।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

कार्तिक कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०८०, गुरुवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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स्वरूपमें कभी अभाव नहीं होता । जब वह प्रकृतिके साथ रागसे तादात्म्य मान लेता है, तब उसे अपनेमें अभाव प्रतीत होने लग जाता है । उस अभावकी पूर्तिके लिये वह पदार्थोंकी कामना करने लग जाता है । कामनाकी पूर्तिके लिये उसमें कर्तापन जाता है; क्योंकि कामना हुए बिना स्वरूपमें कर्तापन नहीं आता ।

प्रकृतिसे सम्बन्धके बिना स्वयं कोई क्रिया नहीं कर सकता । कारण कि जिन करणोंसे कर्म होते हैं, वे करण प्रकृतिके ही हैं । कर्ता करणके अधीन होता है । जैसे कितना ही योग्य सुनार क्यों हो, पर वह अहरन, हथौड़ा आदि औजारोंके बिना कार्य नहीं कर सकता, ऐसे ही कर्ता करणोंके बिना कोई क्रिया नहीं कर सकता । इस प्रकार योग्यता, सामर्थ्य और करणये तीनों प्रकृतिमें ही हैं और प्रकृतिके सम्बन्धसे ही अपनेमें प्रतीत होते हैं । ये तीनों घटते-बढ़ते हैं और स्वरूप सदा ज्यों-का-त्यों रहता है । अतः इनका स्वरूपसे सम्बन्ध है ही नहीं ।

कर्तापन प्रकृतिके सम्बन्धसे है, इसलिये अपनेको कर्ता मानना परधर्म है । स्वरूपमें कर्तापन नहीं है, इसलिये अपनेको अकर्ता मानना स्वधर्म है । जैसे ब्राह्मण अपने ब्राह्मणपन (मैं ब्राह्मण हूँ, इस)-में निरन्तर स्थित रहता है, ऐसे ही तत्त्ववित् अपने अकर्तापन (स्वधर्म)-में निरन्तर स्थित रहता हैयही नैव किञ्‍चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् पदोंका भाव है ।

परिशिष्‍ट भावविवेकशील ज्ञानयोगी पहले ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, अन्तःकरण तथा प्राणोंसे होनेवाली क्रियाओंको करते हुए भी मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता हूँ’‒ऐसा मानता है, फिर उसको ऐसा अनुभव हो जाता है । वास्तवमें चिन्मय सत्तामात्रमें करना है, होना है ! स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीरमें होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिमें ही होती हैं, स्वयंमें नहीं । अतः स्वयंका किसी भी क्रियासे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है ।

अविवेकपूर्वक अहम्‌को अपना स्वरूप माननेसे जो अहङ्कारविमूढात्मा हो गया था (गीता ३ । २७), वही विवेकपूर्वक अपनेको अहम्‌से अलग अनुभव करनेपर तत्त्ववित् हो जाता है अर्थात् उसमें कर्तृत्व नहीं रहता । वह निरन्तर चिन्मय तत्त्वमें ही स्थित रहता है ।

अहंकारसे मोहित होकर स्वयंने भूलसे अपनेको कर्ता मान लिया तो वह कर्मोंसे तथा उनके फलोंसे बँध गया और चौरासी लाख योनियोंमें चला गया । अब अगर वह अपनेको अहम्‌से अलग माने और अपनेको कर्ता माने अर्थात् स्वयं वास्तवमें जैसा है, वैसा ही अनुभव कर ले तो उसके तत्त्ववित् (मुक्त) होनेमें आश्‍चर्य ही क्या है ? तात्पर्य है कि जो असत्य है, वह भी जब सत्य मान लेनेसे सत्य दीखने लग गया, तो फिर जो वास्तवमें सत्य है, उसको मान लेनेपर वह वैसा ही दीखने लग जाय तो इसमें क्या आश्‍चर्य है ?

वास्तवमें स्वयं जिस समय अपनेको कर्ता-भोक्ता मानता है, उस समय भी वह कर्ता-भोक्ता नहीं है‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय करोति लिप्यते (गीता १३ । ३१) कारण कि अपना स्वरूप सत्तामात्र है । सत्तामें अहम् नहीं है और अहम्‌की सत्ता नहीं है । अतः मैं कर्ता हूँ’‒यह मान्यता कितनी ही दृढ़ हो, है तो भूल ही ! भूलको भूल मानते ही भूल मिट जाती हैयह नियम है । किसी गुफामें सैकड़ों वर्षोंसे अन्धकार हो तो प्रकाश करते ही वह तत्काल मिट जाता है, उसके मिटनेमें अनेक वर्ष-महीने नहीं लगते । इसलिये साधक दृढ़तासे यह मान ले कि मैं कर्ता नहीं हूँ ।फिर यह मान्यता मान्यतारूपसे नहीं रहेगी, प्रत्युत अनुभवमें परिणत हो जायगी ।

