।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७२, रविवार
मानवशरीरका सदुपयोग



(गत ब्लॉगसे आगेका)

कर्मयोगमें दो बातें हैं‒कर्म और योग । ऐसे ही ज्ञानयोगमें भी दो बातें हैं‒ज्ञान और योग । परन्तु भक्तियोगमें दो बातें नहीं होतीं । हाँ, भक्तियोगके प्रकार दो हैं‒साधन-भक्ति और साध्य-भक्ति ।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
                                          (श्रीमद्भा ७ । ५ । २३)

‒श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेद‒यह नौ प्रकारकी साधन-भक्ति है और प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमाभक्ति साध्य-भक्ति है‒मद्भक्तिं लभते पराम्’ (गीता १८ । ५४) । इसलिये श्रीमद्‌भागवतमें आया है‒भक्त्या सञ्जातया भक्त्या’ (११ । ३ । ३१) भक्तिसे भक्ति पैदा होती है’ अर्थात् साधनभक्तिसे साध्यभक्तिकी प्राप्ति होती है । इस तरह साधक चाहे तो आरम्भसे ही भक्ति कर सकता है । भक्तिका आरम्भ कब होता है ? जब भगवान् प्यारे लगते हैं, भगवान्‌में मन खिंच जाता है । संसारके भोग और रुपये प्यारे लगते हैं‒यह सांसारिक (बन्धनमें पड़े हुए) आदमीकी पहचान है । भगवान् प्यारे लगते हैं‒यह भक्तकी पहचान है । इसलिये जब रुपये और पदार्थ अच्छे नहीं लगेंगे, इनसे चित्त हट जायगा और भगवान्‌में लग जायगा, तब भक्ति आरम्भ हो जायगी । जबतक भोगोंमें और रुपयोंमें आकर्षण है, तबतक ज्ञानकी बड़ी ऊँची-ऊँची बातें कर लो, बन्धन ज्यों-का-त्यों रहेगा । जैसे गीध बहुत ऊँचा उड़ता है, पर उसकी दृष्टि मुर्देपर रहती है । मांस देखते ही उसकी ऊँची उड़ान खत्म हो जाती है और वह वहीं नीचे गिर पड़ता है । ऐसे ही बड़ी ऊँची-ऊँची बातें करनेवाले, व्याख्यान देनेवाले रुपयोंको और भोगोंको देखते ही उनपर गिर पड़ते हैं ! जैसे गीधको सड़े-गले एवं दुर्गन्धित मांसमें ही रस (आनन्द) आता है, ऐसे ही उनको रुपयोंमें और भोगोंमें ही रस आता है । इसलिये गीताने कहा है‒

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां         तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
                                                         (२ । ४४)

‘उस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त) वाणीसे जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्योंकी परमात्मामें एक निश्चयवाली बुद्धि नहीं होती ।’

जो मान, आदर, बड़ाई, रुपये, भोग आदिमें ही रचे-पचे हैं, वे मुक्त नहीं हो सकते । मुक्त अर्थात् बन्धनसे रहित तभी हो सकते हैं, जब इनसे ऊँचे उठेंगे । भोगैश्वर्य’ का अर्थ है‒भोग भोगना और भोग-सामग्री (रुपये, सोना-चाँदी, जमीन, मकान आदि)-का संग्रह करना । इन दोनोंमें लगे हुए मनुष्य परमात्मप्राप्ति करना तो दूर रहा, ‘हमें परमात्माको प्राप्त करना है’‒ ऐसा निश्चय भी नहीं कर सकते । 

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
  
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।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७२, शनिवार
मानवशरीरका सदुपयोग



(गत ब्लॉगसे आगेका)

निष्कामभाव होनेसे मनुष्यमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वोंका नाश हो जाता है और समता आ जाती है । समता आनेसे योग हो जाता है; क्योंकि योग नाम समताका ही है‒समत्वं योग उच्यते’ (गीता २ । ४८) । निष्कामभाव आनेसे चेतनताकी मुख्यता और जड़ताकी गौणता हो जाती है । मनुष्यमें जितना-जितना निष्कामभाव आता है, उतना-उतना वह संसारसे ऊँचा उठता है और जितना-जितना सकामभाव आता है, उतना-उतना वह संसारमें बँधता है ।

गीतामें आया है‒

इहैव  तैर्जितः  सर्गो  येषां  साम्ये  स्थितं  मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
                                                           (५ । १९)

