(गत ब्लॉगसे आगेका)
कर्मयोगमें दो बातें हैं‒कर्म और योग । ऐसे ही ज्ञानयोगमें भी
दो बातें हैं‒ज्ञान और योग । परन्तु भक्तियोगमें दो बातें नहीं होतीं । हाँ, भक्तियोगके
प्रकार दो हैं‒साधन-भक्ति और साध्य-भक्ति ।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
(श्रीमद्भा॰ ७ । ५ । २३)
‒श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेद‒यह नौ प्रकारकी साधन-भक्ति है और प्रतिक्षण
वर्धमान प्रेमाभक्ति साध्य-भक्ति है‒‘मद्भक्तिं लभते पराम्’ (गीता
१८ । ५४) । इसलिये श्रीमद्भागवतमें
आया है‒‘भक्त्या सञ्जातया भक्त्या’ (११ ।
३ । ३१) ‘भक्तिसे भक्ति पैदा होती है’ अर्थात् साधनभक्तिसे साध्यभक्तिकी प्राप्ति होती है । इस तरह
साधक चाहे तो आरम्भसे ही भक्ति कर सकता है । भक्तिका आरम्भ
कब होता है ? जब भगवान् प्यारे लगते हैं, भगवान्में
मन खिंच जाता है । संसारके भोग और
रुपये प्यारे लगते हैं‒यह सांसारिक (बन्धनमें पड़े हुए) आदमीकी पहचान है । भगवान् प्यारे
लगते हैं‒यह भक्तकी पहचान है । इसलिये जब रुपये और पदार्थ अच्छे नहीं लगेंगे,
इनसे चित्त हट जायगा और भगवान्में लग जायगा,
तब भक्ति आरम्भ हो जायगी । जबतक भोगोंमें
और रुपयोंमें आकर्षण है, तबतक ज्ञानकी बड़ी ऊँची-ऊँची बातें कर लो, बन्धन
ज्यों-का-त्यों रहेगा । जैसे गीध
बहुत ऊँचा उड़ता है, पर उसकी दृष्टि मुर्देपर रहती है । मांस देखते ही उसकी ऊँची
उड़ान खत्म हो जाती है और वह वहीं नीचे गिर पड़ता है । ऐसे
ही बड़ी ऊँची-ऊँची बातें करनेवाले,
व्याख्यान देनेवाले रुपयोंको और भोगोंको देखते ही
उनपर गिर पड़ते हैं ! जैसे गीधको सड़े-गले एवं दुर्गन्धित मांसमें ही रस (आनन्द) आता
है, ऐसे ही उनको रुपयोंमें और भोगोंमें ही रस आता है
। इसलिये गीताने कहा है‒
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
(२ । ४४)
‘उस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त) वाणीसे जिसका अन्तःकरण
हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त
आसक्त हैं, उन मनुष्योंकी परमात्मामें एक निश्चयवाली बुद्धि
नहीं होती ।’
जो मान, आदर, बड़ाई, रुपये, भोग आदिमें ही रचे-पचे हैं,
वे मुक्त नहीं हो सकते । मुक्त अर्थात् बन्धनसे रहित तभी हो
सकते हैं, जब इनसे ऊँचे उठेंगे । ‘भोगैश्वर्य’
का अर्थ है‒भोग भोगना और भोग-सामग्री (रुपये, सोना-चाँदी, जमीन, मकान
आदि)-का संग्रह करना । इन दोनोंमें
लगे हुए मनुष्य परमात्मप्राप्ति करना तो दूर रहा,
‘हमें परमात्माको प्राप्त करना
है’‒ ऐसा निश्चय भी नहीं कर सकते ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
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