जड़-चेतनका तादात्म्य होनेसे मैंका प्रयोग जड़ (तादात्म्यरूप अहम्)-के लिये भी होता है और चेतन (स्वरूप)-के लिये भी होता है । जैसे, मैं कर्ता हूँ’‒इसमें जड़की तरफ दृष्‍टि है और मैं कर्ता नहीं हूँ’‒इसमें (जड़का निषेध होनेसे) चेतनकी तरफ दृष्‍टि है । जिसकी दृष्‍टि जड़की तरफ है अर्थात् जो अहम्‌को अपना स्वरूप मानता है, वह अहंकारविमूढात्मा है और जिसकी दृष्‍टि चेतन (अहंरहित स्वरूप) की तरफ है, वह तत्त्ववित् है ।

जब साधक वर्तमानमें मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता हूँ’‒इस प्रकार स्वयंको अकर्ता अनुभव करनेकी चेष्‍टा करता है, तब उसके सामने एक बड़ी समस्या आती है । जब उसको भूतकालमें किये हुए अच्छे कर्मोंकी याद आती है, तब वह प्रसन्‍न हो जाता है कि मैंने बहुत अच्छा काम किया, बहुत ठीक किया ! और जब उसको निषिद्ध कर्मोंकी याद आती है, तब वह दुःखी हो जाता है कि मैंने बहुत बुरा काम किया, बहुत गलती की । इस प्रकार भूतकालमें किये गये कर्मोंके संस्कार उसको सुखी-दुःखी करते हैं । इस विषयमें एक मार्मिक बात है । स्वरूपमें कर्तापन तो वर्तमानमें है, भूतकालमें था और भविष्यमें ही होगा । अतः साधकको यह देखना चाहिये कि जैसे वर्तमानमें स्वयं अकर्ता है, ऐसे ही भूतकालमें भी स्वयं अकर्ता ही था । कारण कि वर्तमान ही भूतकालमें गया है । स्वरूप सत्तामात्र है और सत्तामात्रमें कोई कर्म करना बनता ही नहीं । कर्म केवल अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाले अज्ञानी मनुष्यके द्वारा ही होते हैं (गीतातीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्‍लोक) साधकको भूतकालमें किये हुए कर्मोंकी याद आनेसे जो सुख-दुःख होता है, चिन्ता होती है, यह भी वास्तवमें अहंकारके कारण ही है । वर्तमानमें अहंकारविमूढात्मा होकर अर्थात् अहंकारके साथ अपना सम्बन्ध मानकर ही साधक सुखी-दुःखी होता है । स्थूलदृष्‍टिसे देखें तो जैसे अभी भूतकालका अभाव है, ऐसे ही भूतकालमें किये गये कर्मोंका भी अभी प्रत्यक्ष अभाव है । सूक्ष्मदृष्‍टिसे देखें तो जैसे भूतकालमें वर्तमानका अभाव था, ऐसे ही भूतकालका भी अभाव था । इसी तरह वर्तमानमें जैसे भूतकालका अभाव है, ऐसे ही वर्तमानका भी अभाव है । परन्तु सत्ताका नित्य-निरन्तर भाव है । तात्पर्य है कि सत्तामात्रमें भूत, भविष्य और वर्तमानतीनोंका ही सर्वथा अभाव है । सत्ता कालसे अतीत है । अतः वह किसी भी कालमें कर्ता नहीं है । उस कालातीत और अवस्थातीत सत्तामें किसी कालविशेष और अवस्थाविशेषको लेकर कर्तृत्व तथा भोक्तृत्वका आरोप करना अज्ञान है । अतः भूतकालमें किये गये कर्मोंकी स्मृति अहंकारविमूढात्माकी स्मृति है, तत्त्ववित्‌की नहीं ।

नैव किञ्‍चित्करोमि का तात्पर्य है कि क्रिया नहीं है, पर सत्ता है । अतः साधककी दृष्‍टि सत्तामात्रकी तरफ रहनी चाहिये । वह सत्ता चिन्मय होनेसे ज्ञानस्वरूप है और निर्विकार होनेसे आनन्दस्वरूप है । यह आनन्द अखण्ड, शान्त, एकरस है ।

शरीरसे तादात्म्य होनेके कारण प्रत्येक क्रियामें स्वयंकी मुख्यता रहती है कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ आदि । क्रिया तो होती है शरीरमें, पर मान लेते हैं अपनी । स्वयंमें कोई क्रिया नहीं है, वह करने और करनेदोनोंसे रहित है (गीतातीसरे अध्यायका अठारहवाँ श्‍लोक), इसलिये शरीरके द्वारा क्रिया होनेपर भी सत्तामात्र अपने स्वरूपपर दृष्‍टि रहनी चाहिये कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒अपरा प्रकृतिके अहम्‌के साथ अपना सम्बन्ध जोड़नेके कारण अविवेकी मनुष्य अपनेको कर्ता मान लेता है‒‘अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) । परन्तु जब वह विवेकपूर्वक अहम्‌से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है, तब उसे ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’‒इस प्रकार अपने वास्तविक स्वरूपका अनुभव हो जाता है ।

हमारा वास्तविक स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है । उस स्वरूपमें कर्तृत्व-भोकृत्व न कभी था, न है, न होगा और न हो ही सकता है । अतः शरीरके द्वारा शास्‍त्रविहित क्रियाएँ होते हुए भी साधककी दृष्टि अपने स्वरूपकी ओर रहनी चाहिये, जो कतृत्व-भोकृत्वसे रहित है‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) ।

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