(गत ब्लॉगसे आगेका)
उस तत्त्वको ‘है’ कहते हैं । वास्तवमें वह ‘नहीं’ की अपेक्षासे ‘है’ नहीं है, प्रत्युत निरपेक्ष है । अगर हम ‘नहीं’ की सत्ता मानें तो फिर उसको ‘नहीं’ कहना बनता ही नहीं; क्योंकि ‘नहीं’ और सत्तामें परस्परविरोध है अर्थात् जो ‘नहीं’ है, उसकी सत्ता कैसे और जिसकी सत्ता है, वह ‘नहीं’ कैसे ? वास्तवमें ‘नहीं’ की सत्ता ही नहीं है । परन्तु जब भूलसे ‘नहीं’ की सत्ता मान लेते हैं, तब उस भूलको मिटानेके लिये ‘यह नहीं है, तत्त्व है’ ऐसा कहते हैं । जब ‘नहीं’ की सत्ता ही नहीं है, तब तत्त्वको ‘है’ कहना भी बनता नहीं । तात्पर्य है कि ‘नहीं’ की अपेक्षासे ही तत्त्वको ‘है’ कहते हैं । वास्तवमें तत्त्व न ‘नहीं’ है और न ‘है’ है ।
गीतामें आया है‒
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते
।
अनादिमत्परं ब्रह्म न
सत्तन्नासदुच्यते ॥
(१३ । १२)
‘जो ज्ञेय है, उस तत्त्वका मैं अच्छी तरहसे वर्णन
करूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमरताका अनुभव कर
लेता है । वह तत्त्व अनादि और परब्रह्म है । उसको न सत् कहा जा सकता है और न असत् कहा
जा सकता है ।’[1]
तात्पर्य है कि उस तत्त्वका आदि (आरम्भ)
नहीं है जो सदासे है, उसका आदि कैसे ? सब अपर हैं, वह पर है । वह न सत् है न असत् है । आदि-अनादि, पर-अपर और सत्-असत्का भेद प्रकृतिके सम्बन्धसे है । वह तत्त्व तो आदि-अनादि, पर-अपर और सत्-असत्से विलक्षण है । इस प्रकार भगवान्ने
ज्ञेय-तत्त्वका जो वर्णन किया है, वह वास्तवमें वर्णन नहीं है, प्रत्युत लक्षक (लक्ष्यकी तरफ दृष्टि करानेवाला) है ।
इसका तात्पर्य ज्ञेय-तत्त्वका लक्ष्य करानेमें है, कोरा वर्णन करनेमें नहीं ।
सन्तोंकी वाणीमें भी आया है कि न जाग्रत्
है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है, न तुरीय है; न बन्धन है न मोक्ष है आदि-आदि । कारण कि ये सब तो सापेक्ष
हैं, पर तत्त्व निरपेक्ष है । निरपेक्ष भी वास्तवमें सापेक्षकी
अपेक्षासे है । तत्त्व भी वास्तवमें अतत्त्वकी अपेक्षासे कहा जाता है; अतः उसको किस नामसे कहें ? उसका कोई नाम नहीं है अर्थात् वहाँ शब्दकी गति नहीं है
। शब्दसे केवल उसका लक्ष्य होता है[2] ।
[1] गीतामें परमात्माका तीन प्रकारसे वर्णन
आता है‒(१) परमात्मा सत् भी है और असत् भी है‒‘सदसच्चाहम्’ (९ । १९), (२) परमात्मा सत् भी है, असत् भी है और सत्-असत्से पर भी है‒‘सदसत्तत्परं यत्’ (११ । ३७), (३) परमात्मा न सत् है और न असत्
है‒‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (१३ । १२) । इसका तात्पर्य
यही है कि वास्तवमें परमात्माका वर्णन नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह मन, बुद्धि और शब्दसे अतीत है ।
[2] यदि कहनेवाला अनुभवी और सुननेवाला सच्चा
जिज्ञासु हो तो शब्दके द्वारा शब्दातीत, इन्द्रियातीत तत्त्वका भी ज्ञान हो जाता है‒यह शब्दकी विलक्षण, अचिन्त्य शक्तिका प्रभाव है । परन्तु ऐसा होना तभी सम्भव
है, जब केवल शब्दोंपर दृष्टि न रखकर तत्त्वकी तरफ दृष्टि रखी
जाय । अगर तत्त्वकी तरफ दृष्टि नहीं रहेगी तो सीखनामात्र होगा अर्थात् कोरा वर्णन होगा, तत्त्व नहीं मिलेगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सहज साधना’ पुस्तकसे
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