‘मामेकं शरणं व्रज’—इन पदोंमें ‘एकम्’ पद ‘माम्’ का विशेषण नहीं हो सकता; क्योंकि ‘माम्’ (भगवान्) एक ही हैं, अनेक नहीं । इस वास्ते ‘एकम्’ पदका अर्थ ‘अनन्य’
लेना ही ठीक बैठता है । दूसरी बात, अर्जुनने ‘तदेकं वद
निश्चित्य’ (३/२) और ‘यच्छ्रेय एतयोरेकम्’ (५/१)
पदोंमें भी ‘एकम्’ पदसे सांख्य और कर्मयोगके
विषयमें एक निश्चित श्रेयका साधन पूछा है । उसी ‘एकम्’
पदको लेकर भगवान् यहाँ यह बताना चाहते हैं कि सांख्ययोग,
कर्मयोग आदि जितने भी भगवत्प्राप्तिके साधन हैं, उन सम्पूर्ण साधनोंमें मुख्य साधन
एक अनन्य शरणागति ही है ।
भगवान्ने गीतामें जगह-जगह अनन्यभक्तिकी बहुत महिमा गायी है
। जैसे, दुस्तर मायाको सुगमतासे तरनेका उपाय अनन्य शरणागति ही है[1] (७/१४); अनन्यचेताके लिये मैं सुलभ हूँ[2] (८/१४); परमपुरुषकी प्राप्ति अनन्य भक्तिसे ही होती है
(८/२२); अनन्यभक्तोंका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ (९/२२); अनन्यभक्तिसे ही भगवान्को
जाना, देखा तथा प्राप्त किया जा सकता है (११/५४); अनन्य भक्तोंका मैं बहुत जल्दी
उद्धार करता हूँ (१२/६-७); गुणातीत होनेका उपाय अनन्यभक्ति ही है (१४/२६) । इस
प्रकार अनन्यभक्तिकी महिमा गाकर भगवान् यहाँ पूरी
गीताका सार बताते हैं—‘मामेकं शरणं व्रज ।’ तात्पर्य यह कि उपाय और उपेय, साधन और साध्य मैं ही हूँ ।
‘मामेकं शरणं व्रज’ का तात्पर्य मन-बुद्धिके द्वारा शरणागतिको स्वीकार करना नहीं है, प्रत्युत
स्वयंको भगवान्की शरणमें ले जाना है । कारण कि स्वयंके शरण होनेपर मन, बुद्धि,
इन्द्रियाँ, शरीर आदि भी उसीमें आ जाते हैं, अलग नहीं रहते ।
‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः’—यहाँ कोई ऐसा मान सकता है कि पहले अध्यायमें अर्जुनने जो
युद्धसे पाप होनेकी बातें कहीं थी, उन पापोंसे छुटकारा दिलानेका प्रलोभन भगवान्ने
दिया है । परन्तु यह मान्यता युक्तिसंगत नहीं है; क्योंकि जब अर्जुन सर्वथा भगवान्के
शरण हो गया है, तब उसके पाप कैसे रह सकते हैं[3] और उसके लिये प्रलोभन कैसे दिया जा सकता है, अर्थात् उसके
लिये प्रलोभन देना बनता ही नहीं । हाँ, पापोंसे मुक्त करनेका प्रलोभन देना हो तो
वह शरणागत होनेके पहले ही दिया जा सकता है, शरणागत होनेके बाद नहीं ।
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