।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
शुद्ध ज्येष्ठ दशमी, 
                 वि.सं.-२०७५, शनिवार
                      एकादशी-व्रत कल है 
 शरणागति     



अब यहाँ प्रश्न यह होता है कि सर्वधर्मान्परित्यज्य पदसे क्या धर्म अर्थात् कर्तव्य-कर्मका स्वरूपसे त्याग माना जाय ? इसका उत्तर यह है कि धर्मका स्वरूपसे त्याग करना न तो गीताके अनुसार ठीक है और न यहाँके प्रसंगके अनुसार ही ठीक है; क्योंकि भगवान्‌की यह बात सुनकर अर्जुनने कर्तव्य-कर्मका त्याग नहीं किया है, प्रत्युत करिष्ये वचनं तव’ (१८/७३) कहकर भगवान्‌की आज्ञाके अनुसार कर्तव्य-कर्मका पालन करना स्वीकार किया है । केवल स्वीकार ही नहीं किया है, प्रत्युत अपने क्षात्र-धर्मके अनुसार युद्ध भी किया है । अतः उपर्युक्त पदमें धर्म अर्थात् कर्तव्यका त्याग करनेकी बात नहीं है । भगवान्‌ भी कर्तव्यके त्यागकी बात कैसे कह सकते हैं ? भगवान्‌ने इसी अध्यायके छठे श्लोकमें कहा है कि यज्ञ, दान, तप और अपने-अपने वर्ण-आश्रमोंके जो कर्तव्य हैं, उनका कभी त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उनको जरूर करना चाहिये[*]



[*] तीसरे अध्यायमें तो भगवान्‌ने कर्तव्य-कर्मको न छोड़नेके लिये प्रकरण-का-प्रकरण ही कहा हैकर्मोंको त्यागनेसे न तो निष्कर्मताकी प्राप्ति होती है और न सिद्धि ही होती है (३/४); कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता (३/५); जो बाहरसे कर्मोंको त्यागकर भीतरसे विषयोंका चिन्तन करता है, वह मिथ्याचारी है (३/६); जो मन-इन्द्रियोंको वशमें करके कर्तव्य-कर्म करता है, वही श्रेष्ठ है (३/७); कर्म किये बिना शरीरका निर्वाह भी नहीं होता, इस वास्ते कर्म करना चाहिये (३/८); कर्मणा बध्यते जन्तुःइस बन्धनके भयसे भी कर्मोंका त्याग करना उचित नहीं है; क्योंकि केवल कर्तव्य-पालनके लिये कर्म करना बन्धनकारक नहीं है, प्रत्युत कर्तव्य-कर्मकी परम्परा सुरक्षित रखनेके सिवाय अपने लिये कुछ भी कर्म करना ही बन्धनकारक है (३/९); ब्रह्माजीने कर्तव्यसहित प्रजाकी रचना करके कहा कि इस कर्तव्य-कर्मसे ही तुम लोगोंकी वृद्धि होगी और यही कर्तव्य-कर्म तुम लोगोंको कर्तव्य-सामग्री देनेवाला होगा (३/१०) मनुष्य और देवतादोनों ही कर्तव्यका पालन करते हुए कल्याणको प्राप्त होंगे (३/११); जो कर्तव्यका पालन किये बिना प्राप्त सामग्रीका उपभोग करता है, वह चोर है (३/१२); कर्तव्य-कर्म करके अपना निर्वाह करनेवाला सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है और जो केवल अपने लिये ही कर्म करता है, वह पापी पापका ही भक्षण करता है (३/१३); कर्तव्य-पालनसे ही सृष्टिचक्र चलता है, परन्तु जो सृष्टिमें रहकर अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसका जीना व्यर्थ है (३/१६); आसक्तिसे रहित होकर कर्तव्य-कर्म करनेवाला मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है (३/१९); जनकादि ज्ञानीजन भी कर्तव्य-कर्म करनेसे सिद्धिको प्राप्त हुए हैं, लोकसंग्रहकी दृष्टिसे भी कर्तव्य-कर्म करना चाहिये (३/२०); भगवान्‌ अपना उदाहरण देते हुए कहते हैं कि अगर मैं सावधान होकर कर्त्वव्य-कर्म न करूँ तो मैं वर्णसंकरताका उत्पादक और लोकोंका नाश करनेवाला बनूँ (३/२३-२४); ज्ञानी पुरुषको भी आसक्तिरहित होकर आस्तिक अज्ञानीकी तरह अपना कर्तव्य-कर्म करना चाहिये (३/२५); ज्ञानीको चाहिये कि वह अज्ञानियोंमें भेदबुद्धि पैदा न करके अपने कर्तव्यका अच्छी तरहसे पालन करते हुए उनसे भी वैसे ही कराये (३/२६) । इस प्रकार तीसरे अध्यायमें भगवान्‌ने कर्तव्य-कर्मोंका पालन करनेमें बड़ा जोर दिया है ।