।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
शुद्ध ज्येष्ठ त्रयोदशी, 
                 वि.सं.-२०७५, मंगलवार
शरणागति     
                                                               


‘मैं तुजे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा ।’इसका भाव यह है कि जब तू सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर मेरी शरणमें आ गया और शरण होनेके बाद भी तुम्हारे भावों, वृत्तियों, आचरणों आदिमें फर्क नहीं पड़ा, अर्थात् उनमें सुधार नहीं हुआ; भगवत्प्रेम, भगवद्दर्शन आदि नहीं हुए और अपनेमें अयोग्यता, अनधिकारिता, निर्बलता आदि मालूम होती है तो भी उनको लेकर तुम चिन्ता या भय मत करो । कारण कि जब तुम मेरे अनन्य-शरण हो गये तो वह कमी तुम्हारी कैसे रही ? उसका सुधार करना तुम्हारा काम कैसे रहा ? वह कमी मेरी कमी है । अब उस कमीको दूर करना, उसका सुधार करना मेरा काम रहा । तुम्हारा तो बस, एक ही ही काम है; वह काम हैनिश्चिन्त, निःशोक, निर्भय और निशंक होकर मेरे चरणोंमें पड़े रहना[*] ! परन्तु अगर तेरेमें चिन्ता, भय, बहम आदि दोष आ जायँगे तो वे शरणागतिमें बाधक हो जायँगे और सब भार तेरेपर आ जायगा । शरण होकर अपनेपर भार लेना शरणागतिमें कलंक है ।

जैसे विभीषण भगवान्‌ रामके चरणोंके शरण हो जाता है तो फिर विभीषणके दोषको भगवान्‌ अपना हो दोष मानते हैं । एक समय विभीषणजी समुद्रके इस पार आये । वहाँ विप्रघोष नामक गाँवमें उनसे एक अज्ञात ब्रह्महत्या हो गयी । इसपर वहाँके ब्राह्मणोंने इकठ्ठे होकर विभीषणको खूब मारा-पीटा, पर वे मरे नहीं । फिर ब्राह्मणोंने उन्हें जंजीरोंसे बाँधकर जमीनके भीतर एक गुफामें ले जाकर बन्द कर दिया । रामजीको विभीषणके कैद होनेका पता लगा तो वे पुष्पकविमानके द्वारा तत्काल विप्रघोष नामक गाँवमें पहुँच गये और वहाँ विभीषणका पता लगाकर उनके पास गये । ब्राह्मणोंने रामजीका बहुत आदर-सत्कार किया और कहा कि ‘महाराज ! इसने ब्रह्महत्या कर दी है । इसको हमने बहुत मारा, पर यह मरा नहीं ।’ भगवान्‌ रामने कहा कि ‘हे ब्राह्मणो ! विभीषणको मैंने कल्पतककी आयु और राज्य दे रखा है, वह कैसे मारा जा सकता है ! और उसको मारनेकी जरूरत ही क्या है ? वह तो मेरा भक्त है । भक्तके लिये मैं स्वयं मरनेको तैयार हूँ । दासके अपराधकी जिम्मेवारी वास्तवमें उसके मालिकपर ही होती है अर्थात् मालिक ही उसके दण्डका पात्र होता है । इस वास्ते विभीषणके बदलेमें आपलोग मेरेको ही दण्ड दें[†] ।’ भगवान्‌की यह शरणागतवत्सलता देखकर सब ब्राह्मण आश्चर्य करने लगे और उन सबने भगवान्‌की शरण ले ली ।

तात्पर्य यह हुआ कि ‘मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैं’इस अपनेपनके समान योग्यता, पात्रता, अधिकारता आदि कुछ भी नहीं है । यह सम्पूर्ण साधनोंका सार है । छोटा-सा बच्‍चा भी अपनेपनके बलपर ही आधी रातमें सारे घरको नचाता है अर्थात् जब वह रोता है तो सारे घरवाले उठ जाते हैं और उसे राजी करते हैं । इस वास्ते शरणागत भक्तको अपनी योग्यता आदिकी तरफ न देखकर भगवान्‌के साथ अपने अपनेपनकी तरफ ही देखते रहना चाहिये !



    [*] काहू के बल भजन कौ,  काहू   के  आचार ।
       ‘व्यास’ भरोसे कुँवरि के, सोवत पैर पसार ॥

[†] वरं  ममैव  मरणं  मद्भक्तो  हन्यते  कथम् । राज्यमायुर्मया  दत्तं    तथैव  स  भविष्यति ॥
                            भृत्यापराधे  सर्वत्र   स्वामिनो  दण्ड  इष्यते । रामवाक्यं द्विजाः श्रुत्वा स्मयादिदमब्रुवन् ॥
                                                               (पद्मपुराण, पाताल. १०४/१५०-१५१)