यह निश्चित
समझो कि यह छूटनेवाला है; क्योंकि इनके सम्बन्धमें कमजोरी आयी है । तो यह
छूटनेवाली वस्तु है । अगर छूटनेवाली वस्तु नहीं होती तो पकड़
कम कैसे होती ? गीता कहती है‒‘नाभावो विद्यते सतः’,
सत्का अभाव नहीं होता; पर इसका अभाव होता है । कम होती
है, तो अभाव हुआ न ? तो इस बातसे यह बल आना चाहिये कि यह तो छूटनेवाली है । अगर
छूटनेवाली नहीं होती तो कम कैसे होती ? और कम हुई तो सर्वथा भी छूट जायगी, जरूर छूटेगी‒इसमें कहना ही क्या है ! कम होती
है, वो मिटती है । यह अगर कम होती है तो इसका मिटना भी होगा । इसकी उमर कम हुई है
तो यह मरेगी, जीयेगी कैसे ? सम्बन्ध
छोड़ना और पकड़ना हमें आता है । माँ-बापका सम्बन्ध हुआ, स्त्री-पुत्रका सम्बन्ध हुआ । तो सांसारिक-सम्बन्ध तो
नये-नये होते रहते हैं तथा पुराने सम्बन्ध छूटते जाते हैं, पर भगवान्के साथमें
हमारा वास्तविक सम्बन्ध है । संसारके साथ हमारा सम्बन्ध वास्तविक नहीं है ।
शास्त्रोंसे, सन्तोंसे यह बात मालूम होती है । हम भी अनुभव करें तो भगवान्के साथ
हमारा सम्बन्ध श्रद्धासे ही सही; न दीखे भले ही; परन्तु संसारका सम्बन्ध तो छूटता
है, यह प्रत्यक्ष दीखता है न, तो यह छूटता नहीं, ऐसी
हिम्मत नहीं हारनी चाहिये । यह तो छूट रहा है । आप नहीं छोड़ोगे तो भी यह छूटेगा ही
। लेकिन आप नहीं छोड़ेंगे तो छूट जावेगा, तो वो फिर पकड़ा जायगा और आप छोड़
दोगे तो फिर पकड़ा नहीं जायगा । यह छूटता नहीं, यह बात मत मानो । यह छूट रहा है,
इतना सुधार कर लो आजसे । यह नहीं छूटता, यह भावना बहुत खराब है । इस वास्ते यह मान लें कि यह
छूट रहा है और हम छोड़ रहे हैं । हम जो सत्संग कर रहे हैं, यह छोड़ रहे हैं । ‘का परदेशी की प्रीति जावतो बार न लावे’ यह तो सब जा रहा
है । ‘का
मांगू कछु थिर न रहाई, देखत नयन चल्यो जग जाई ।’ अब किसके साथ प्यार करें, किसको रखें, किसको अपना मानें । रज्जब रोवें कौन को, हँसे सो कौन विचार । गये
सो आवनके नहीं रहे सो जावनहार ॥ ‒ये तो जा रहे हैं, इस बातपर दृढ़ रहो । छूटती नहीं, यह मत मानो, अब छूटती है, उसको मानो । छूटती
नहीं‒यह उलटी बात क्यों मानो ! छूट रही है यह तो ! श्रोता‒परन्तु
ये हमें अच्छी लगती है, महाराजजी ! स्वामीजी‒अच्छी लगती है, पर छूटती है । कोई बात नहीं, परवाह मत करो ।
आप अच्छी लगनेसे घबराओ मत । ये छूट रही है, इस बातपर दृढ़
रहो । वस्तुएँ अच्छी लगती हैं, पर छूट रही हैं । जड़ कट जायगी अच्छेपनकी ।
अच्छी तो लगती है, पर रहेगी नहीं । कितनी
बढ़िया बात है ! कितनी ही अच्छी लगे, पर रहनेवाली नहीं है । जवानी अच्छी लगती है, पर रहेगी नहीं । स्त्री-पुत्रादिका
संयोग अच्छा लगता है, पर रहेगा नहीं । बस इतनी बात याद रखो । यह बात सच्ची है न ? श्रोता‒हाँ
जी ! स्वामीजी‒रहेगी नहीं तो अच्छी कैसे लगेगी, अच्छापन कम होता जायगा ।
अब परवाह नहीं इसकी ! अपना काम हो रहा है, छूट रहा है ! नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे |