‘मा
शुचः’ का तात्पर्य है—
(१) मेरे शरण होकर तू चिन्ता करता है, यह मेरे प्रति
अपराध है, तेरा अभिमान है और शरणागतिमें कलंक है ।
मेरे शरण होकर भी मेरा पूरा विश्वास, भरोसा न
रखना मेरे प्रति अपराध है । अपने दोषोंको लेकर चिन्ता करना वास्तवमें अपने बलका
अभिमान है; क्योंकि दोषोंको मिटानेमें अपनी सामर्थ्य मालूम देनेसे ही उनको
मिटानेकी चिन्ता होती है । हाँ, अगर दोषोंको मिटानेमें चिन्ता न होकर दुःख होता है
तो दुःख होना इतना दोषी नहीं है । जैसे, छोटे बालकके पास कुत्ता आता है तो वह कुत्तेको देखकर रोता है, चिन्ता
नहीं करता । ऐसे ही दोषोंका न सुहाना दोष नहीं है, प्रत्युत चिन्ता करना दोष है ।
चिन्ता करनेका अर्थ यही होता है कि भीतरमें अपने छिपे हुए बलका आश्रय है[*] और यही तेरा अभिमान है । मेरा
भक्त होकर भी तू चिन्ता करता है तो तेरी चिन्ता दूर कहाँ होगी ? लोग भी
देखेंगे तो यही कहेंगे कि यह भगवान्का भक्त है और चिन्ता करता है ! भगवान् इसकी
चिन्ता नहीं मिटाते ! तू मेरा विश्वास न करके चिन्ता करता है तो विश्वासकी कमी तो तेरी है और
कलंक आता है मेरेपर, मेरी शरणागतिपर ।
इनको तू छोड़ दे ।
(२) तेरे भाव, वृत्तियों, आचरण शुद्ध नहीं हुए हैं तो भी तू इनकी
चिन्ता मत कर । इनकी चिन्ता मैं करूँगा ।
(३) दूसरे
अध्यायके सातवें श्लोकमें अर्जुन भगवान्के शरण हो जाते हैं और फिर आठवें श्लोकमें
कहते हैं कि इस भूमण्डलका धन-धान्यसे सम्पन्न निष्कण्टक राज्य मिलनेपर अथवा देवताओंका
आधिपत्य मिलनेपर भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा शोक दूर नहीं हो सकता । भगवान्
मानो कह रहे हैं कि तेरा कहना ठीक ही है; क्योंकि भौतिक
नाशवान् पदार्थोंके सम्बन्धसे किसीका शोक कभी दूर हुआ नहीं, हो सकता नहीं और
होनेकी सम्भावना भी नहीं । परन्तु मेरी शरण लेकर जो तू शोक करता है, यह तेरी बड़ी भारी गलती है । तू मेरे शरण होकर भी भार अपने
सिरपर ले रहा है ।
(४) शरणागत होनेके बात भक्तको लोक-परलोक, सद्गति-दुर्गति आदि किसी
भी बातकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । इस विषयमें किसी भक्तने कहा है—
दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासो
नरके वा नरकान्तक प्रकामम् ।
अवधीरित शारदारविन्दौ चराणौ ते मरणऽपि चिन्तयामि ॥
‘हे नरकासुरका अन्त करनेवाले प्रभो ! आप मेरेको चाहे स्वर्गमें रखें, चाहे
भूमण्डलपर रखें और चाहे यथेच्छ नरकमें रखें अर्थात् आप जहाँ रखना चाहें, वहाँ रखें
। जो कुछ करना चाहें वह करें । इस विषयमें मेरा कुछ भी कहना नहीं है । मेरी तो एक
यही माँग है कि शरद्-ऋतुके कमलकी शोभाको तिरस्कृत करनेवाले आपके अति सुन्दर
चरणोंका मृत्यु-जैसी भयंकर अवस्थामें भी चिन्तन करता रहूँ; आपके चरणोंको भूलूँ
नहीं ।’
[*]
कौरवोंकी सभामें द्रौपदीका चीर खींचा गया तो द्रौपदी अपनी
साड़ीको हाथोंसे, दाँतोंसे पकड़ती है और भगवान्को पुकारती है । अपने बलका आश्रय
रखते हुए भगवान्को पुकारनेसे भगवान्के आनेमें देरी लगती है । परन्तु जब द्रौपदी
अपना उद्योग सर्वथा छोड़कर भगवान्पर निर्भर हो जाती है तो दुःशासन चीरको
खींच-खींचकर थक जाता है और चीरोंका ढेर लग जाता है, पर द्रौपदीका कोई भी अंग उघड़ता
नहीं ।
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