जिनका मन साम्यावस्थामें स्थित हो गया, उन लोगोंने संसारको जीत लिया अर्थात् वे जन्म-मरणसे ऊँचे उठ गये । ब्रह्म निर्दोष और सम है और उनका अन्तःकरण भी निर्दोष और सम हो गया, इसलिये वे ब्रह्ममें ही स्थित हो गये । वास्तवमें परमात्मामें स्थिति सबकी है; क्योंकि परमात्मा सर्वव्यापक हैं । एक सुईकी नोक-जितनी जगह भी परमात्मासे खाली नहीं है । परमात्मा सब जगह समानरूपसे परिपूर्ण हैं । परन्तु परमात्मामें स्थित होते हुए भी संसारमें राग-द्वेषके कारण मनुष्य परमात्मामें स्थित नहीं हैं, प्रत्युत संसारमें स्थित हैं । वे परमात्मामें स्थित तभी होंगे, जब उनके मनमें राग-द्वेष मिट जायँगे । जबतक मनमें राग-द्वेष रहेंगे, तबतक भले ही चारों वेद और छः शास्त्र पढ़ लो, पर मुक्ति नहीं होगी । राग-द्वेषको हटानेके लिये क्या करें ? इसके लिये भगवान् कहते हैं‒

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ  ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥
                                                (गीता ३ । ३४)

‘इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें (प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें) मनुष्यके राग-द्वेष व्यवस्थासे (अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर) स्थित हैं । मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमें विघ्न डालनेवाले) शत्रु हैं ।’

अनुकूलताको लेकर राग और प्रतिकूलताको लेकर द्वेष होता है । साधकको चाहिये कि वह इनके वशीभूत न हो । वशीभूत होनेसे राग-द्वेष बढ़ते हैं । जबतक राग-द्वेष हैं, तबतक जन्म-मरण है । राग-द्वेषसे ऊँचा उठनेपर मुक्ति होती है और परमात्मामें प्रेम होनेपर भक्ति होती है । पहले कर्मयोग और ज्ञानयोग करके भी भक्ति कर सकते हैं और आरम्भसे भी भक्ति कर सकते हैं ।

कर्मयोग और ज्ञानयोग‒ये दोनों साधन हैं और भक्तियोग साध्य है । कई व्यक्ति ऐसा नहीं मानते, प्रत्युत कर्मयोग तथा भक्तियोगको साधन और ज्ञानयोगको साध्य मानते हैं । परन्तु गीता भक्तियोगको ही साध्य मानती है । गीताके अनुसार कर्मयोग और ज्ञानयोग‒दोनों निष्ठाएँ समकक्ष हैं, पर भक्ति दोनोंसे विलक्षण है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
  
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।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
श्रीभीमसेनी-निर्जला एकादशी-व्रत (सबका)
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(गत ब्लॉगसे आगेका)

जो सत्त्वगुणमें स्थित होते हैं, वे ऊर्ध्वगतिमें जाते हैं । जो रजोगुणमें स्थित होते हैं, वे मध्यलोकमें जाते हैं । जो तमोगुणमें स्थित होते हैं, वे अधोगतिमें जाते हैं‒

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था    अधो  गच्छन्ति  तामसाः ॥
                                                   (गीता १४ । १८)

इस प्रकार जड़-चेतनके विभागको ठीक तरहसे समझना चाहिये । जड़-अंश (शरीर) छूट जाता है, हम रह जाते हैं । जबतक मुक्ति नहीं होती, तबतक जड़ता साथमें रहती है । इसलिये एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरमें जानेपर स्थूलशरीर तो छूट जाता है, पर सूक्ष्म और कारणशरीर साथमें रहते हैं । मुक्ति होनेपर केवल चेतनता रहती है, जड़ता साथमें नहीं रहती अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर साथमें नहीं रहते । परन्तु इसमें एक बहुत सूक्ष्म बात है कि मुक्ति होनेपर भी जड़ताका संस्कार रहता है । वह संस्कार जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर मतभेद करनेवाला होता है । जैसे द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत और अचिन्त्यभेदाभेद‒ये पाँच मुख्य मतभेद हैं, जो शैव और वैष्णव आचार्योंमें रहते हैं । जबतक मतभेद है, तबतक जड़ताका संस्कार है । परन्तु मुक्तिके बाद जब भक्ति होती है, तब जड़ताका यह सूक्ष्म संस्कार भी मिट जाता है । भगवान्‌के प्रेमी भक्तोंमें जड़ता सर्वथा नहीं रहती, केवल चेतनता रहती है । जैसे, राधाजी सर्वथा चिन्मय हैं ।

