।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
शुद्ध ज्येष्ठ पूर्णिमा, 
                 वि.सं.-२०७५, गुरुवार
शरणागति     
                                                             
 

विशेष बात

        शरणागत भक्त ‘मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे है’ इस भावको दृढ़तासे पकड़ लेता है, स्वीकार कर लेता है तो उसकी चिन्ता, भय, शोक, शंका आदि दोषोंकी जड़ कट जाती है अर्थात् दोषोंका आधार कट जाता है । कारण कि भक्तिकी दृष्टिसे सभी दोष भगवान्‌की विमुखतापर ही टिके रहते हैं ।

        भगवान्‌के सम्मुख होनेपर भी संसार और शरीरके आश्रयके संस्कार रहते हैं, जो भगवान्‌के सम्बन्धकी दृढ़ता होनेपर मिट जाते हैं[*] । उनके मिटनेपर सब दोष भी मिट जाते हैं ।

        सम्बन्धका दृढ़ होना क्या है ? चिन्ता, भय, शोक, शंका, परीक्षा और विपरीत भावनाका न होना ही सम्बन्धका दृढ़ होना है । अब इनपर विचार करें ।
(१) निश्चिन्त होनाजब भक्त अपनी मानी हुई वस्तुओंसहित अपने-आपको भगवान्‌के समर्पित कर देता है, तब उसको लौकिक-पारलौकिक किंचिन्मात्र भी चिन्ता नहीं होती अर्थात् अभी जीवन-निर्वाह कैसे होगा ? कहाँ रहना होगा ? मेरी क्या दशा होगी ? क्या गति होगी ? आदि चिंताएँ बिलकुल नहीं रहतीं[†]

        भगवान्‌के शरण होनेपर शरणागत भक्तमें यह एक बात आती है कि ‘अगर मेरा जीवन प्रभुके लायक सुन्दर और शुद्ध नहीं बना तो भक्तोंकी बात मेरे आचरणमें कहाँ आयी ? अर्थात् नहीं आयी; क्योंकि मेरी वृत्तियाँ ठीक नहीं रहतीं ।’ वास्तवमें ‘मेरी वृत्तियाँ हैं’ ऐसा मानना ही दोष है, वृत्तियाँ उतनी दोषी नहीं हैं । मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदिमें जो मेरापन हैयही गलती है; क्योंकि जब मैं भगवान्‌के शरण हो गया और जब सब कुछ उनके समर्पित कर दिया तो मन, बुद्धि आदि मेरे कहाँ रहे ? इस वास्ते शरणागतको मन, बुद्धि आदिकी अशुद्धिकी चिन्ता कभी नहीं करनी चाहिये अर्थात् मेरी वृत्तियाँ ठीक नहीं हैंऐसा भाव कभी नहीं लाना चाहिये । किसी कारणवश अचानक ऐसी वृत्तियाँ आ भी जायँ तो आर्तभावसे ‘हे मेरे नाथ ! हे मेरे प्रभो ! बचाओ ! बचाओ !! बचाओ !!!’ ऐसे प्रभुको पुकारना चाहिये; क्योंकि वे मेरे अपने स्वामी हैं, मेरे सर्वसमर्थ प्रभु हैं तो अब मैं चिन्ता क्यों करूँ ? और भगवान्‌ने कह दिया है कि ‘तू चिन्ता मत कर’ (मा शुचः) । इस वास्ते मैं निश्चिन्त हूँऐसा कहकर मनसे भगवान्‌के चरणोंमें गिर जाओ और निश्चिन्त होकर भगवान्‌से कह दो‘हे नाथ ! यह सब आपके हाथकी बात है, आप जानो ।’

        सर्वसमर्थ प्रभुके शरण भी हो गये और चिन्ता भी करेंये दोनों बातें बड़ी विरोधी हैं; क्योंकि शरण हो गये तो चिन्ता कैसी ? और चिन्ता होती है तो शरणागति कैसी ? इस वास्ते शरणागतको ऐसा सोचना चाहिये कि जब भगवान्‌ कहते हैं कि मैं सम्पूर्ण पापोंसे छुड़ा दूँगा तो क्या ऐसी वृत्तियोंसे छूटनेके लिये मेरेको कुछ करना पड़ेगा ? ‘मैं तो बस, आपका हूँ । हे भगवन् ! मेरेमें वृत्तियोंको अपना माननेका भाव कभी आये ही नहीं । हे नाथ ! सब कुछ आपको देनेपर भी ये शरीर आदि कभी-कभी मेरे दीख जाते हैं; अब इस अपराधसे मेरेको आप ही छुड़ाइये’ऐसा कहकर निश्चिन्त हो जाओ ।


        [*]भगवान्‌के सम्बन्धकी दृढता होनेपर जब संसार-शरीरका आश्रय सर्वथा नहीं रहता, तब जीनेकी आशा, मरनेका भय, करनेका राग और पानेकी लालच—ये चारों ही नहीं रहते ।

[†] चिन्ता दीनदयालको, मो मन सदा आनन्द ।
   जायो सो प्रतिपालसी, रामदास  गोबिन्द ॥