।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
शुद्ध ज्येष्ठ चतुर्दशी, 
                 वि.सं.-२०७५, बुधवार
शरणागति     
                                                             
 


    ‘मा शुचः’ का तात्पर्य है

      (१) मेरे शरण होकर तू चिन्ता करता है, यह मेरे प्रति अपराध है, तेरा अभिमान है और शरणागतिमें कलंक है ।

    मेरे शरण होकर भी मेरा पूरा विश्वास, भरोसा न रखना मेरे प्रति अपराध है । अपने दोषोंको लेकर चिन्ता करना वास्तवमें अपने बलका अभिमान है; क्योंकि दोषोंको मिटानेमें अपनी सामर्थ्य मालूम देनेसे ही उनको मिटानेकी चिन्ता होती है । हाँ, अगर दोषोंको मिटानेमें चिन्ता न होकर दुःख होता है तो दुःख होना इतना दोषी नहीं है । जैसे, छोटे बालकके पास कुत्ता आता है तो वह कुत्तेको देखकर रोता है, चिन्ता नहीं करता । ऐसे ही दोषोंका न सुहाना दोष नहीं है, प्रत्युत चिन्ता करना दोष है । चिन्ता करनेका अर्थ यही होता है कि भीतरमें अपने छिपे हुए बलका आश्रय है[*] और यही तेरा अभिमान है । मेरा भक्त होकर भी तू चिन्ता करता है तो तेरी चिन्ता दूर कहाँ होगी ? लोग भी देखेंगे तो यही कहेंगे कि यह भगवान्‌का भक्त है और चिन्ता करता है ! भगवान्‌ इसकी चिन्ता नहीं मिटाते ! तू मेरा विश्वास न करके चिन्ता करता है तो विश्वासकी कमी तो तेरी है और कलंक आता है मेरेपर, मेरी शरणागतिपर । इनको तू छोड़ दे ।

  (२) तेरे भाव, वृत्तियों, आचरण शुद्ध नहीं हुए हैं तो भी तू इनकी चिन्ता मत कर । इनकी चिन्ता मैं करूँगा ।

  (३) दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें अर्जुन भगवान्‌के शरण हो जाते हैं और फिर आठवें श्लोकमें कहते हैं कि इस भूमण्डलका धन-धान्यसे सम्पन्न निष्कण्टक राज्य मिलनेपर अथवा देवताओंका आधिपत्य मिलनेपर भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा शोक दूर नहीं हो सकता । भगवान्‌ मानो कह रहे हैं कि तेरा कहना ठीक ही है; क्योंकि भौतिक नाशवान् पदार्थोंके सम्बन्धसे किसीका शोक कभी दूर हुआ नहीं, हो सकता नहीं और होनेकी सम्भावना भी नहीं । परन्तु मेरी शरण लेकर जो तू शोक करता है, यह तेरी बड़ी भारी गलती है । तू मेरे शरण होकर भी भार अपने सिरपर ले रहा है ।

  (४) शरणागत होनेके बात भक्तको लोक-परलोक, सद्गति-दुर्गति आदि किसी भी बातकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । इस विषयमें किसी भक्तने कहा है

                दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासो नरके वा नरकान्तक  प्रकामम् ।
अवधीरित शारदारविन्दौ   चराणौ   ते   मरणऽपि  चिन्तयामि ॥

  ‘हे नरकासुरका अन्त करनेवाले प्रभो ! आप मेरेको चाहे स्वर्गमें रखें, चाहे भूमण्डलपर रखें और चाहे यथेच्छ नरकमें रखें अर्थात् आप जहाँ रखना चाहें, वहाँ रखें । जो कुछ करना चाहें वह करें । इस विषयमें मेरा कुछ भी कहना नहीं है । मेरी तो एक यही माँग है कि शरद्-ऋतुके कमलकी शोभाको तिरस्कृत करनेवाले आपके अति सुन्दर चरणोंका मृत्यु-जैसी भयंकर अवस्थामें भी चिन्तन करता रहूँ; आपके चरणोंको भूलूँ नहीं ।’


[*] कौरवोंकी सभामें द्रौपदीका चीर खींचा गया तो द्रौपदी अपनी साड़ीको हाथोंसे, दाँतोंसे पकड़ती है और भगवान्‌को पुकारती है । अपने बलका आश्रय रखते हुए भगवान्‌को पुकारनेसे भगवान्‌के आनेमें देरी लगती है । परन्तु जब द्रौपदी अपना उद्योग सर्वथा छोड़कर भगवान्‌पर निर्भर हो जाती है तो दुःशासन चीरको खींच-खींचकर थक जाता है और चीरोंका ढेर लग जाता है, पर द्रौपदीका कोई भी अंग उघड़ता नहीं ।