।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७१, शनिवार
एकादशी-व्रत कल है 
वर्णनातीतका वर्णन



(गत ब्लॉगसे आगेका)

तत्त्व न प्रत्यक्ष है, न अप्रत्यक्ष है; न परोक्ष है, न अपरोक्ष है; न छोटा है, न बड़ा है; न अन्दर है, न बाहर है; न ऊपर है, न नीचे है; न नजदीक है, न दूर है; न भेद है न अभेद है, न भेदाभेद है; न भिन्न है, न अभिन्न है, न भिन्नाभिन्न है । कारण कि ये सब तो सापेक्ष हैं, पर तत्त्व निरपेक्ष है । जैसे सूर्यमें न प्रकाश है, न अँधेरा है और न प्रकाश-अँधेरा दोनों हैं । कारण कि जहाँ प्रकाश है, वहाँ अँधेरा नहीं होता और जहाँ अँधेरा है, वहाँ प्रकाश नहीं होता, फिर प्रकाश-अँधेरा दोनों एक साथ कैसे रह सकते हैं ? ऐसे ही तत्त्वमें न ज्ञान है, न अज्ञान है और न ज्ञान-अज्ञान दोनों हैं । वहाँ न ज्ञाता है, न ज्ञान है, न ज्ञेय है; न प्रकाशक है, न प्रकाश है, न प्रकाश्य है; न द्रष्टा है, न दर्शन है, न दृश्य है; न ध्याता है, न ध्यान है, न ध्येय है । तात्पर्य है कि तत्त्वमें त्रिपुटीका सर्वथा अभाव है । कारण कि त्रिपुटी सापेक्ष है, पर तत्त्व निरपेक्ष है । वास्तवमें जहाँ स्थित होकर हम बोलते हैं, सुनते हैं, विचार करते हैं, वहीं सापेक्ष और निरपेक्षकी बात आती है; तत्व वास्तवमें न सापेक्ष है, न निरपेक्ष है ।

वह तत्त्व वास्तवमें अनुभवरूप है । उसको गीताने  स्मृति’ कहा है‒‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा’ (१८ । ७३) । स्मृति भी विस्मृतिकी अपेक्षासे है; परन्तु तत्त्वकी स्मृति विस्मृतिकी अपेक्षासे नहीं है, प्रत्युत अनुभवरूप है । कारण कि स्मृतिकी तो विस्मृति हो सकती है, पर अनुभवका अननुभव (विस्मृति) नहीं हो सकता । तत्त्वकी विस्मृति नहीं होती, प्रत्युत विमुखता होती है । तात्पर्य है कि पहले ज्ञान था, फिर उसकी विस्मृति हो गयी‒इस तरह तत्त्वकी विस्मृति नहीं होती[*] । अगर ऐसी विस्मृति मानें तो स्मृति होनेके बाद फिर विस्मृति हो जायगी ! इसलिये गीतामें आया है‒‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम् ।’ (४ । ३५) अर्थात् उसको जान लेनेके बाद फिर मोह नहीं होता । अभावरूप असत्‌को भावरूप मानकर महत्त्व देनेसे तत्त्वकी तरफसे वृत्ति हट गयी‒इसीको विस्मृति कहते हैं । वृत्तिका हटना और वृत्तिका लगना‒यह भी साधककी दृष्टिसे है, तत्त्वकी दृष्टिसे नहीं । तत्त्वकी तरफसे वृत्ति हटनेपर अथवा विमुखता होनेपर भी तत्त्व ज्यों-का-त्यों ही है । अभावरूप असत्‌को अभावरूप ही मान लें तो भावरूप तत्त्व स्वतः ज्यों-का-त्यों रह जायगा ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सहज साधना’ पुस्तकसे


[*] ज्ञान होनेपर नयापन कुछ नहीं दीखता अर्थात्‌ पहले अज्ञान था, अब ज्ञान हो गया‒ऐसा नहीं दीखता । ज्ञान होनेपर ऐसा अनुभव होता है कि ज्ञान तो सदासे ही था, केवल उधर मेरी दृष्टि नहीं थी । यदि पहले अज्ञान था, अब ज्ञान हो गया‒ऐसा मानें तो ज्ञानमें सादिपना आ जायगा, जब कि ज्ञान सादि नहीं है । जो सादि होता है, वह सान्त होता है और जो अनादि होता है, वह अनन्त होता है । 


