।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                        




           आजकी शुभ तिथि–
पौष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७७, गुरुवा

कामना


जबतक साधकमें अपने सुख, आराम, मान, बड़ाई आदिकी कामना है, तबतक उसका व्यक्तित्व नहीं मिटता और व्यक्तित्व मिटे बिना तत्त्वसे अभिन्नता नहीं होती ।

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जब हमारे अन्तःकरणमें किसी प्रकारकी कामना नहीं रहेगी, तब हमें भगवत्प्राप्तिकी भी इच्छा नहीं करनी पड़ेगी, प्रत्युत भगवान्‌ स्वयं प्राप्त हो जायँगे ।

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संसारकी कामना पशुताका और भगवान्‌की कामनासे मनुष्यताका आरम्भ होता है ।

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‘मेरे मनकी हो जाय’‒इसीको कामना कहते हैं । यह कामना ही दुःखका कारण है । इसका त्याग किये बिना कोई सुखी नहीं हो सकता ।

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मुझे सुख कैसे मिले‒केवल इसी चाहनाके कारण मनुष्य कर्तव्यच्युत और पतित हो जाता है ।

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कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य अपने कर्तव्यसे, अपने स्वरूपसे और अपने इष्ट (भगवान्‌)-से विमुख हो जाता है और नाशवान्‌ संसारके सम्मुख हो जाता है ।

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साधकको न तो लौकिक इच्छाओंकी पूर्तिकी आशा रखनी चाहिये और न पारमार्थिक इच्छाकी पूर्तिसे निराश ही होना चाहिये ।

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कामनाओंके त्यागमें सब स्वतन्त्र, अधिकारी, योग्य और समर्थ हैं । परन्तु कामनाओंकी पूर्तिमें कोई भी स्वतन्त्र, अधिकारी, योग्य और समर्थ नहीं है ।

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ज्यों-ज्यों कामनाएँ नष्ट होती हैं, त्यों-त्यों साधुता आती है और ज्यों-ज्यों कामनाएँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों साधुता लिप्त होती है । कारण कि असाधुताका मूल हेतु कामना ही है ।

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कामनामात्रसे कोई पदार्थ नहीं मिलता, अगर मिलता भी है तो सदा साथ नहीं रहता‒ऐसी प्रत्यक्ष बात होनेपर भी पदार्थोंकी कामना रखना प्रमाद ही है ।

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जीवन तभी कष्टमय होता है, जब संयोगजन्य सुखकी इच्छा करतें हैं और मृत्यु तभी कष्टमय होती है, जब जीनेकी इच्छा करते हैं ।

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यदि वस्तुकी इच्छा पूरी होती हो तो उसे पूरी करनेका प्रयत्न करते और यदि जीनेकी इच्छा पूरी होती हो तो मृत्युसे बचनेका प्रयत्न करते । परन्तु इच्छाके अनुसार न तो सब वस्तुएँ मिलती हैं और न मृत्युसे बचाव ही होता है ।

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इच्छाका त्याग करनेमें सब स्वतन्त्र हैं, कोई पराधीन नहीं है और इच्छाकी पूर्ति करनेमें सब पराधीन हैं, कोई स्वतन्त्र नहीं है ।

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सुखकी इच्छा, आशा और भोग‒ये तीनों सम्पूर्ण दुःखोंके कारण हैं ।

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‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                       




           आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष पूर्णिमा, वि.सं.२०७७, बुधवा

अमृतबिन्दु




गया हुआ धन पुनः प्राप्त हो सकता है, पर गया हुआ समय पुनः प्राप्त नहीं होता । धनकी तरह समयको तिजोरीमें बन्द करके भी नहीं रख सकते । अतः हर समय सावधान रहकर समयका सदुपयोग करना चाहिये ।

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पैसोंको तो तिजोरीमें बन्द करके रखा जा सकता है, पर समयको बन्द करके नहीं रखा जा सकता । अतः अपने अमूल्य समयको व्यर्थके कामोंमें खर्च नहीं करना चाहिये ।

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समयका सदुपयोग न करनेवाला व्यक्ति किसी भी क्षेत्रमें सफल नहीं हो सकता ।

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देखनेमें तो ऐसा दीखता है कि समय जा रहा है, पर वास्तवमें शरीर जा रहा है !