मनुष्योंके कल्याणके लिये तीन योग बताये गये हैं‒कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग[*] । कर्मयोग जड़को लेकर चलता है, ज्ञानयोग चेतनको लेकर चलता है और भक्तियोग भगवान्‌को लेकर चलता है । कर्मयोग तथा ज्ञानयोग तो लौकिक साधन हैं‒लोकेऽस्मिद्विविधा निष्ठा’ (गीता ३ । ३), पर भक्तियोग अलौकिक निष्ठा है । कारण कि जगत् (क्षर) तथा जीव (अक्षर)‒दोनों लौकिक हैं‒‘क्षरश्चाक्षर एव च’ (गीता १५ । १६) । परन्तु भगवान् क्षर और अक्षर दोनोंसे विलक्षण अर्थात् अलौकिक हैं‒उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः’ (गीता १५ । १७) । जिसकी संसारमें ही आसक्ति है, जो संसारको मुख्य मानते हैं, जिनका आत्माकी तरफ इतना विचार नहीं है, पर जो अपना कल्याण चाहते हैं, उनके लिये कर्मयोग मुख्य है । अपने-अपने वर्ण-आश्रमके अनुसार निष्कामभावसे अर्थात् केवल दूसरोंके हितके लिये कर्तव्य-कर्म करना कर्मयोग है । सकामभावमें जड़ता आती है पर निष्कामभावमें चेतनता रहती है । निष्कामभाव होनेके कारण कर्मयोगी जड़- अंशसे ऊँचा उठ जाता है । अगर निष्कामभाव नहीं हो कर्म होंगे, कर्मयोग नहीं होगा । कर्मोंसे मनुष्य बंधता है‒कर्मणा बध्यते जन्तुः’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे


[*] योगास्त्रयो मया  प्रोक्ता   नृणां   श्रेयोविधित्सया ।
   ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥
                                           (श्रीमद्भा ११ । २०। ६)
  
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आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
श्रीगंगादशहरा, एकादशी-व्रत कल है
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(गत ब्लॉगसे आगेका)

मन-बुद्धि चेतनमें दीखते हैं, पर हैं ये जड़ ही । ये चेतनके प्रकाशसे प्रकाशित होते हैं । हम (स्वयं) शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको जाननेवाले हैं । इन्द्रियोंके दो विभाग हैं‒कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ । कर्मेन्द्रियाँ तो सर्वथा जड़ हैं और ज्ञानेन्द्रियोंमें चेतनका आभास है । उस आभासको लेकर ही श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना और प्राण‒ये पाँचों इन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियाँ’ कहलाती हैं । ज्ञानेन्द्रियोंको लेकर जीवात्मा विषयोंका सेवन करता है‒

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय   मनश्चायं   विषयानुपसेवते ॥
                                        (गीता १५ । ९)

ज्ञानेन्द्रियोंमें और अन्तःकरणमें जो ज्ञान दीखता है, वह उनका खुदका नहीं है, प्रत्युत चेतनके द्वारा आया हुआ है । खुद तो वे जड़ ही हैं । जैसे दर्पणको सूर्यके सामने कर दिया जाय तो सूर्यका प्रकाश दर्पणमें आ जाता है । उस प्रकाशको अँधेरी कोठरीमें डाला जाय तो वहाँ प्रकाश हो जाता है । वह प्रकाश मूलमें सूर्यका है, दर्पणका नहीं । ऐसे ही इन्द्रियोंमें और अन्तःकरणमें चेतनसे प्रकाश आता है । चेतनके प्रकाशसे प्रकाशित होनेपर भी इन्द्रियाँ और अन्तःकरण जड़ हैं । हम स्वयं चेतन हैं और परमात्माके अंश हैं । गीतामें भगवान् कहते हैं‒ममैवांशो जीवलोके’ (१५ । ७) । जैसे शरीर माँ और बाप दोनोंसे बना हुआ है, ऐसे स्वयं प्रकृति और परमात्मा दोनोंसे बना हुआ नहीं है । यह केवल परमात्माका ही अंश है । भगवान्‌ने कहा है‒

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
                                            (गीता १४ । ३)

तासौ ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥
                                        (गीता १४ । ४)

अर्थात् प्रकृति माता है और मैं उसमें बीज-स्थापन करनेवाला पिता हूँ, जिससे सम्पूर्ण प्राणी पैदा होते हैं । अतः प्राणियोंमें प्रकृतिका अंश भी है और परमात्माका भी । परन्तु जो जीवात्मा है, उसमें केवल परमात्माका ही अंश है‒ममैवांशः’ (मम एव अंशः) । देवता, भूत-प्रेत, पिशाच आदि जितने भी शरीर हैं, उन सबमें जड़ और चेतन‒दोनों रहते हैं । देवताओंके शरीरमें तैजस-तत्त्वकी प्रधानता है, भूत-प्रेतोंके शरीरमें वायु-तत्त्वकी प्रधानता है मनुष्योंके शरीरमें पृथ्वी-तत्त्वकी प्रधानता है, आदि । भिन्न-भिन्न शरीरोंमें भिन्न-भिन्न तत्त्वकी प्रधानता रहती है । यद्यपि सभी शरीरोंमें मुख्यता चेतनकी ही है, पर वह शरीरमें मैं-मेरापन करके उसीको मुख्य मान लेता है । जड़ शरीरकी मुख्यता मानना ही जन्म-मरणका कारण है‒कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’(गीता १३ ।२१) । 

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
  
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