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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल अष्टमीवि.सं.२०७१गुरुवार
होलष्टकारम्भ
वर्णनातीतका वर्णन



(गत ब्लॉगसे आगेका)

उस तत्त्वको है’ कहते हैं । वास्तवमें वह नहीं’ की अपेक्षासे है’ नहीं है, प्रत्युत निरपेक्ष है । अगर हम नहीं’ की सत्ता मानें तो फिर उसको नहीं’ कहना बनता ही नहीं; क्योंकि नहीं’ और सत्तामें परस्परविरोध है अर्थात् जो नहीं’ है, उसकी सत्ता कैसे और जिसकी सत्ता है, वह नहीं’ कैसे ? वास्तवमें नहीं’ की सत्ता ही नहीं है । परन्तु जब भूलसे नहीं’ की सत्ता मान लेते हैं, तब उस भूलको मिटानेके लिये यह नहीं है, तत्त्व है’ ऐसा कहते हैं । जब नहीं’ की सत्ता ही नहीं है, तब तत्त्वको है’ कहना भी बनता नहीं । तात्पर्य है कि नहीं’ की अपेक्षासे ही तत्त्वको है’ कहते हैं । वास्तवमें तत्त्व न नहीं’ है और न है’ है ।

गीतामें आया है‒

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं  ब्रह्म  न  सत्तन्नासदुच्यते ॥
                                               (१३ । १२)

जो ज्ञेय है, उस तत्त्वका मैं अच्छी तरहसे वर्णन करूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमरताका अनुभव कर लेता है । वह तत्त्व अनादि और परब्रह्म है । उसको न सत् कहा जा सकता है और न असत् कहा जा सकता है ।’[1]

तात्पर्य है कि उस तत्त्वका आदि (आरम्भ) नहीं है जो सदासे है, उसका आदि कैसे ? सब अपर हैं, वह पर है । वह न सत् है न असत् है । आदि-अनादि, पर-अपर और सत्-असत्‌का भेद प्रकृतिके सम्बन्धसे है । वह तत्त्व तो आदि-अनादि, पर-अपर और सत्-असत्‌से विलक्षण है । इस प्रकार भगवान्‌ने ज्ञेय-तत्त्वका जो वर्णन किया है, वह वास्तवमें वर्णन नहीं है, प्रत्युत लक्षक (लक्ष्यकी तरफ दृष्टि करानेवाला) है । इसका तात्पर्य ज्ञेय-तत्त्वका लक्ष्य करानेमें है, कोरा वर्णन करनेमें नहीं ।

सन्तोंकी वाणीमें भी आया है कि न जाग्रत् है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है, न तुरीय है; न बन्धन है न मोक्ष है आदि-आदि । कारण कि ये सब तो सापेक्ष हैं, पर तत्त्व निरपेक्ष है । निरपेक्ष भी वास्तवमें सापेक्षकी अपेक्षासे है । तत्त्व भी वास्तवमें अतत्त्वकी अपेक्षासे कहा जाता है; अतः उसको किस नामसे कहें ? उसका कोई नाम नहीं है अर्थात् वहाँ शब्दकी गति नहीं है । शब्दसे केवल उसका लक्ष्य होता है[2]


[1] गीतामें परमात्माका तीन प्रकारसे वर्णन आता है‒(१) परमात्मा सत् भी है और असत् भी है‒‘सदसच्चाहम्’ (९ । १९), (२) परमात्मा सत् भी है, असत् भी है और सत्-असत्‌से पर भी है‒‘सदसत्तत्परं यत्’ (११ । ३७), (३) परमात्मा न सत् है और न असत् है‒‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (१३ । १२)इसका तात्पर्य यही है कि वास्तवमें परमात्माका वर्णन नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह मन, बुद्धि और शब्दसे अतीत है ।
[2] यदि कहनेवाला अनुभवी और सुननेवाला सच्चा जिज्ञासु हो तो शब्दके द्वारा शब्दातीत, इन्द्रियातीत तत्त्वका भी ज्ञान हो जाता है‒यह शब्दकी विलक्षण, अचिन्त्य शक्तिका प्रभाव है । परन्तु ऐसा होना तभी सम्भव है, जब केवल शब्दोंपर दृष्टि न रखकर तत्त्वकी तरफ दृष्टि रखी जाय । अगर तत्त्वकी तरफ दृष्टि नहीं रहेगी तो सीखनामात्र होगा अर्थात् कोरा वर्णन होगा, तत्त्व नहीं मिलेगा ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सहज साधना’ पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७१, गुरुवार
होलष्टकारम्भ
वर्णनातीतका वर्णन



