(३)
निःशोक होना—जो बात बीत चुकी है, उसको लेकर शोक होता है । बीती हुई
बातको लेकर शोक करना बड़ी भारी भूल है; क्योंकि जो हुआ है, वह अवश्यम्भावी था और जो
नहीं होनेवाला है, वह कभी हो ही नहीं सकता तथा अभी जो हो रहा है, वह ठीक-ठीक
(वास्तविक) होनेवाला हो हो रहा है, फिर उसमें शोक करनेकी कोई बात ही नहीं है । प्रभुके इस मंगलमय विधानको जानकार शरणागत भक्त सदा निःशोक रहता
है, शोक उसके पास कभी आता ही नहीं ।
(४)
निःशंक होना—भगवान्के सम्बन्धमें कभी यह सन्देह न करें कि
मैं भगवान्का हुआ या नहीं ? भगवान्ने मुझे स्वीकार किया या नहीं ? प्रत्युत इस बातको देखें कि ‘मैं तो अनादिकालसे भगवान्का
ही था, भगवान्का ही हूँ और आगे भी सदा भगवान्का ही रहूँगा । मैं अपनी मूर्खतासे अपनेको भगवान्से अलग-विमुख मान लिया था ।
परन्तु मैं अपनेको भगवान्से कितना ही अलग मान लूँ तो भी उनसे अलग हो सकता ही नहीं
और होना सम्भव भी नहीं । अगर मैं भगवान्से अलग होना चाहूँ तो भी अलग कैसे
हो सकता हूँ ? क्योंकि भगवान्ने कहा है कि यह जीव मेरा ही अंश है—‘मम एव अंशः’ (गीता १५/७) । इस प्रकार ‘मैं भगवान्का हूँ
और भगवान् मेरे हैं’—इस वास्तविकताकी स्मृति आते ही शंकाएँ-सन्देह मिट जाते हैं,
शंकाओं-सन्देहोंके लिये किंचिन्मात्र भी गुंजाइश नहीं रहती ।
(५)
परीक्षा न करना—भगवान्के शरण होकर ऐसी परीक्षा न करें कि ‘जब
मैं भगवान्के शरण हो गया हूँ तो मेरेमें ऐसे-ऐसे लक्षण घटने चाहिये । यदि ऐसे-ऐसे
लक्षण मेरेमें नहीं हैं तो मैं भगवान्के शरण कहाँ हुआ ? प्रत्युत ‘अद्वेष्टा’ आदि (गीता १२/१३—१९) गुणोंकी अपनेमें कमी दीखे तो आश्चर्य करे कि मेरेमें यह कमी कैसे रह गयी ! ऐसा भाव आते ही यह कमी नहीं रहेगी, कमी मिट जायगी ।
कारण कि यह उसका प्रत्यक्ष अनुभव है कि पहले अद्वेष्टा आदि गुण जितने कम थे, उतने
कम अब नहीं हैं । शरणागत होनेपर भक्तोंके जितने भी लक्षण
हैं, वे बिना प्रयत्न किये ही आते हैं ।
(६)
विपरीत धारणा न करना—भगवान्के शरणागत भक्तमें यह विपरीत धारणा भी
कैसे हो सकती है कि ‘मैं भगवान्का नहीं हूँ’ क्योंकि यह मेरे मानने अथवा न
माननेपर निर्भर नहीं है । भगवान्का और मेरा परस्पर जो सम्बन्ध है,
वह अटूट है, अखण्ड है, नित्य है, मैंने इस सम्बन्धकी तरफ खयाल ही नहीं किया, यह
मेरी गलती थी । अब वह गलती मिट गयी तो फिर विपरीत धारणा हो ही कैसे सकती है
?
जो मनुष्य सच्चे हृदयसे प्रभुकी शरणगतिको स्वीकार कर लेता है, उसमें चिन्ता, भय, शोक आदि दोष नहीं रहते । उसका शरण-भाव स्वतः ही दृढ़ होता चला जाता है, वैसे ही, जैसे विवाह होनेके बाद कन्याका अपने पिताके घरसे सम्बन्ध-विच्छेद और पतिके घरसे सम्बन्ध स्वतः ही दृढ़ होता चला जाता है । वह सम्बन्ध यहाँतक दृढ़ हो जाता है कि जब वह कन्या दादी-परदादी बन जाती है, तब उसके स्वप्नमें भी यह भाव नहीं आता कि मैं यहाँकी नहीं हूँ । उसके मनमें यह भाव दृढ़ हो जाता है कि मैं तो यहाँकी ही हूँ और ये सब हमारे ही हैं । जब पौत्रकी स्त्री आती है और घरमें उद्दण्डता करती है, खटपट मचाती है तो वह (दादी) कहती है कि इस परायी जायी छोकरीने मेरा घर बिगाड़ दिया, पर उस बूढ़ी दादीको यह बात याद ही नहीं आती कि मैं भी तो परायी जायी (पराये घरमें जन्मी) हूँ । तात्पर्य यह हुआ कि जब बनावटी सम्बन्धमें भी इतनी दृढ़ता हो सकती है, तब भगवान्के ही अंश इस प्राणीका भगवान्के साथ जो नित्य सम्बन्ध है, वह दृढ़ हो जाय तो क्या आश्चर्य है ! वास्तवमें भगवान्के सम्बन्धकी दृढ़ताके लिये केवल संसारके माने हुए सम्बन्धोंका त्याग करनेकी ही आवश्यकता है । |
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