।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
शुद्ध ज्येष्ठ द्वादशी, 
                 वि.सं.-२०७५, सोमवार
शरणागति     
                                                               

‘मामेकं शरणं व्रज’इन पदोंमें ‘एकम्’ पद ‘माम्’ का विशेषण नहीं हो सकता; क्योंकि ‘माम्’ (भगवान्) एक ही हैं, अनेक नहीं । इस वास्ते ‘एकम्’ पदका अर्थ ‘अनन्य’ लेना ही ठीक बैठता है । दूसरी बात, अर्जुनने ‘तदेकं वद निश्चित्य’ (३/२) और ‘यच्छ्रेय एतयोरेकम्’ (५/१) पदोंमें भी ‘एकम्’ पदसे सांख्य और कर्मयोगके विषयमें एक निश्चित श्रेयका साधन पूछा है । उसी ‘एकम्’ पदको लेकर भगवान् यहाँ यह बताना चाहते हैं कि सांख्ययोग, कर्मयोग आदि जितने भी भगवत्प्राप्तिके साधन हैं, उन सम्पूर्ण साधनोंमें मुख्य साधन एक अनन्य शरणागति ही है ।

भगवान्‌ने गीतामें जगह-जगह अनन्यभक्तिकी बहुत महिमा गायी है । जैसे, दुस्तर मायाको सुगमतासे तरनेका उपाय अनन्य शरणागति ही है[1] (७/१४); अनन्यचेताके लिये मैं सुलभ हूँ[2] (८/१४); परमपुरुषकी प्राप्ति अनन्य भक्तिसे ही होती है (८/२२); अनन्यभक्तोंका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ (९/२२); अनन्यभक्तिसे ही भगवान्‌को जाना, देखा तथा प्राप्त किया जा सकता है (११/५४); अनन्य भक्तोंका मैं बहुत जल्दी उद्धार करता हूँ (१२/६-७); गुणातीत होनेका उपाय अनन्यभक्ति ही है (१४/२६) । इस प्रकार अनन्यभक्तिकी महिमा गाकर भगवान्‌ यहाँ पूरी गीताका सार बताते हैं‘मामेकं शरणं व्रज ।’ तात्पर्य यह कि उपाय और उपेय, साधन और साध्य मैं ही हूँ ।

‘मामेकं शरणं व्रज’ का तात्पर्य मन-बुद्धिके द्वारा शरणागतिको स्वीकार करना नहीं है, प्रत्युत स्वयंको भगवान्‌की शरणमें ले जाना है । कारण कि स्वयंके शरण होनेपर मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि भी उसीमें आ जाते हैं, अलग नहीं रहते ।

‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः’यहाँ कोई ऐसा मान सकता है कि पहले अध्यायमें अर्जुनने जो युद्धसे पाप होनेकी बातें कहीं थी, उन पापोंसे छुटकारा दिलानेका प्रलोभन भगवान्‌ने दिया है । परन्तु यह मान्यता युक्तिसंगत नहीं है; क्योंकि जब अर्जुन सर्वथा भगवान्‌के शरण हो गया है, तब उसके पाप कैसे रह सकते हैं[3] और उसके लिये प्रलोभन कैसे दिया जा सकता है, अर्थात् उसके लिये प्रलोभन देना बनता ही नहीं । हाँ, पापोंसे मुक्त करनेका प्रलोभन देना हो तो वह शरणागत होनेके पहले ही दिया जा सकता है, शरणागत होनेके बाद नहीं ।




[1] इस श्लोकमें ‘एव’ पद अनन्यताका ही वाचक है ।

[2] इस श्लोकमें ‘अनन्यचेताः’ पद अनन्य-आश्रयका वाचक है ।

[3] सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥
                                                                       (मानस ५/४४/१)