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विचार करें कि जो समय चला गया, उस समयके सदुपयोगसे हम परमात्मप्राप्तिके मार्गपर कितना आगे बढ़े हैं ?

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भगवान्‌से विमुख होनेपर ही मनुष्य करने, जानने और पानेकी कमीका अनुभव करता है ।

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परमात्मतत्त्वसे विमुख हुए बिना कोई सांसारिक भोग भोगा ही नहीं जा सकता और रागपूर्वक सांसारिक भोग भोगनेसे मनुष्य परमात्मासे विमुख हो ही जाता है ।

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भगवान्‌से विमुख होते ही जीव अनाथ हो जाता है ।

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जो जगत्‌को नहीं जानते, वही जगत्‌में फँसते हैं और जो परमात्माको नहीं जानते, वही परमात्मासे विमुख होते हैं ।

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संसारसे कुछ लेनेकी इच्छा करते ही हम भगवान्‌से विमुख हो जाते हैं ।

‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                      




           आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७७, मंगलवा

“ गीता मे हृदयं पार्थ ”


कैमरेका काँच जैसे सामने दीखनेवाले रूपको खींच लेता है । उससे अत्यन्त अधिक विलक्षणताके साथ भगवान्‌को खींचनेका आकर्षण भगवद्भक्तके प्रेममें होता है । कैमरा तो सामनेकी जड़ वस्तुकी उस आकृतिमात्रको ही खींचता है, परन्तु भगवद्भक्तका प्रेम चिन्मय परमात्माको अपने मनचाहे रूपमें खींच लेता है । इसलिये भगवान्‌ कहते हैं–

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्याहम् ।

श्रीमद्भागवतमें भगवान्‌ कहते हैं–

साधवो  हृदयं  मह्यं   साधूनां  हृदयं  त्वहम् ।

मदन्यत् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥

(९/४/६८)

‘साधुओंका मैं हृदय हूँ और सन्तलोग मेरे हृदय हैं । वे मेरे सिवा और किसीको नहीं जानते और मैं उनके सिवा किसीको कुछ भी नहीं जानता ।

भगवान्‌को अपने भक्त जितने प्यारे हैं, उतनी अर्धांगिनी लक्ष्मी, गरुड़ आदि पार्षद और अपना शरीर भी प्रिय नहीं है । भागवतमें भगवान्‌ उद्धवसे कहते हैं–यदि भक्तोंके प्रतिकूल मेरी भुजा भी उठे तो उसे काटकर फेंक दूँ–

‘छिन्द्या स्वबाहुमपी वह प्रतिकूलावृत्तिम्’ ।

भक्त नीच घरका हो तो भी भगवान्‌ उसके यहाँ पधारते हैं ।

यहाँ एक शंका होती है कि जब भजनेवालेको ही भगवान्‌ भजते हैं–जो जिस भावसे भजता है, उसे उसी भावसे वे भी भजते हैं–तब जो भगवान्‌की आज्ञाके सर्वथा विरुद्ध चलनेवाला, भगवान्‌का विरोध करनेवाला, भगवान्‌के द्वारा निषेध किये हुए कर्मोंको आसक्तिपूर्वक करनेवाला अर्थात् भगवान्‌का सर्वथा विरोधी हो, वह यदि भजन करे तो क्या भगवान्‌ उसे भी अपनाते हैं ? इसका उत्तर है–‘अवश्य’ ।

अपि चेत् सुदुराचारो  भजते मामनन्यभाक् ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥

                                                      (९/३०)

अर्थात् ‘यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त हुआ मुझे निरन्तर भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य हैं; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है अर्थात् उसने भली प्रकार निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है ।’

यहाँ भगवान्‌ स्पष्ट कहते हैं कि चाहे दुराचारी-से-दुराचारी भी हो, परन्तु जो अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर भजन करता है, उसे साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि उसने उत्तम निश्चय कर लिया है । दुराचारी चाहे इस जन्मका हो चाहे पूर्वजन्मका, भक्तके उस पाप और दुराचारको भगवान्‌ नष्ट कर देते हैं । भगवान्‌ रामायणमें कहते हैं–