(गत ब्लॉगसे आगेका)

वह एक ही तत्त्व प्रकाश्यकी अपेक्षासे प्रकाशक’ आश्रितकी अपेक्षासे आश्रय’ और आधेयकी अपेक्षासे आधार’ कहा जाता है । प्रकाश्य, आश्रित और आधेय तो व्याप्य, विनाशी एवं अनेक हैं, पर प्रकाशक, आश्रय और आधार व्यापक, अविनाशी एवं एक है । प्रकाश्य, आश्रित और आधेय तो नहीं रहेंगे, पर प्रकाशक, आश्रय और आधार रह जायगा; किन्तु प्रकाशक, आश्रय और आधार‒ये नाम नहीं रहेंगे, प्रत्युत एक तत्त्व रहेगा । तात्पर्य है कि तत्त्व न प्रकाश्य है, न प्रकाशक है; न आश्रित है, न आश्रय है; न आधेय है, न आधार है ।

वह एक ही तत्त्व शरीरके सम्बन्धसे शरीरी, क्षेत्रके सम्बन्धसे क्षेत्री तथा क्षेत्रज्ञ, क्षरके सम्बन्धसे अक्षर, दृश्यके सम्बन्धसे द्रष्टा और साक्ष्यके सम्बन्धसे साक्षी कहलाता है । तात्पर्य है कि तत्त्व न शरीर है, न शरीरी है; न क्षेत्र है, न क्षेत्री तथा क्षेत्रज्ञ है; न क्षर है, न अक्षर है; न दृश्य है, न द्रष्टा है; न साक्ष्य है, न साक्षी है ।

वह तत्त्व अनेककी अपेक्षासे एक है । जडकी अपेक्षासे वह चेतन है । असत्‌की अपेक्षासे वह सत् है । अभावकी अपेक्षासे वह भावरूप है । अनित्यकी अपेक्षासे वह नित्य है । उत्पन्न वस्तुकी अपेक्षासे वह अनुत्पन्न है । नाशवान्‌की अपेक्षासे वह अविनाशी है । असत्-जड-दुःखरूप संसारकी अपेक्षासे वह सत्-चित्-आनन्द-रूप है । प्राकृत पदार्थोंकी अपेक्षासे वह प्राप्त अथवा अप्राप्त है । कठिनताकी अपेक्षासे उसको सुगम कहते हैं, नहीं तो जो नित्यप्राप्त है, उसमें क्या कठिनता और क्या सुगमता ? तात्पर्य है कि तत्त्व न अनेक है, न एक है; न जड है, न चेतन है; न असत् है न सत् है; न अभावरूप है, न भावरूप है; न अनित्य है, न नित्य है; न उत्पन्न है, न अनुत्पन्न है; न नाशवान् है, न अविनाशी है; न असत्-जड-दुःखरूप है, न सत्-चित्-आनन्दरूप है; न प्राप्त है, न अप्राप्त है; न कठिन है, न सुगम है अर्थात् शब्दोंके द्वारा उस तत्त्वका वर्णन नहीं होता ।

वह तत्त्व परतःसिद्धकी अपेक्षासे स्वतःसिद्ध है । अस्वाभाविककी अपेक्षासे वह स्वाभाविक है । अस्वाभाविकतामें स्वाभाविकका आरोप कर लिया तो बन्धन’ हो गया, स्वाभाविकमें अस्वाभाविकताका आरोप कर लिया तो संसार’ हो गया और अस्वाभाविकताको अस्वीकार करके स्वाभाविकका अनुभव किया तो तत्त्व’ हो गया और अतत्त्वसे मुक्ति हो गयी अर्थात् है-ज्यों हो गया ! तत्त्व न परतःसिद्ध है, न स्वतःसिद्ध है; न स्वाभाविक है, न अस्वाभाविक है । परत:सिद्ध-स्वतःसिद्ध, स्वाभाविक-अस्वाभाविक तो सापेक्ष हैं, पर तत्त्व निरपेक्ष है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सहज साधना’ पुस्तकसे


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