस संसारमें ऋणानुबन्धसे अर्थात् किसीका ऋण चुकानेके लिये और किसीसे ऋण वसूल करनेके लिये ही जीवका जन्म होता है । माता, पिता, स्त्री, पुत्र, भाई, मित्र,सेवक आदि सब लोग अपने-अपने ऋणानुबन्धसे ही इस पृथ्वीपर जन्म लेकर हमें प्राप्त होते हैं । केवल मनुष्य ही नहीं,पशु-पक्षी भी ऋणानुबन्धसे ही प्राप्त होते हैं ।’
‘संसारमें शत्रु, मित्र और उदासीन‒ऐसे तीन प्रकारके पुत्र होते हैं । शत्रु-स्वभाववाले पुत्रके दो भेद हैं । पहला,किसीने पूर्वजन्ममें दूसरेसे ऋण लिया, पर उसको चुकाया नहीं तो दूसरे जन्ममें ऋण देनेवाला उस ऋणीका पुत्र बनता है । दूसरा, किसीने पूर्वजन्ममें दूसरेके पास अपनी धरोहर रखी, पर जब धरोहर देनेका समय आया, तब उसने धरोहर लौटायी नहीं, हड़प ली तो दूसरे जन्ममें धरोहरका स्वामी उस धरोहर हड़पनेवालेका पुत्र बनता है । ये दोनों ही प्रकारके पुत्र बचपनसे माता-पिताके साथ वैर रखते हैं और उसके साथ शत्रुकी तरह बर्ताव करते हैं । बड़े होनेपर वे माता-पिताकी सम्पत्तिको व्यर्थ ही नष्ट कर देते हैं । जब उनका विवाह हो जाता है, तब वे माता-पितासे कहते हैं कि यह घर, खेत आदि सब मेरा है, तुमलोग मुझे मना करनेवाले कौन हो ? इस तरह वे कई प्रकारसे माता-पिताको कष्ट देते हैं । माता-पिताकी मृत्युके बाद वे उनके लिये श्राद्ध-तर्पण आदि भी नहीं करते । मित्र-स्वभाववाला पुत्र बचपनसे ही माता-पिताका हितैषी होता है । वह माता-पिताको सदा संतुष्ट रखता है और स्नेहसे, मीठी वाणीसे उनको सदा प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करता है । माता-पिताकी मृत्युके बाद वह उनके लिये श्राद्ध-तर्पण, तीर्थयात्रा, दान आदि भी करता है । उदासीन-स्वभाववाला पुत्र सदा उदासीनभावसे रहता है । वह न कुछ देता है और न कुछ लेता है । वह न रुष्ट होता है,न संतुष्ट; न सुख देता है, न दुःख* ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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* कोई व्यक्ति किसी सन्तकी खूब लगनसे सेवा करता है । अन्तसमयमें किसी कारणसे सन्तको उस सेवककी याद आ जाय तो वह उस सेवकके घरमें पुत्ररूपसे जन्म लेता है और उदासीनभावसे रहता है ।
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