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू ।

आएँ सरन  तजऊँ नहिं ताहू ॥

करोड़ों ब्राह्मणोंकी हत्या करनेवाला भी यदि शरणमें आ जाय तो भगवान्‌ उसके पापको नष्ट कर देते हैं । एक जन्मके नहीं, अनेकों जन्मोंके पापका भी नाश कर देते हैं ।


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।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                     




           आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७७, सोमवा

“ गीता मे हृदयं पार्थ ”


यहाँ यह शंका होती है कि भगवान्‌में विषमता है क्या ? जो वे सर्वस्व समर्पण करनेवालेका ही उद्धार करते हैं, अन्यका नहीं ? इसका समाधान स्वयं भगवान्‌ ही करते हैं–

समोऽहं सर्वभूतेषु     मे   द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥

(९/२९)

अर्थात् ‘मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है । परन्तु जो भक्त मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ ।’

इस श्लोकमें भगवान्‌ प्राणिमात्रमें अपनी समताका निर्देश किया है । ‘मैं प्राणिमात्रमें सम हूँ ।’ अर्थात् समान रूपसे व्यापक, सबका परम सुहृद् और पक्षपातरहित हूँ । कोई भी प्राणी मेरा प्रिय अथवा अप्रिय नहीं है । इस भूतसमुदायमेंसे जो कोई भी जीव प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ । अर्थात् वे मेरे प्रियतम हैं, मैं उनका प्रियतम हूँ । वे मुझे सर्वस्व समर्पण कर देते हैं और मैं भी अपना सर्वस्व तथा अपने-आपको भी उनपर निछावर कर देता हूँ । मेरी-उनकी इतनी घनिष्ठता है कि मैं और वे दोनों ही एक हो जाते हैं ।

‘तस्मिस्तज्जने भेदाभावात ।’ ‘यतस्तदीयाः ।’

(नारदभक्तिसूत्र ४१।७३)

‘वे मुझे स्वामी समझते हैं, उन्हें मैं सेवक समझता हूँ । वे मुझे पिता समझते हैं तो मैं उन्हें पुत्र समझता हूँ । पुत्र माननेवालोंको पिता, मित्र समझनेवालोंको मित्र और प्रियतम समझनेवालोंको प्रियतम समझता हूँ । जो मेरे लिये व्याकुल होते हैं, उनके लिये मैं भी अधीर हो उठता हूँ । जो मेरे बिना नहीं रह सकते, उनके बिना मैं भी नहीं रह सकता । जो जिस भावसे मुझे भजते हैं, मैं भी उसी भावसे उनको भजता हूँ ।’

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।

(४/११)

भाव ही नहीं, क्रियामें भी जो मेरी ओर तेजीसे दौड़ते हैं, मैं भी उनकी ओर तीव्र गतिसे दौड़ता हूँ । यहाँ यह बात ध्यान देनेयोग्य है कि अल्पशक्तिमान् जीवकी क्रिया अपनी शक्तिके अनुसार होगी और अनन्त शक्तिसम्पन्न परमात्माकी उनकी शक्तिके अनुसार । अर्थात् अल्पशक्ति रखनेवाला जीव यदि अपनी पूरी शक्ति लगाकर कुछ भी आगे बढ़ा तो भगवान्‌ भी अपनी पूरी शक्ति लगा शीघ्र ही उससे आ मिलेंगे । भगवान्‌को पूरी शक्तिसे अपनी ओर आकर्षित करनेका सरल उपाय है–उनकी ओर अपनी पूरी शक्तिसे अग्रसर होना । भक्तोंका ऐसा विलक्षण भाव है कि वे चेष्टारहित परमात्मासे भी चेष्टा करवा देते हैं । सर्वदेशी व्यापक और निराकार परमेश्वरको एक देशमें प्रकट करके देख लेते हैं । निर्गुणको सगुणरूपमें प्रकट होनेके लिये बाध्य कर देते हैं । जो सर्वथा उदासीन हैं, उन परमात्माको भी वे अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं । वे प्रभुके प्यारे भक्त जिस समय जैसे रूपमें उन्हें देखना चाहते हैं, उस समय भगवान्‌को उसी रूपमें दर्शन देना पड़ता है ।

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