‘मैं तुजे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा ।’—इसका भाव यह है कि जब तू सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर
मेरी शरणमें आ गया और शरण होनेके बाद भी तुम्हारे भावों, वृत्तियों, आचरणों आदिमें
फर्क नहीं पड़ा, अर्थात् उनमें सुधार नहीं हुआ; भगवत्प्रेम, भगवद्दर्शन आदि नहीं
हुए और अपनेमें अयोग्यता, अनधिकारिता, निर्बलता आदि मालूम होती है तो भी उनको लेकर
तुम चिन्ता या भय मत करो । कारण कि जब तुम मेरे
अनन्य-शरण हो गये तो वह कमी तुम्हारी कैसे रही
? उसका सुधार करना तुम्हारा काम कैसे रहा ? वह कमी मेरी कमी है । अब उस कमीको दूर
करना, उसका सुधार करना मेरा काम रहा । तुम्हारा तो बस, एक ही ही काम है; वह काम है—निश्चिन्त, निःशोक, निर्भय और निशंक होकर मेरे
चरणोंमें पड़े रहना[*] ! परन्तु
अगर तेरेमें चिन्ता, भय, बहम आदि दोष आ जायँगे तो वे शरणागतिमें बाधक हो जायँगे और
सब भार तेरेपर आ जायगा । शरण होकर अपनेपर भार लेना शरणागतिमें कलंक है ।
जैसे विभीषण भगवान् रामके चरणोंके शरण हो जाता है तो फिर
विभीषणके दोषको भगवान् अपना हो दोष मानते हैं । एक समय विभीषणजी समुद्रके इस पार
आये । वहाँ विप्रघोष नामक गाँवमें उनसे एक अज्ञात ब्रह्महत्या हो गयी । इसपर
वहाँके ब्राह्मणोंने इकठ्ठे होकर विभीषणको खूब मारा-पीटा, पर वे मरे नहीं । फिर
ब्राह्मणोंने उन्हें जंजीरोंसे बाँधकर जमीनके भीतर एक गुफामें ले जाकर बन्द कर
दिया । रामजीको विभीषणके कैद होनेका पता लगा तो वे पुष्पकविमानके द्वारा तत्काल
विप्रघोष नामक गाँवमें पहुँच गये और वहाँ विभीषणका पता लगाकर उनके पास गये ।
ब्राह्मणोंने रामजीका बहुत आदर-सत्कार किया और कहा कि ‘महाराज ! इसने ब्रह्महत्या
कर दी है । इसको हमने बहुत मारा, पर यह मरा नहीं ।’ भगवान् रामने कहा कि ‘हे
ब्राह्मणो ! विभीषणको मैंने कल्पतककी आयु और राज्य दे रखा है, वह कैसे मारा जा
सकता है ! और उसको मारनेकी जरूरत ही क्या है ? वह तो
मेरा भक्त है । भक्तके लिये मैं स्वयं मरनेको तैयार हूँ । दासके अपराधकी
जिम्मेवारी वास्तवमें उसके मालिकपर ही होती है अर्थात् मालिक ही उसके दण्डका पात्र
होता है । इस वास्ते विभीषणके बदलेमें आपलोग मेरेको ही दण्ड दें[†] ।’ भगवान्की यह शरणागतवत्सलता देखकर सब
ब्राह्मण आश्चर्य करने लगे और उन सबने भगवान्की शरण ले ली ।
तात्पर्य यह हुआ कि ‘मैं भगवान्का
हूँ और भगवान् मेरे हैं’—इस अपनेपनके समान योग्यता, पात्रता, अधिकारता आदि कुछ भी
नहीं है । यह सम्पूर्ण साधनोंका सार है । छोटा-सा बच्चा भी अपनेपनके बलपर ही आधी रातमें सारे घरको नचाता है अर्थात् जब वह रोता है तो
सारे घरवाले उठ जाते हैं और उसे राजी करते हैं । इस
वास्ते शरणागत भक्तको अपनी योग्यता आदिकी तरफ न देखकर भगवान्के साथ अपने अपनेपनकी
तरफ ही देखते रहना चाहिये !
भृत्यापराधे सर्वत्र स्वामिनो दण्ड इष्यते
। रामवाक्यं द्विजाः श्रुत्वा स्मयादिदमब्रुवन् ॥
(पद्मपुराण, पाताल.
१०४/१५०-१५१)
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