।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
शुद्ध ज्येष्ठ एकादशी, 
                 वि.सं.-२०७५, रविवार
 निर्जला एकादशी-व्रत (सबका)
 शरणागति     


अब विचार यह करना है कि यहाँ सम्पूर्ण धर्मोंके त्यागसे क्या लेना चाहिये ? गीताके अनुसार सम्पूर्ण धर्मों यानी कर्मोंको भगवान्‌के अर्पित करना ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है । इसमें सम्पूर्ण धर्मोंके आश्रयका त्याग करना और केवल भगवान्‌का आश्रय लेनादोनों बातें सिद्ध हो जाती हैं । धर्मका आश्रय लेनेवाले बार-बार जन्म-मरणको प्राप्त होते हैं‘एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते’ (गीता ९/२१) । इस वास्ते धर्मका आश्रय त्यागकर भगवान्‌का ही आश्रय लेनेपर फिर अपने धर्मका निर्णय करनेकी जरूरत नहीं रहती । आगे अर्जुनके जीवनमें ऐसा हुआ भी है ।

अर्जुनका कर्णके साथ युद्ध हो रहा था । इस बीच कर्णके रथका चक्‍का पृथ्वीमें धँस गया । कर्ण रथके नीचे उतरकर रथके चक्‍केको निकालनेका उद्योग करने लगा और अर्जुनसे बोला कि ‘जबतक मैं यह रथका चक्‍का निकाल न लूँ, तबतक तुम ठहर जाओ; क्योंकि तुम रथपर हो और मैं रथसे रहित हूँ और दूसरे कार्यमें लगा हुआ हूँ । ऐसे समय रथीको उचित है कि उसपर बाण न छोड़े । तुम सहस्रार्जुनके समान शस्त्र और शास्त्रके ज्ञाता हो और धर्मको जाननेवाले हो, इसलिये मेरे ऊपर प्रहार करना उचित नहीं है ।’ कर्णकी बात सुनकर अर्जुन बाण नहीं चलाते । तब भगवान्‌ कर्णसे कहते हैं कि ‘तुम्हारे-जैसे आततायीको किसी तरहसे मार देना धर्म ही है, पाप नहीं[1]; क्योंकि आततायीके छहों लक्षण तुम्हारेमें हैं[2] और अभी-अभी तुम छः महारथियोंने मिलकर अकेले अभिमन्युको घेरकर उसे मार डाला । इस वास्ते धर्मकी दुहाई देनेसे कोई लाभ नहीं है । हाँ, यह सौभाग्यकी बात है कि इस समय तुम्हें धर्मकी बात याद आ रही है, पर जो स्वयं धर्मका पालन नहीं करता, उसे धर्मकी देनेका कोई अधिकार नहीं है ।’ ऐसा कहकर भगवान्‌ने अर्जुनको बाण मारनेकी आज्ञा दी तो अर्जुनने बाण मारना आरम्भ कर दिया ।

इस प्रकार यदि अर्जुन अपनी बुद्धिसे धर्मका निर्णय करते तो भूल कर बैठते; अतः उन्होंने धर्मका निर्णय भगवान्‌पर ही रखा और भगवान्‌ने धर्मका निर्णय किया भी ।

अर्जुनके मनमें सन्देह था कि हमलोगोंको लिये युद्ध करना श्रेष्ठ है अथवा युद्ध न करना श्रेष्ठ है (२/६) । यदि हम युद्ध करते हैं तो अपने कुटुम्बका नाश होता है और अपने कुटुम्बका नाश करना बड़ा भारी पाप है‘स एव पापिष्ठतमो यः कुर्यात् कुलनाशनम्’ । इससे तो अनर्थ-परम्परा ही बढ़ेगी (२/४०-४४) । दूसरी तरफ हमलोग देखते हैं तो क्षत्रियके लिये युद्धसे बढ़कर श्रेयका कोई साधन नहीं है । तो भगवान्‌ कहते हैं कि क्या करना है और क्या नहीं करना है, क्या धर्म है और क्या अधर्म है, इस पचड़ेमें तू क्यों पड़ता है ? तू धर्मके निर्णयका भार मेरेपर छोड़ दे । यही ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य’ का तात्पर्य है ।



[1]आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् ॥
 नाततायिवधे दोषो   हन्तुर्भवति  कश्चन ।
                                               (मनु स्मृति ८/३५०-३५१)

‘अपना अनिष्ट करनेके लिये आते हुए आततायीको बिना विचार किये ही मार डालना चाहिये । आततायीको मारनेसे मारनेवालेको कुछ भी दोष नहीं लगता ।’

[2]अग्निदो गरदश्चैव  शस्त्रपाणिर्धनापहः ।
   क्षेत्रदारापहर्ता च षडेत ह्याततायिनः ॥
                                                 (वसिष्ठ ३/१९)

‘आग लगानेवाला, विष देनेवाला, हाथमें शस्त्र लेकर मारनेको उद्यत, धनका हरण करनेवाला, जमीन छीननेवाला और स्त्रीका हरण करनेवाला—यह छहों ही आततायी हैं ।