अब यहाँ प्रश्न यह होता है कि ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य’ पदसे क्या धर्म अर्थात्
कर्तव्य-कर्मका स्वरूपसे त्याग माना जाय ? इसका उत्तर यह है कि धर्मका
स्वरूपसे त्याग करना न तो गीताके अनुसार ठीक है और न यहाँके प्रसंगके अनुसार ही
ठीक है; क्योंकि भगवान्की यह बात सुनकर अर्जुनने
कर्तव्य-कर्मका त्याग नहीं किया है, प्रत्युत ‘करिष्ये वचनं तव’ (१८/७३) कहकर भगवान्की आज्ञाके अनुसार
कर्तव्य-कर्मका पालन करना स्वीकार किया है । केवल स्वीकार ही नहीं किया है, प्रत्युत अपने क्षात्र-धर्मके
अनुसार युद्ध भी किया है । अतः उपर्युक्त पदमें धर्म अर्थात् कर्तव्यका त्याग
करनेकी बात नहीं है । भगवान् भी कर्तव्यके त्यागकी बात कैसे कह सकते हैं ? भगवान्ने इसी अध्यायके छठे
श्लोकमें कहा है कि यज्ञ, दान, तप और अपने-अपने वर्ण-आश्रमोंके जो कर्तव्य हैं, उनका कभी त्याग नहीं करना
चाहिये, प्रत्युत उनको जरूर करना चाहिये[*]।
[*] तीसरे अध्यायमें तो भगवान्ने कर्तव्य-कर्मको न छोड़नेके
लिये प्रकरण-का-प्रकरण ही कहा है—कर्मोंको त्यागनेसे न तो निष्कर्मताकी प्राप्ति होती है और न सिद्धि ही होती
है (३/४); कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म
किये बिना नहीं रह सकता (३/५); जो बाहरसे कर्मोंको त्यागकर भीतरसे विषयोंका चिन्तन करता है, वह मिथ्याचारी है (३/६); जो मन-इन्द्रियोंको वशमें करके कर्तव्य-कर्म करता है, वही श्रेष्ठ
है (३/७); कर्म किये बिना शरीरका निर्वाह भी नहीं होता, इस वास्ते कर्म करना चाहिये (३/८); ‘कर्मणा बध्यते जन्तुः’—इस बन्धनके भयसे भी कर्मोंका त्याग करना उचित नहीं है; क्योंकि केवल कर्तव्य-पालनके लिये कर्म करना
बन्धनकारक नहीं है, प्रत्युत कर्तव्य-कर्मकी
परम्परा सुरक्षित रखनेके सिवाय अपने लिये कुछ भी कर्म करना ही बन्धनकारक है (३/९); ब्रह्माजीने कर्तव्यसहित प्रजाकी रचना करके कहा कि इस
कर्तव्य-कर्मसे ही तुम लोगोंकी वृद्धि होगी और यही कर्तव्य-कर्म तुम लोगोंको कर्तव्य-सामग्री
देनेवाला होगा (३/१०) मनुष्य और देवता—दोनों ही कर्तव्यका पालन करते
हुए कल्याणको प्राप्त होंगे (३/११); जो कर्तव्यका पालन किये बिना प्राप्त सामग्रीका उपभोग करता
है, वह चोर है (३/१२); कर्तव्य-कर्म करके अपना निर्वाह करनेवाला सम्पूर्ण पापोंसे
मुक्त हो जाता है और जो केवल अपने लिये ही कर्म करता है, वह पापी पापका ही भक्षण
करता है (३/१३); कर्तव्य-पालनसे ही सृष्टिचक्र चलता है, परन्तु जो सृष्टिमें रहकर
अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसका जीना व्यर्थ है (३/१६); आसक्तिसे रहित होकर
कर्तव्य-कर्म करनेवाला मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है (३/१९); जनकादि
ज्ञानीजन भी कर्तव्य-कर्म करनेसे सिद्धिको प्राप्त हुए हैं, लोकसंग्रहकी दृष्टिसे
भी कर्तव्य-कर्म करना चाहिये (३/२०); भगवान् अपना उदाहरण देते हुए कहते हैं कि
अगर मैं सावधान होकर कर्त्वव्य-कर्म न करूँ तो मैं वर्णसंकरताका उत्पादक और
लोकोंका नाश करनेवाला बनूँ (३/२३-२४); ज्ञानी पुरुषको भी आसक्तिरहित होकर आस्तिक
अज्ञानीकी तरह अपना कर्तव्य-कर्म करना चाहिये (३/२५); ज्ञानीको चाहिये कि वह
अज्ञानियोंमें भेदबुद्धि पैदा न करके अपने कर्तव्यका अच्छी तरहसे पालन करते हुए
उनसे भी वैसे ही कराये (३/२६) । इस प्रकार तीसरे अध्यायमें भगवान्ने
कर्तव्य-कर्मोंका पालन करनेमें बड़ा जोर दिया है ।
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